आज दीपावली का शुभ उत्सव है जिसमें दीप मालिका के प्रकाश से जग उजियारा करने की परिकल्पना है। मगर जग में उजियारा अपने 'मन को उजियारा' किये बिना नहीं हो सकता। अतः सर्व प्रथम स्वयं को प्रकाशित किये बिना दीपावली के उद्देश्य को नहीं समझा जा सकता। भारत की संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसका सम्बन्ध प्रत्यक्ष रूप से लोक कल्याण से जुड़ा होता है। दशहरा हो या दीपावली इनके तार बेशक पौराणिक धार्मिक गाथाओं से जोड़ दिये गये हों मगर इनके मूल में 'लोक मंगल' ही बसता है। यह लोक मंगल परिवार से लेकर समाज तक को सशक्त करने के भाव से जुड़ा हुआ है। दीपावली पर तो हमें इसके प्रमाण आज भी दिखाई पड़ते हैं। यह विचार करने की बात है कि भारत में परिवार की स्त्री को 'गृह लक्ष्मी' क्यों कहा जाता है जबकि दिवाली पर धन की देवी कही जाने वाली लक्ष्मी जी की पूजा होती है ? भारतीय संस्कृति परिवार की उन्नति या विकास में घर की स्त्री को प्रमुख 'कारक' मानती है।
उत्तर भारत में दिवाली के पर्व पर लक्ष्मी पूजन के समय जो कथा सुनाई जाती है उसमें भी एक ऐसी पुत्रवधू की कहानी होती है जो विवाह होने के बाद अपने पति के घर पहुंचने पर उस परिवार की बेढंगी चाल को बदल देती है और प्रत्येक पुरुष सदस्य को कर्मशील होने की प्रेरणा देती है जिससे घर की आर्थिक स्थिति में सुधार आता है। हालांकि कहानी में कुछ चमत्कारिक वृतान्त भी आता है मगर उसका भी सम्बन्ध पुरुष के कमाऊ बनने की लालसा से जुड़ा हुआ है। अन्त में कहानी में धन की देवी लक्ष्मी जी की उस परिवार पर कृपा होती है और वह धन- धान्य से भरपूर हो जाता है। इस धार्मिक कहानी में भी साफ सन्देश छिपा हुआ है कि भगवान के भरोसे बैठकर कोई भी परिवार कभी भी उन्नति नहीं कर सकता। अपनी दशा सुधारने के लिए उसे कर्मशील होना ही पड़ेगा। इसी दर्शन को गुरु नानक देव जी महाराज ने बहुत ही सरल शब्दों में समझाया। सिख दर्शन में कहा गया है,
''तू समरथ बड़ा-मेरी मत थोड़ी राम
मैं पा लियो कृत कड़ा पूरण सब मेरे काम।''
अतः बहुत स्पष्ट है कि भारतीय संस्कृति व्यक्ति के स्वयं समर्थ बनने का दर्शन प्रस्तुत करती है। इसलिए दीपावली पर पटाखे फोड़कर और आतिशबाजी करके या भारी संख्या में दीप जलाना ही केवल त्यौहार नहीं है बल्कि परिवार की स्त्री का बुद्धिमान व चतुर होना भी इस पर्व की शर्त है। इससे यह अवधारणा भी ध्वस्त होती है कि भारतीय संस्कृति में घर की महिला को अधिकारहीन बनाने की स्थापना उसे 'अबला' कह कर की गई है। हमारी संस्कृति में बेशक स्त्री व पुरुष की कार्य सीमाएं नियत लगती हैं जिसमें स्त्री परिवार के भीतर की व्यवस्था देखती है और पुरुष बाहर की दुनिया में अर्थोपार्जन में लगा रहता है मगर घर के भीतर रहकर भी स्त्री को वे सभी आर्थिक अधिकार देने की व्यवस्था है जिसके बूते पर परिवार अपना समग्र विकास कर सके। उसे गृह लक्ष्मी कहने का अर्थ ही यही है। घर के भीतर उसकी सबलता ही पारिवारिक सबलता में बदलती है जिससे पूरा समाज सबल होता है और उससे आगे देश सबल होता है। यह कोई रूढ़ीवादी या पोंगापंथी विचार नहीं है बल्कि समाज में नारी के सम्मान की स्थापना है क्योंकि घर के खुशहाल होने से ही समाज खुशहाल बनता है जिससे देश खुशहाल होता है। मगर इसके साथ हमें अपनी ही संस्कृति में ऐसे अपवाद भी देखने को मिलते हैं जिसमें नारी को उपभोग्या माना गया है।
हमारे प्राचीन ग्रन्थों में ऐसा कहीं देखने को नहीं मिलता है अतः यह विचार बाद में राजा-महाराजाओं के राज्य विस्तार की लालसा के साथ आया होगा। मौर्य काल का इतिहास तो यह है कि चन्द्रगुप्त मौर्य जहां बाद में जैन मतावलम्बी हो गया था वहीं उसकी मुख्य रानी 'अरजक धर्म' को मानने वाली थी जिसका विश्वास केवल 'प्रारब्ध' पर था। बाद में बौद्ध धर्म के प्रसार के साथ यह दर्शन तेजी से फैला कि 'आत्म द्वीपो भव'। अतः भारतीय संस्कृति में दीपावली त्यौहार के तार सीधे लोकमंगल से जुड़े हुए हैं किन्तु लोकमंगल का एक मात्र रास्ता लोकतन्त्र ही होता है । अतः जब स्वतन्त्रता संग्राम का नेतृत्व महात्मा गांधी कर रहे थे तो उन्होंने बिना किसी स्त्रीवादी आन्दोलन के एक वोट का बराबर अधिकार महिलाओं को भी देने की घोषणा की। यदि भारत की महिलाएं इतनी ही पिछड़ी हुई थीं तो उन्हें बराबर का एक वोट का अधिकार देने का खतरा महात्मा गांधी मोल न लेते मगर बापू भारतीय संस्कृति के मर्मज्ञ भी थे। उन्होंने बड़ी बुद्धिमत्ता के साथ बराबर के एक वोट का सम्बन्ध नारी के सम्मान के साथ जोड़ा जबकि विकसित कहे जाने वाले देशों में वहां की 'सबला' समझी जाने वाली महिलाएं पुरुषों के बराबर वोट का अधिकार पाने के लिए आन्दोलन चला रही थीं। विकसित या सभ्य समाज की सबसे बड़ी पहचान यह होती है कि उसमें स्त्रियों का कितना सम्मान किया जाता है। भारतीय संस्कृति में यह सम्मान इस तरह है कि इसके त्यौहारों तक में उसके सम्मान को स्थापित किया गया है। यह कार्य लोक संस्कृति के माध्यम से बखूबी भारत में करने की परंपरा है। अतः दिवाली केवल बाहर रोशनी करने का त्यौहार नहीं है बल्कि अपने परिवार की रोशनी स्त्री के सम्मान का त्यौहार भी है।