संपादकीय

राहुल की न्याय यात्रा का विमर्श

Aditya Chopra

इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि आजादी प्राप्त करने के बाद से भारत ने जो भी तरक्की की है और आज यह जिस शिखर स्थिति में पहुंचा है वह उदार और पारदर्शी लोकतान्त्रिक प्रणाली के भीतर ही पहुंचा है। इस प्रणाली में 'नागरिक' सबसे प्रमुख इकाई होता है क्योंकि देश के समूचे विकास में उसी की भूमिका प्रमुख होती है। नागरिकों के विकास के बिना किसी भी देश का विकास संभव नहीं होता। लोकतन्त्र में नागरिक राजनीतिक रूप से इतने सजग हो जाते हैं कि वे अपना भला-बुरा स्वयं सोच कर राष्ट्र को एेसी राजनीतिक जमात के हवाले करते हैं जो समूचे राष्ट्र के लोगों को इकाई में बांध कर समन्वित विकास के लिए नीतियां बना सके। परन्तु यह काम इतना आसान नहीं होता। राजनैतिक मोर्चे पर विभिन्न विचार धारा के दलों के बीच लगातार कश्मकश चलती रहती है जिससे देश में सत्ता पक्ष और विपक्ष का निर्माण होता रहता है। क्योंकि लोकतन्त्र में 'सरकार' एक सतत प्रक्रिया होती है अतः हर पांच साल के अन्तराल पर होने वाले चुनावों में नागरिकों की 'देश-काल-परिस्थितियों' के अनुसार वरीयताएं बदलती रहती हैं। भारत चूंकि 'शोर-शराबे' का लोकतन्त्र है अतः यहां राजनैतिक क्षेत्र में विविध आवाजें ऊंचे स्वरों में सुनने को मिलती रहती हैं। यह कहना भाजपा नेता स्वर्गीय अरुण जेतली का था। श्री जेतली 2009 से 2014 तक राज्य सभा में विपक्ष के नेता भी रहे और मोदी सरकार बनने पर उसमें वित्त व कुछ समय के लिए रक्षा मन्त्री भी रहे। अतः वह लोकतन्त्र में विपक्ष की भूमिका से भली-भांति परिचित थे और उन सभी लोकतान्त्रिक व गांधीवादी अहिंसक औजारों को सही मानते थे जिनकी मार्फत सत्ता पक्ष को हिलाया-डुलाया जा सके। आजकल कांग्रेस नेता श्री राहुल गांधी छह हजार किलोमीटर से भी लम्बी 'भारत-जोड़ो न्याय' यात्रा पर निकले हुए हैं। उनका विश्वास है कि भारत में फिलहाल सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक न्याय की जरूरत है जो नागरिकों को नहीं मिल पा रहा है। यह विपक्ष का नजरिया हो सकता है क्योंकि कांग्रेस पार्टी छह महीने पहले 28 राजनैतिक दलों के बने 'इंडिया गठबन्धन' की अगुवा पार्टी है। विपक्ष में जितने भी दल हैं उनमें कांग्रेस पार्टी की विशिष्ट स्थिति है क्योंकि इसके पास देश पर राज करने का साठ वर्ष का लम्बा अनुभव है और इसकी नीतियों के चलते भारत 'अविकसित; देश से 'विकास शील' देश बना है। कृषि से लेकर विज्ञान और मानवीय विकास के क्षेत्र में इस पार्टी की नीतियों से देश का हर नागरिक इस तरह प्रभावित रहा है कि उसके जीवन में बदलाव आया है। पिछली पूरी 20वीं सदी का भारत का इतिहास वही है जो कांग्रेस पार्टी का इतिहास है। अतः राहुल गांधी के नजरिये के पीछे अपना एक तर्क है जिसे वह सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक न्याय के लिए भारत जोड़ो न्याय यात्रा में प्रस्तुत करना चाहते हैं। वह लोकतान्त्रित तरीके से लोगों में जागरण पैदा करना चाहते हैं और सत्तारूढ़ दल को आगाह कर देना चाहते हैं कि लोकतन्त्र में जब लोकमत मजबूत होता है तो वह सत्ता के समीकरणों को बदलने की क्षमता रखता है। यह कहना फिजूल है कि राहुल गांधी की इस यात्रा का चुनावों से कोई लेना-देना नहीं है क्योंकि उनकी यह यात्रा देश के 15 राज्यों में 100 लोकसभा चुनाव क्षेत्रों से होकर गुजरेगी। बेशक यात्रा का विमर्श राजनैतिक न पेश किया गया हो मगर इसका उद्देश्य चुनावी ही लगता है। यह यात्रा उत्तर भारत के सभी प्रमुख राज्यों से होकर गुजरेगी विशेष कर उत्तर प्रदेश में 11 दिन चलेगी। यात्रा में इंडिया गठबन्धन के कांग्रेस के सहयोगी दल भी भाग लेंगे। इससे विपक्ष की एकजुटता भी नजर आयेगी। फिलहाल देश में विपक्ष को बहुत कमजोर माना जा रहा है। इसकी वजह भी कांग्रेस की चुनावी असफलता मानी जा रही है। विशेषकर मध्य प्रदेश, राजस्थान व छत्तीसगढ़ में पिछले दिनों हुए विधानसभा चुनावों में जिस तरह कांग्रेस पार्टी के हाथ से दो राज्यों राजस्थान व छत्तीसगढ़ की सरकारें भारतीय जनता पार्टी ने हथियाई उससे पार्टी में निराशा का भाव उत्पन्न होना स्वाभाविक था। परन्तु लोकतन्त्र एेसी प्रणाली है जो कभी निराश नहीं होती औऱ इसके असली भागीदार राजनैतिक दल व नागरिक हमेशा नये छोर की तलाश में रहते हैं। यह छोर हमेशा सत्ताधारी दल ही छोड़ता है जिसे पकड़कर विपक्षी दल अपनी नई राह बनाने की फिराक में रहते हैं। राहुल गांधी की न्याय यात्रा भी एेसे ही छोर को पकड़कर अपना सफर तय करना चाहती है और नागरिकों को अपने नजरिये से प्रभावित करना चाहती है। यह समाजवादी नेता डा. राम मनोहर लोहिया का बहुत ही लोकप्रिय फलसफा है कि 'लोकतन्त्र में जब सड़कें सूनी हो जाती हैं तो संसद आवारा हो जाती है'। मगर इसमें एक और जुमला जोड़ा जा सकता है कि 'सच्चे लोकतन्त्र में विपक्ष कभी भी गूंगा नहीं होता' क्योंकि इस व्यवस्था में असहमति की 'एक' आवाज को भी नागरिक कभी-कभी 'नक्कारखाने' की आवाज बना देते हैं। सवाल सिर्फ उस 'एक' आवाज के 'दम' का होता है। गौर से देखा जाये तो राहुल गांधी लगातार अपनी ही ओर से अग्नि परीक्षा के दौर से गुजर कर लोगों को सन्देश देना चाहते हैं कि उनका खड़ा किया गया विमर्श जनता के सुरों की ही आवाज है जिसका मुकाबला करने मे सत्तारूढ़ भाजपा भी पीछे दिखाई नहीं पड़ती है हालांकि उसके सुरों की ताल अपने राजनैतिक संस्कारों की लय में हैं। मगर वह भी एक जन विमर्श खड़ा करने की कोशिश है। इस बार के लोकसभा चुनावों को राहुल गांधी ने विचारों का महासंग्राम कहा है। यह महासंग्राम यही है जिसमें दोनों तरफ से नागरिकों को ही असली भूमिका अदा करनी है।