संपादकीय

भेदभाव की मानसिकता को जड़ से खत्म करने की जरूरत

Shera Rajput

कर्नाटक सरकार ने बेंगलुरू के उस मॉल को सात दिन के लिए बंद करा दिया है, जिसने एक किसान को धोती और एक सफेद कमीज पहने होने की वजह से कथित रूप से प्रवेश की अनुमति नहीं दी थी। किसान को मॉल में कथित रूप से प्रवेश नहीं देने की घटना की विधानसभा में सभी पार्टी के सदस्यों ने कड़ी निंदा की है। असल में, 70 वर्षीय फकीरप्पा अपनी पत्नी और बेटे के साथ मल्टीप्लेक्स में फिल्म देखने के लिए मॉल गए थे। फकीरप्पा ने कथित तौर पर सफेद कमीज और 'पंचे' (धोती) पहन रखी थी। मॉल के सुरक्षा कर्मचारी ने कथित तौर पर उन्हें और उनके बेटे से कहा कि उन्हें 'पंचे' पहनकर अंदर जाने की अनुमति नहीं दी जाएगी। कर्मचारी ने उनसे कहा कि वह 'पतलून पहनकर आएं।' सरकार ने किसान के कथित अपमान को 'गरिमा और स्वाभिमान' पर आघात बताया और कहा कि इसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
हमारा संविधान सबको बराबरी का हक देता है। लिंग, जाति, समुदाय, धर्म हो या शिक्षा या फिर पहनावा। किसी भी आधार पर संविधान भेदभाव रखने की अनुमति नहीं देता। यह बात सच है कि संविधान प्रदत्त इस अधिकार ने आम भारतीय को व्यापक ताकत दी है। लेकिन बेंगलुरु के मॉल में एक किसान को धोती पहनकर प्रवेश करने से रोकने की घटना से लगता है कि आज भी ऊंच-नीच का भेद रखने वालों की कमी नहीं है। चिंता की बात यही है कि संविधान की अवमानना करते हुए भेदभाव के ऐसे-ऐसे पैमाने तय कर दिए जाते हैं कि कभी-कभी लगता है कि क्या ऐसा बर्ताव झेलने के लिए ही हमें आजादी हासिल हुई थी।
कहीं भी व्यक्ति से व्यक्ति का भेद होने लगे, ऊंच-नीच का बर्ताव होने लगे और कोई भी खुद को सबसे ऊपर मानते हुए संविधान की भावनाओं के विपरीत मापदंड तय कर दे तो कैसे कहा जा सकता है कि ऐसे लोग प्रगतिशील देश के निवासी हैं। मॉल में धोती पहने व्यक्ति को प्रवेश से रोकने की घटना अंग्रेजीदां संस्कृति ही दर्शाती है। इससे पहले फरवरी में भी बेंगलुरु में ही मेट्रो ट्रेन में एक व्यक्ति को मैले कपड़ों के कारण बैठने से रोक दिया गया था। यह बर्ताव इंसानियत के नाम पर कलंक है। अंग्रेजों के हम कुछ नहीं लगते थे, इसलिए वे बराबरी का कोई मौका देने की सोच रखते ही नहीं थे।
सितंबर 2021 में दिल्ली का अंसल प्लाजा और यहां का अकीला रेस्टोरेंट काफी चर्चा में आया था। इस रेस्टोरेंट का वीडियो सोशल मीडिया पर खूब वायरल भी हुआ था, जिसमें एक महिला को रेस्टोरेंट में घुसने से सिर्फ इसलिए रोका जा रहा था, क्योंकि उस महिला ने साड़ी पहन रखी थी। मतलब केवल साड़ी पहन लेने से ही, उस महिला का स्टैंडर्ड डाउन हो गया और वो एक ही पल में अंदर बैठे लोगों से निचली पायदान पर आ गई। ये घटना 19 सितंबर 2021 की है। असल में पत्रकार अनिता चैधरी ने एक फेसबुक पोस्ट में आरोप लगाया था कि अक्वीला रेस्तरां में साड़ी में जाने की अनुमति नहीं है, क्योंकि भारतीय साड़ी स्मार्ट वियर नहीं है। स्मार्ट वियर की परिभाषा क्या है मुझे बताएं। कृपया स्मार्ट वियर की परिभाषा बताएं, ताकि मैं साड़ी पहनना बंद कर दूं।' हालांकि, रेस्तरां ने दावा किया कि घटना को गलत तरीके से प्रस्तुत किया गया था।
