संपादकीय

विपक्ष को साझा विमर्श की दरकार

Shera Rajput

लोकसभा चुनावों में अब दो महीने का समय भी शेष नहीं बचा है और संयुक्त विपक्ष अभी तक अपना कोई साझा विमर्श इस प्रकार खड़ा नहीं कर पाया है कि आम जनता केन्द्रीकृत रूप से इसकी ओर आकर्षित हो सके। कहने को विपक्षी इंडिया गठबन्धन बहुत सारे मुद्दे गिना रहा है जिनमें बेरोजगारी से लेकर महंगाई व सामाजिक नफरत और सामाजिक न्याय व जर्जर होता लोकतन्त्र जैसी अनगिनत बातें हैं मगर मोदी सरकार के खिलाफ वह एकमुश्त रूप से कोई ऐसा नारा या विमर्श नहीं गढ़ पा रहा है जो लोगों को भीतर से झकझोरने का काम करे जबकि इसके बरक्स भारतीय जनता पार्टी का राष्ट्रवाद और विकास का विमर्श देश की अधिसंख्य आबादी को आकर्षित करता दिखाई पड़ रहा है। बेशक हिन्दुत्व राष्ट्रवाद का केन्द्र बिन्दु बना हुआ है और 80 प्रतिशत हिन्दू आबादी को कहीं न कहीं प्रभावित कर रहा है। जहां तक नेतृत्व का सवाल है तो भाजपा की तरफ से प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी इसके एनडीए घटक दलों के एकछत्र व निर्विवाद नेता हैं जबकि इंडिया गठबन्धन का नेतृत्व विवादास्पद है।
लोकतन्त्र में बिना किसी शक के जब भी जनता दुखी और सत्ता से बेजार होती है तो वह नया नेतृत्व खड़ा कर देती है परन्तु 2024 के चुनावों की पूर्व संध्या पर ऐसा होता दिखाई नहीं पड़ रहा है। इसकी असली वजह क्या हो सकती है? यदि हम भारतीय समाज की संरचना देखें तो आज भी 70 प्रतिशत के लगभग परिवार 10 हजार रु. मासिक से कम की आय पर अपना जीवन गुजारते हैं। इन्हीं में से 81 करोड़ लोगों को मोदी सरकार हर महीने पांच किलो प्रति व्यक्ति के हिसाब से मुफ्त राशन देती है। ये 81 करोड़ लोग मोदी सरकार की रीढ़ कहे जा सकते हैं। इन्हें लाभार्थी शब्द से नवाजा गया है। ये लाभार्थी ही सामाजिक न्याय के घेरे में भी आते हैं। अतः जब राहुल गांधी जातिगत जन गणना की बात करते हैं तो समाज का यह वर्ग इस तर्क को नकार देता है और सामाजिक न्याय जैसी शब्दावली के प्रति उपेक्षा भाव दिखाता है।
दूसरा पक्ष यह भी है कि लाभार्थियों में गरीब मुसलमान भी शामिल हैं। इनमें पसमान्दा मुसलमानों की संख्या सर्वाधिक है। मोदी सरकार द्वारा दिये गये मुफ्त राशन और मुफ्त आवास का लाभ इस समुदाय के लोगों को भी मिला है। सामाजिक संरचना के इस वर्ग के लोगों को जब लक्ष्य बना कर जातिगत जनगणना की बात होती है तो वह अनसुनी हो जाती है। जहां तक हिन्दू-मुसलमान का सवाल है तो सरकार के आर्थिक कार्यक्रमों में धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं हो रहा है। इंडिया गठबन्धन का सबसे बड़ा विमर्श जातिगत जनगणना ही माना जा रहा है क्योंकि इसमें भाजपा के हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद को जड़ से उखाड़ने की अपूर्व क्षमता है। राहुल गांधी अपनी न्याय यात्रा में इसका पूरा समीकरण इस प्रकार पेश करते हैं कि 50 प्रतिशत पिछड़े, 23 प्रतिशत अनुसूचित जाति व जनजाति के लोग व 15 प्रतिशत अल्पसंख्यक। यदि इनकी संख्या जोड़ दी जाये तो कुल 88 प्रतिशत बनता है मगर सत्ता में इनकी भागीदारी 5 प्रतिशत से भी ऊपर जाकर नहीं बैठती।
अतः देश के सभी आय स्रोतों व प्रशासन पर केवल 12 प्रतिशत लोगों का कब्जा है। यह बहुत वजनदार तर्क है मगर समाज के उन्हीं वर्गों द्वारा अनसुना है जो इसका हिस्सा हैं। इसका सबसे बड़ा कारण लाभार्थी समाज माना जा रहा है। यह क्लिष्ठ सामाजिक समीकरण आने वाले लोकसभा चुनावों की शतरंजी चौसर पर असर डाले बिना नहीं रह सकती मगर इसके बावजूद यह कोई विमर्श नहीं है। बेशक विपक्ष का युवा बेरोजगारी का विमर्श बहुत वजनदार साबित हो सकता है मगर राष्ट्रवाद के वजनी विमर्श के चलते यह भी बहुत हल्का पड़ता दिखाई दे रहा है। इसकी असली वजह यह है कि पिछले दस वर्षों के