श्रीराम के नाम की कीर्ति आज पूरे विश्व में सुनाई दे रही है। एशिया और यूरोप तथा अमेरिकी महाद्वीप के देशों में जहां-जहां भी भारतीय रहते हैं उनमें नई ऊर्जा का संचार हुआ है। श्रीराम के नाम का जपमात्र भारतीय जनमानस को युगों-युगों से शीतलता देता आ रहा है। शास्त्रों के अनुसार श्रीराम नारायण के मानव अवतार हैं। उन्होंने नारायण के शैय्या रूपी शेषनाग के अवतार लक्ष्मण, उनके दिव्य शंख के अवतार भरत और सुदर्शन चक्र के अवतार शत्रुघ्न है। मैं अपने पिता अश्विनी कुमार के श्रीराम जन्मभूमि मंदिर के संबंध में लिखे गए सम्पादकियों को पढ़ रहा था तो उनमें मुझे कुछ सूफी फकीरों के बारे में जानकारी मिली जो सदियों पूर्व अयोध्या की पावन भूमि पर पधारे और आज भी प्रत्यक्ष या परोक्ष उनकी अनुभूतियां भक्तों को होती हैं और वह आज भी हमारे प्रेरणा स्रोत हैं।
* इस संदर्भ में पहला नाम मैं लिखना चाहूंगा कलंदर शाह का। वह 16वीं सदी के प्रसिद्ध सूफी संत थे। वह जानकी बाग में रहते थे । मूलतः अरब से आए थे। कहते हैं उन्हें यहां माता सीता के साक्षात दर्शन हुए और यहीं रह गए।
* दूसरा नाम है हनुमान भक्त 'शीश' का यह भी अरब से ही आए थे। अयोध्या आकर इन्होंने लंबा अरसा भजन बन्दगी की। यह रोज गणेशकुंड में स्नान करते थे, जहां प्रतिदिन इन्हें पवन पुत्र हनुमान के दर्शन होते थे। उनके दर्शनों ने उन्हें आध्यात्मिक मस्ती में ला दिया था। सदा हनुमानवृत्ति में ही विचरण करते थे। बड़े मस्त औलिया भाव को प्राप्त कर गए थे।
* रामभक्त जिक्र शाह, 30 वर्ष की आयु में ईरान से अयोध्या आए। यह मात्र जौ ही खाते थे। दिन-रात राम-राम का जाप करते थे। भगवान ने प्रकट होकर दर्शन दिए। इन्हें एक दिन आकाशवाणी हुई : "अयोध्या पाक स्थान है। तुम यहां रहकर, बंदगी करो।" जिक्र शाह आजीवन यहीं रहे।
इन तीनों मुसलमान फकीरों ने अपना जीवन अयोध्या में ही बिताया। एक अन्य रामभक्त नौ गज पीर का भी उल्लेख मिला। इनका आगमन 40 वर्ष की उम्र में अरब से हुआ था। इन्हें सदा जीवों पर दया करने का हुक्म हुआ। वह सदा श्रीराम का जाप करते थे। फिर बड़ी बुआ के नाम से लोकप्रिय रामभक्त और संत जमील शाह की बात करें तो, अयोध्या में देवकली मंदिर के बाजू में इनकी मजार है। यह स्वामी रामानंद जी की शिष्या थीं और कबीर जी के सान्निध्य में इन्हें 'रामनाम' जपने का मंत्र मिला था। जमील शाह अरब के रहने वाले थे। किसी दैवी संकेत मिलने पर भारत आए थे। यहां उनकी मुलाकात स्वामी सुखअन्दाचार्य से हुई। अयोध्या में उन्हें अजीब-सा आनंद मिला। उन्होंने अपनी कथाओं में इस बात का जिक्र किया है कि जब मैं गुरु की कृपा से दसवें द्वार पर पहुंचा तो मुझे पीरे मुर्शीद हबीबे खुदा और अशर्फुल अम्बीया ने दीदार दिया। मैं आज तक वह नूरानी शक्ल नहीं भूल पाया। तब से अयोध्या ही मेरा मक्का हो गया। न जाने कितने ही मुस्लिम फकीरों ने इस पवित्र स्थान पर भगवान राम को अपना खिराजे अकीदत पेश किया।
स्वतंत्र भारत में हम तो बंटते ही चले गए। किसी ने ठीक ही कहा-
''मंदिर-मस्जिद के झगड़ों ने बांट दिया इंसान को,
धरती बांटी सागर बांटे मत बांट भगवान को।''
भारत की गंगा जमुनी तहजीब यही कहती है कि हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई सभी समरसता से रहें। एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में 4634 समुदाय हैं। इन समुदायों के बीच परस्पर संवाद ही था जिसने हमारी अनूठी मिश्रित संस्कृति को प्रोत्साहन दिया। जिसे गंगा जमुनी तहजीब और सर्वधर्म संभाव कहा गया। हम होली पर गुजिया खाते हैं, रंगों से खेलते हैं। दिवाली पर दीपक जलाते हैं। हम ईद पर गले मिलते हैं और क्रिसमिस पर क्रिसमिस ट्री लगाते हैं और उस पर सितारे लटकाते हैं। यही हमारी साझा विरासत और सांस्कृतिक पहचान है। बाकी हमारे घरों में होने वाली प्रार्थना, उपवास आदि हमारी धार्मिक पहचान है। हमारे पास दुर्गा जी की मूर्तियां बनाने वाले मुस्लिम कारीगर हैं। ताजिया बनाने वाले हिन्दू कारीगर हैं। श्रीराम और श्रीकृष्ण के वस्त्र बनाने वाले मुस्लिम कारीगर हैं। यहां तक कि रामायण के मंचन में कई पात्रों की भूमिका भी मुस्लिम कलाकार करते हैं। जिस समय वे यह सब करते हैं तो वह पवित्र कार्य और रोजी-रोटी के लिए संलग्न होते हैं वे केवल इंसान होते हैं। (क्रमशः)
आदित्य नारायण चोपड़ा
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