संपादकीय

एक्जिट पोल और लोकतन्त्र

Aditya Chopra

भारत में चुनाव बाद परिणाम आंकलनों ( एक्जिट पोल) का इतिहास बहुत पुराना नहीं है परन्तु स्वतन्त्र प्रेस द्वारा चुनाव सर्वेक्षणों की कहानी आजादी के बाद से ही शुरू हो गई थी। वैसे व्यक्तिगत रूप से मैं एक्जिट पोलों के हक में इसलिए नहीं हूं कि चुनाव परिणाम जानने का तरीका वैज्ञानिक नहीं होता है क्योंकि भारत के मतदाताओं का मनोविज्ञान समझना आसान काम नहीं होता। वर्तमान राजनैतिक दौर में तो यह और भी मुश्किल भरा काम हो गया है। यही वजह है कि एक्जिट पोलों के आंकलन अक्सर गलत साबित होते हैं परन्तु जम्मू-कश्मीर और हरियाणा में विभिन्न एक्जिट पोल कराने वाली 'फर्मों' ने जो निष्कर्ष निकाला है उससे नाइत्तेफाकी इसलिए नहीं रखी जा सकती है क्योंकि दोनों ही राज्यों के मतदाताओं ने मुखर होकर अपनी राजनैतिक वरीयताएं उजागर करने में किसी प्रकार की हिचक नहीं दिखाई। चुनाव परिणाम जानने का एक बहुत साधारण फार्मूला है कि जब आम मतदाता यह कहने लगे कि वह मौजूदा सत्ताधारी दल की कारगुजारियों से आजिज आ चुका है तो समझ जाना चाहिए कि काबिज सरकार के खिलाफ हवा बह रही है और जब चुनाव में हवा बहती है तो वह कहां जाकर मद्धिम पड़ेगी, कोई नहीं जान सकता। 1977 में जब इमरजेंसी के बाद लोकसभा चुनाव हुए तो जेलों से विपक्षी दलों के नेताओं के बाहर आने के बाद जनता पहले तो गुमसुम रही परन्तु जैसे -जैसे चुनाव प्रचार आगे बढ़ा और विपक्षी दलों के नेतागणों ने अपनी तकरीरों से समां बांधना शुरू किया वैसे-वैसे ही जनता मुखर होने लगी और अपनी वरीयता सत्ताधारी दल के खिलाफ खुलकर बताने लगी। अतः इन चुनावों में पूरे उत्तर और मध्य भारत में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के विरुद्ध आंधी बहने लगी। ठीक एेसा ही वातावरण इन चुनावों में हरियाणा में देखने को मिला अतः एक्जिट पोल करने वाली फर्मों के सामने मजबूरी थी कि वे पहले की भांति अपनी विश्वसनीयता को शून्य न होने दें और जनता जो इबारत दीवार पर लिख रही है उसे पढें़। लगभग एेसी ही स्थिति जम्मू-कश्मीर राज्य में इसकी कश्मीर घाटी में थी जहां मतदाता बेहिचक होकर अपनी राय व्यक्त कर रहे थे। इसके जम्मू क्षेत्र में मतदाता मिली-जुली प्रतिक्रिया दे रहे थे अतः इस क्षेत्र की 43 सीटों पर हमें परिणाम भी मिले-जुले ही मिलेंगे। इस राज्य की कश्मीर घाटी में 47 सीटें हैं। यह निसंकोच कहा जा सकता है कि जम्मू-कश्मीर में मतदाताओं का रूझान भी सत्ता परिवर्तन की ओर ही रहा। भारत में पहले चुनावों के बीच ही चुनाव सर्वेक्षण कराने का सिलसिला 1971 के लोकसभा चुनावों के बाद से चल रहा था। उस दौरान चुनाव सर्वेक्षण कराने वाली फर्मों की मौज थी। वे चुनाव परिणामों को प्रभावित करने के लिए कुछ भी अनाप-शनाप बता देती थीं। लोकतन्त्र में एेसी परंपरा पूरे चुनाव प्रणाली को ही भ्रष्ट करने की नजर से देखी गई और इस पर बहुत बाद में जाकर रोक लगी। अब पूरे चुनाव निपट जाने के बाद ही एक्जिट पोल किये जा सकते हैं परन्तु एक्जिट