अपने देश में प्रकृति द्वारा दिए गए भी बहुत से मौसम हैं और शासकों, प्रशासकों तथा जनता के कार्यों, आलोचनाओं और विधि निषेध का राग अलापने के असंख्य मौसम बन चुके हैं। कभी हम पटाखे चलाते हैं और कुछ दिन बाद पटाखों के धुएं से उत्पन्न प्रदूषण की निंदा करते हैं। पराली हर वर्ष जलती है। फिर भी पराली न जलाने पड़े इसका कोई हल ढूंढने और सख्ती करने की चर्चा कम पर राजनीतिक दांव-पेंच पराली के धुएं पर ज्यादा हो जाते हैं। कभी सुप्रीम कोर्ट में शोर का प्रदूषण कम हो जाए इसके लिए आदेश होते हैं और इसके विरुद्ध बहुत शोर मचाया जाता है। कुत्तों पर नियंत्रण किया जाए। कुत्तों की नसबंदी की जाए, पर अब यह भी आदेश मिला कि कुत्ते काटें तो प्रशासन या मालिक हर्जाना दे। कुत्ते जो शोर मचाते हैं, काटते हैं, हर गली-कूचे में दर्जनों कुत्ते गंदगी फैलाते हैं, उसकी तरफ कभी भी प्रदूषण रोकने वालों का या पर्यावरण प्रेमियों का ध्यान नहीं गया।
आज की गंभीर चर्चा इस पर है कि सुप्रीम कोर्ट बहुत सख्त है पराली जलाने पर। होना भी चाहिए। जो काम मानव सेहत के लिए अच्छा नहीं उसे रोकना ही चाहिए, पर हैरानी है कि जो कुत्तों का शोर, गंदगी और लाखों लोगों का कुत्ते का काटे जाना उस पर अभी कोई सख्ती दिखाई नहीं दे रही। इस सुप्रीम सख्ती से समाधान क्या मिलेगा, यह तो समय बताएगा पर उसका परिणाम सामने आ गया। पंजाब सरकार ने बार-बार अदालत के आगे यह अपील की है कि उन्होंने पराली जलाने वालों पर दो करोड़ रुपये जुर्माना किया है। लगभग एक हजार केस दर्ज किए हैं। यह भी कह रहे हैं कि पराली पहले से कम जलाई गई। मेरा सरकारों से और न्यायपालिका से यह प्रश्न है कि क्या किसान पराली अपने घरों में या सरकारी माल गोदामों में संभाल सकता है?
क्या किसान अपना शौक पूरा करने के लिए या लोहड़ी, दीवाली मनाने के लिए पराली जला रहे हैं। मैं भी पराली जलाने की सख्त विरोधी रही, पर जब किसानों की मजबूरी, अन्नदाता के आंसू निकट से देखे जांए तो यह महसूस होगा ही कि किसान तो तभी प्रसन्न होगा जब सरकारें धान के साथ ही पराली उठाने का भी प्रबंध कर लें। एक किसान में इतनी तकनीकी शक्ति और आर्थिक बल नहीं है कि वह पराली को बिना जलाए ठिकाने लगा सके। किसानों के साथ ही उन लोगों को भी आगे आना चाहिए जो किसानों द्वारा उत्पन्न अन्न से जीवन चला रहे हैं। जिनका पालन पोषण उसी अन्न से हो रहा है जो किसान ने उगाया है। वैसे इन दिनों बहुत चर्चा एनजीटी अर्थात नेशनल हरित प्राधिकरण की भी है। पराली का धुआं न फैले, स्वास्थ्य की हानि न हो, इसके लिए आजकल यह हरित प्राधिकरण भी बहुत गतिशील है।
सन् 2010 में बनाए गए इस प्राधिकरण की भी इन दिनों बहुत चर्चा है। वैसे वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, जल प्रदूषण, औद्योगिक प्रदूषण, अपशिष्ट अर्थात् कूड़ा निपटान आदि की यह निगरानी भी करता है और इस पर बने केसों की सुनवाई भी करता है, पर अफसोस यह है कि इस संगठन के सामने भी आजकल पराली के अतिरिक्त और कोई विषय जैसे है ही नहीं। क्या यह जानते हैं कि पूरे देश को कूड़े का डंपिंग क्षेत्र बनाकर रख दिया है। जिन शहरों पर स्मार्ट सिटी के नाम पर करोड़ों रुपये लुटाए जा रहे हैं वहां भी कुछ वीआईपी क्षेत्रों को छोड़कर शेष सब कूड़े और गंदगी से भरे हैं। जब पंजाब में अंधाधुंध वृक्षों की कटाई हुई तो बार-बार एनजीटी की पंजाब शाखा को निवेदन किया गया कि वृक्ष काटने से रोके जाएं।
नगर निगम, नगर सुधार ट्रस्ट, लोक निर्माण विभाग से भी पूछा गया कि वृक्ष कौन काट रहा है। क्यों कट रहे हैं? सरकारी डर से सबके मुंह पर ताले लग गए। शहरों की घनी आबादी के बीच बने श्मशानघाट धुआं प्रदूषण, बीमारियां फैला रहे हैं। बार-बार जगाने-चेताने के बाद भी पंजाब में तो कोई ध्यान इस हरित प्राधिकरण ने नहीं दिया, शेष देश का मुझे प्रत्यक्ष अनुभव नहीं। जहां ध्वनि प्रदूषण की बात करते हैं वहां यह भूल जाते हैं कि घनी आबादी के लोगों को दिन रात कुत्तों की चीख पुकार और लाउडस्पीकरों की आवाज से कितना शोर से पीड़ित होना पड़ता है। वैसे जो प्रदूषण पूरे देश में प्रतिदिन लाखों पशुओं को काटने और उन्हें पकाने से पैदा होता है उस प्रदूषण की कभी बात क्यों नहीं की। वे भी तो श्मशानघाट हैं, जहां पशुओं को काटकर जलाया और पकाया जाता है। क्या उस धुएं, बदबू और गंदगी से यह हरित प्राधिकरण या न्यायपालिका आमजन को मुक्त करवा सकेगी या करवाने के लिए कोई प्रयास किया। फिर दीवाली पर पटाखे न चलाने की बात कहना भी एक फैशन बन गया है। पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं। अभी परिणाम भी आ जाएंगे। क्या कोई ऐसा विजयी उम्मीदवार होगा जो पटाखे नहीं चलाएगा।
लोकसभा चुनावों में तो पूरे देश में पटाखे चलते हैं और अभी ताजी रिपोर्ट है कैट अर्थात व्यापारियों के कंफेडरेशन आफ आल इंडिया ट्रेडर्स की। इन्होंने कहा है कि आने वाले सीजन में जो 23 नवंबर से शुरू हो रहा है, 38 लाख शादियां पूरे देश में होंगी। क्या कोई शादी बिना पटाखे चलाए पूरी होगी? सच्ची बात तो यह है कि पटाखे प्रदूषण फैलाते हैं, अवसर चाहे कोई भी हो। भारत जैसे गरीब देश में जहां लाखों लोग आर्थिक तंगी के कारण पौष्टिक भोजन से वंचित, शिक्षा, दवाई से वंचित और फुटपाथों पर सोते हैं उस देश में पटाखे चलाना अर्थात रुपये जलाना है। इस पर भी विचार होना ही चाहिए। बात फिर पराली की।
– लक्ष्मी कांता चावला