दौरान पिछड़े वर्ग के युवाओं को ही भाजपा ने हिन्दुत्व का ध्वज वाहक बना दिया है। विभिन्न धार्मिक-सांस्कृतिक आयोजनों का हिन्दू समाज में जिस प्रकार घरेलूकरण हुआ है उसमें पिछड़े समुदाय के युवाओं की भूमिका अग्रणी रही है। यह रोजगार का एक नया विकल्प भी बना है हालांकि यह पूर्ण रोजगार नहीं है परन्तु इसमें जिस प्रकार पिछड़े समुदाय के युवा वर्ग को सम्मान मिला है वह इस समाज का गौरव बन चुका है। ये सब जमीनी कारण हैं जिनकी वजह से विपक्ष का कोई एकल विमर्श नहीं बन पा रहा है परन्तु सबसे बड़ा काम भाजपा ने जो किया है वह यह है कि इसने सांस्कृतिक चेतना को राष्ट्रीय चेतना से केवल जोड़ा ही नहीं बल्कि इसे भारतीयता का पर्याय बना दिया है। संस्कृति और धर्म में बहुत बारीक अन्तर होता है।
उदाहरण के लिए भगवान राम हिन्दू धर्म के अनुयायियों के आराध्य देव हैं मगर वह भारतीय संस्कृति के भी प्रतीक हैं और इस प्रकार हैं कि इस्लामी देश इंडोनेशिया में भी रामलीलाओं का मंचन होता है। भारत में भी रामलीला में देवी-देवताओं के किरदार निभाने का काम मुस्लिम अदाकार करते रहे हैं परन्तु राम एक ओर जहां हिन्दुओं के लिए धर्म के परिचायक हैं वहीं प्रत्येक भारतीय के लिए भारतीयता के परिचायक कहे जाते हैं। भाजपा के सत्ता में आने के बाद धार्मिक आयोजनों के सार्वजनिक रूप से करने को गजब का बढ़ावा मिला है। सावन की शिवरात्रि पर उत्तर भारत में जिस तरह लाखों की संख्या में कांवड़ लेकर लोग जाते हैं वह एक नजीर है। 1990 के दशक में राम मन्दिर आन्दोलन तेज होने पर कांवड़ यात्रा में भाग लेने वाले लोगों की संख्या में गुणात्मक वृद्धि हुई।कांवड़ियों के लिए सार्वजनिक सुविधाएं उपलब्ध कराने के प्रति होड़ मची और देखते-देखते ही इसमें राज्यों की सरकारें भी शिरकत करने लगीं।
अब मार्च माह में पड़ने वाली महाशिवरात्रि पर भी कांवड़ यात्रा को महिमा मंडित किया जा रहा है और पश्चिम उत्तर प्रदेश में इसके आयोजन को भी नये कलेवर दिये जा रहे हैं। हालांकि महाशिव रात्रि पर भी कांवड़ भरने की परंपरा बहुत प्राचीन है मगर इसे सांस्कृतिक आयोजन में तब्दील करने की परंपरा नई है। विपक्ष का प्रभावशाली विमर्श न उभरने के पीछे मुख्य कारण यही लगता है मगर दक्षिण भारत में विपक्ष का पलड़ा भारी है क्योंकि वहां के प्रदेशों की परंपराएं उत्तर भारत से पूरी तरह अलग हैं और वहां की स्थानीय भाषाएं हिन्दू-मुसलमानों को मजबूत सांस्कृतिक धागे से जोड़े रहती हैं। जहां तक लोकतन्त्र को खतरे का सवाल है तो मुझे 1971 के चुनावों की याद आती है जब समूचे विपक्ष ने एक मंच पर आकर स्व. इन्दिरा गांधी की नई कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़ा था और जबर्दस्त तरीके से मुंह की खाई थी। तब जनसंघ, स्वतन्त्र पार्टी, संसोपा, भारतीय क्रान्ति दल व संगठन कांग्रेस ने गठजोड़ बनाया था जिसे चौगुटा कहा गया था। इन्दिरा गांधी की आलोचना स्व. अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर मोरारजी देसाई तक एक अधिनायकवादी नेता की तरह करते थे औऱ कहते थे कि व्यक्ति से बड़ी संस्था होती है।
इन्दिरा गांधी ने तब कांग्रेस को दो टुकड़ों में बांट दिया था और राष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस पार्टी के अाधिकारिक प्रत्याशी श्री नीलम संजीवा रेड्डी को अपनी मनपसन्द के प्रत्याशी श्री वी.वी. गिरी से हरवा दिया था। उन पर विपक्ष आरोप लगाता था कि वह तानाशाही तरीके अपनाती हैं और अध्यादेशों की सरकार चलाती हैं। मगर उनका गरीबी हटाओ का विमर्श इतना असरदार था कि आम जनता ने दीवाना होकर उनका समर्थन किया था। मगर 1977 में इमरजैंसी लगाने की वजह से ही वही इन्दिरा गांधी बुरी तरह हार गई थीं। इसके कारण कुछ अलग थे। आम जनता पर इमरजेंसी में जोर-जुल्म हुआ था।

– राकेश कपूर