संपादकीय

पूर्ण राज्य और जम्मू-कश्मीर

Aditya Chopra

जम्मू-कश्मीर राज्य भारतीय संघ का सिरमौर माना जाता है। इसकी वजह यह रही है कि यहां के मुस्लिम बहुसंख्यक लोगों ने आजादी के बाद 26 अक्तूबर, 1947 में भारतीय संघ में शामिल होना मंजूर किया जबकि पाकिस्तान का गठन भारत से काटकर 15 अगस्त, 1947 को केवल हिन्दू-मुस्लिम मजहब के आधार पर किया गया था। पाकिस्तान मुस्लिम बहुल एक मजहबी इस्लामी राष्ट्र बना जबकि भारत हिन्दू बहुसंख्यक होने के बावजूद धर्म​िनरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया गया। धर्मनिरपेक्षता भारत की एेसी महान ताकत थी जिसका सम्मान आज भी पूरी लोकतान्त्रिक दुनिया करती है और इसके लोकतन्त्र को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र मानती है। कश्मीरी लोग पाकिस्तान के गठन के कट्टर विरोधी थे और मानते थे कि गांधी जी के सिद्धान्तों के अनुरूप संयुक्त भारत का बंटवारा नहीं होना चाहिए और ब्रिटिश साम्राज्य के तत्कालीन सभी प्रान्तों को एक भारत में रहना चाहिए। इस सन्दर्भ में हमें 8 अगस्त, 1947 को श्रीनगर की एक विशाल जनसभा में उस समय के जम्मू-कश्मीर के सबसे बड़े नेता शेख मुहम्मद अब्दुल्ला का वह वक्तव्य हमेशा याद रखना चाहिए जिसमें उन्होंने कहा था कि 'जब तक मेरे जिस्म में खून का एक कतरा भी बाकी है पाकिस्तान नहीं बन सकता'। अतः सबसे पहले यह समझा जाना चाहिए कि कश्मीरी जनता शुरू से ही उतनी हिन्दोस्तानी है जितनी की देश के अन्य राज्यों की जनता।
इस प्रदेश का स्वतन्त्रता के बाद से बना राजनैतिक इतिहास बेशक उलझनों भरा है मगर एक हकीकत हमेशा यह रही है कि कश्मीरी सच्चे देशभक्त लोग हैं जिन्हें अपनी कश्मीरी संस्कृति पर हमेशा नाज रहा है। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में यह कोई अजूबा भी नहीं है क्योंकि तमिलनाडु के तमिल भारतीय नागरिकों को भी अपनी तमिल संस्कृति पर शुरू से ही गर्व रहा है। यदि हम बहुत पुराने राजनैतिक इतिहास को छोड़ भी दें और वर्तमान सन्दर्भों में इस रियासत की राजनीति का विश्लेषण करें तो 5 अगस्त, 2019 से इसके हालात पूरी तरह बदल चुके हैं क्योंकि इस दिन संसद में इस राज्य को संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत मिला विशेष दर्जा समाप्त कर दिया गया था और इस राज्य को दो टुकड़ों में विभाजित कर दिया गया था। एक हिस्से को इसके बाद से जम्मू-कश्मीर कहा जाने लगा और दूसरे हिस्से को लद्दाख कहा जाने लगा। इन दोनों क्षेत्रों को ही केन्द्र शासित राज्य का दर्जा दिया।
स्वतन्त्र भारत में यह पहला मौका था जबकि किसी राज्य का दर्जा घटाया गया हो और उसे पूर्ण राज्य से अर्द्ध राज्य बना दिया गया हो। अतः यह विषय जम्मू-कश्मीर की जनता के लिए भावनात्मक मुद्दा माना जा रहा है। राज्य में विधानसभा के पिछले चुनाव 2014 में हुए थे। उसके बाद यहां भाजपा व स्थानीय क्षेत्रीय पार्टी पीडीपी की मिली-जुली सरकार बनी जिसके मुखिया पीडीपी सरपरस्त मरहूम मुफ्ती मुहम्मद सईद थे। मगर 2016 में उनकी मृत्यु हो गई जिसकी वजह से कई महीनों तक राज्य में राज्यपाल शासन रहा। बाद में पीडीपी की नेता और स्व. मुहम्मद सईद की सुपुत्री महबूबा मुफ्ती ने भाजपा के साथ मिल कर पुनः सरकार बनाई मगर 2018 में इस गठबन्धन सरकार से भाजपा ने अपना समर्थन वापस ले लिया जिसकी वजह से सरकार गिर गई और राज्य में पुनः राज्यपाल व राष्ट्रपति शासन लग गया। बाद में 5 अगस्त, 2019 में इस राज्य का स्वरूप बदल दिया गया। अब 2024 में इस राज्य में चुनाव आयोग तीन चरणों में विधानसभा चुनाव करा रहा है। मगर ये चुनाव एक अर्ध राज्य के लिए होंगे और चुनावों के बाद जो भी सरकार बनेगी उसके अधिकार उतने ही सीमित होंगे जितने कि दिल्ली की सरकार के हैं।
चुनावों की घोषणा होने के बाद राज्य में जो राजनैतिक समीकरण बने उसमें कांग्रेस पार्टी व नेशनल काॅन्फ्रेंस मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं। विधानसभा में कुल 90 सीटें हैं जिनमें जम्मू- क्षेत्र की 43 व कश्मीर घाटी की 47 सीटें हैं। इन सीटों पर दोनों पार्टियों के बीच समझौता हो चुका है, केवल घाटी की ही कुछ विवादास्पद सीटें हैं जिन पर अभी बात नहीं बन पाई है। दूसरी तरफ केन्द्र में शासन करने वाली भाजपा पार्टी है जिसका प्रभाव केवल जम्मू क्षेत्र में ही माना जाता है। तीसरी पार्टी पीडीपी की हालत बहुत खराब मानी जाती है क्योंकि कश्मीरी जनता इस पार्टी द्वारा भाजपा के साथ मिलकर सरकार चलाने से खासी नाराज मानी जाती है। नेशनल कान्फ्रेंस इंडिया गठबन्धन की भी सदस्य है। लोकसभा चुनावों में कश्मीर में इस पार्टी को सफलता नहीं मिल पाई थी और इसके नेता पूर्व मुख्यमन्त्री उमर अब्दुल्ला खुद अपना ही चुनाव हार गये थे। राहुल गांधी ने जम्मू-कश्मीर के पूर्ण राज्य के दर्जे को बहाल करने का मुद्दा मुख्य चुनावी मुद्दा बनाने की रणनीति बना ली है। जबकि भाजपा इस मामले में रक्षात्मक पाले में है। चुनाव सितम्बर में शुरू होकर 1 अक्तूबर तक चलेंगे और परिणाम 4 अक्तूबर को आयेंगे। तब तक सबको इंतजार करना होगा।