पोल और असली चुनाव परिणाम आने के बीच हमेशा से दो-तीन दिन का फासला रहा है। अतः इस दौरान खबरिया टीवी चैनलों को काम मिल जाता है और वे एक्जिट पोलों के परिणामों पर राजनैतिक दलों के नुमाइन्दों के बीच बहस कराते रहते हैं। इसीलिए हम देखते हैं कि विभिन्न टीवी चैनल एेसी फर्मों के साथ मिलकर ये पोल कराने से भी नहीं चूकते। इसमें एेतराज इसलिए नहीं किया जा सकता क्योंकि मीडिया अब व्यापार बन गया है। यह समझ से बाहर है कि एक्जिट पोल करने वाली फर्में किस प्रकार सीटों की घोषणा कर देती हैं। चुनाव में प्रत्याशी की निजी साख व उसकी पार्टी का रुतबा तथा चुनाव क्षेत्र तीनों ही खास मायने रखते हैं। अतः निश्चित परिणाम तभी निकाले जा सकते हैं जब प्रत्येक चुनाव क्षेत्र में मतदाताओं की मनोदशा का वैज्ञानिक तौर पर सर्वेक्षण किया जाये। यही वजह रहती है जिससे एक्जिट पोलों पर आसानी से विश्वास नहीं किया जा सकता। जहां तक हरियाणा का सवाल है तो इन चुनावों में मुख्य मुकाबला दो राष्ट्रीय दलों कांग्रेस व भाजपा के बीच हो रहा है। कहने को अन्य छोटे-छोटे दल भी मैदान हैं मगर जनता के रुख को देखते हुए ये सब वोट कटवा का किरदार ही निभा रहे हैं। यह भी कहा जा रहा है कि एेसे दलों को सत्तारूढ़ दल का आशीर्वाद प्राप्त है जिससे सत्ता विरोधी वोटों को बांटा जा सके। मगर लोकतन्त्र में जो पार्टी जनता को मूर्ख समझती है उससे बड़ा मूर्ख कोई दूसरा नहीं होता। जनता ही लोकतन्त्र की असली मालिक होती है और वह केवल पांच साल के लिए ठेके पर शासन करने का अनुबन्ध विभिन्न राजनैतिक दलों को देती है। इसके नेता जनता के नौकर होते हैं जिन्हें अपने पिछले पांच सालों का हिसाब-किताब जनता को ही देना पड़ता है। जिस भी लोकतन्त्र में जनता अपने मालिक होने का भाव त्याग देती है तो वह लोकतन्त्र दूसरी दिशा पकड़ने लगता है। इसीलिए समाजवादी चिन्तक व जन नेता डा. राम मनोहर लोहिया कहा करते थे कि जनता द्वारा हर पांच साल बाद सत्ता परिवर्तन करते रहना चाहिए क्योंकि लोकतन्त्र में विपक्षी दलों को भी सत्ता पर बैठा कर जनता अपने मालिक होने का सबूत देती है। हम भारतीय इस मामले में काफी होशियार न हों एेसा नहीं है मगर हम में सब्र भी कम नहीं है अतः सत्ता परिवर्तन तभी होता है जब जनता के सिर से पानी ऊपर जाने लगता है। मगर इसका बोध कराने के लिए भी किसी नेता की ही जरूरत होती है। अतः ये वजह नहीं था कि डा. लोहिया ने 1967 में गैर कांग्रेसवाद का नारा बुलन्द करके देश के नौ राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारों का गठन कराने में मदद की थी और अपने इस काम में एक तरफ तब के जनसंघ के नेता श्री दीन दयाल उपाध्याय की और दूसरी तरफ कम्युनिस्ट पार्टी की भी पूरी मदद ली थी हालांकि दोनों ही दलों से डा. लोहिया के गंभीर सैद्धान्तिक मतभेद थे। उनका आशय यही सिद्ध करना था कि लोकतन्त्र में विपक्षी दल को भी जनता सत्तारूढ़ दल जब चाहे तब बना सकती है। इसीलिए वह यह भी कहते थे कि जिन्दा कौमें कभी पांच साल तक इन्तजार नहीं करती।