असल में वेस्टर्न कल्चर को अपनाते-अपनाते लोग अब इतने अंधे हो चुके हैं कि उन्हें अपनी संस्कृति पर ही लज्जा आने लगी है, साथ ही इस रेस्टोरेंट के मैनेजमेंट का कहना है कि साड़ी स्मार्ट कैजुअल नहीं है, जबकि साड़ी पहनने से कोई भी महिला कमजोर नहीं हो जाती है। यूं भी महिलाएं क्या पहनेंगी और कैसे पहनेंगी? इसका निर्णय लेने का हक केवल महिलाओं को है मगर रेंस्टोरेंट ऑनर की बात समझ से परे है कि साड़ी पहनने वाली महिलाएं अंदर नहीं जा सकती हैं। हालांकि, मॉर्डन होते लोगों की सोच कभी-कभी बहुत ज्यादा मॉर्डन हो जाती है, तब उन्हें अपनी संस्कृति का ज्ञान भी नहीं बचता है। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, सुषमा स्वराज जैसी भारत की कई महिला नेताओं और राजनयिकों ने विदेशों में साड़ी पहनकर बड़े-बड़े मंचों पर भारतीय संस्कृति का मान बढ़ाया. चाहे वो अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, रूस, जापान ही क्यों न हो. हमारी बहुत सी महिला नेताओं ने विदेशों में भी साड़ी पहनी है, तो भला दिल्ली का ही रेस्टोरेंट साड़ी को स्मार्ट वियर क्यों नहीं मान सकता? कमोवेश धोती पूरे देश में पहनी जाती है। ऐसे में एक किसान द्वारा धोती बांधकर माल जाने में भला किसे परेशानी होने लगी।
ये तो भारत की पहचान है। हमारी संस्कृति का अंग है। दक्षिण भारत में धोती बांधना बहुत साधारण सी बात है। वहां आपको एक दो नहीं हजारों ऐसे लोग मिल जाएंगे जो रोजमर्रा की जिंदगी में धोती ही बांधते हैं।
10 अप्रैल 2024 को बेंगलुरु में एक व्यक्ति को बेंगलुरु मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन लिमिटेड (बीएमआरसीएल) के अधिकारियों ने कथित तौर पर मेट्रो ट्रेन में चढ़ने से रोक दिया क्योंकि उसकी शर्ट के बटन खुले हुए थे। डोड्डाकलासंद्रा मेट्रो स्टेशन पर बीएमआरसीएल स्टाफ ने उस व्यक्ति से स्पष्ट रूप से कहा था कि वह अपनी शर्ट के बटन बंद कर ले और साफ कपड़ों के साथ मेट्रो स्टेशन पर आए, नहीं तो उसे मेट्रो स्टेशन में एंट्री नहीं करने दी जाएगी। बेंगलुरु मेट्रो में एंट्री नहीं मिलने वाले शख्स का वीडियो सोशल मीडिया पर तेजी से शेयर हुआ था। इस मामले में भी मेट्रो स्टाफ के भेदभाव पूर्ण तरीके की लोगों ने आलोचना की थी।
आजादी से पहले हम रेल में प्रथम श्रेणी के दर्जे में यात्रा करने के अधिकार के लिए तरसते थे। विदेशों में कई जगह हमारा प्रवेश वर्जित था। पर एक स्वतंत्र देश में एक भारतीय को महज वेशभूषा के कारण कहीं मॉल में प्रवेश तो कहीं मेट्रो रेल में बैठने से रोका जाए तो इसे क्या कहेंगे? यही ना कि सामंती मानसिकता अभी गई नहीं है। मेट्रो रेल के प्रकरण में दोषियों पर कार्रवाई हो गई। जिस मॉल में किसान को धोती पहनकर प्रवेश से रोका गया उसे भी सात दिन के लिए बंद रखने की सजा दे दी गई और उसके संचालक के खिलाफ मुकदमा भी दर्ज हो गया। लेकिन उस अपमान का क्या जो किसान ने सहा है? हां, दोनों ही मामलों में संतोष की बात यह है कि समूचे देश में ऐसे बर्ताव के खिलाफ तीखी प्रतिक्रियाएं हुई हैं। लेकिन दूसरे देशों में ऐसी मनोवृत्ति के कारण भारत की जो छवि बनती है उसका क्या?
जमीनी हकीकत यह है कि भारत चाहे जितना भी मॉडर्न बन जाए, नई पीढ़ी चाहे कितनी भी तरक्की क्यों न कर ले, जमाना चाहे जितना भी एडवांस क्यों न हो जाए, लेकिन यहां की माटी की पहचान वही रहेगी जो असलियत में है। इस माटी का लोहा दुनिया ने भी माना है। क्योंकि हमारी संस्कृति, परंपरा और सहज सभ्यता धरती पर सबसे पुरानी मानी जाती है। साड़ी, धोती और अन्य देसी वेषभूषा ही भारत के असली परिधान है। फिर बेंगलुरु में इस तरह की घटना का होना क्या भारतीय संस्कृति और उसके पहनावे-ओढ़ावे पर आघात नहीं है?
दरअसल, भेदभाव की मानसिकता वाली सोच को जड़ से खत्म करने की जरूरत है। सजा के सख्त प्रावधान ही काफी नहीं, इस पर अमल भी होना चाहिए। शिक्षा के प्रसार और संस्कारों की जागरूकता के प्रयास भी उतनी ही तेजी से होने चाहिए। जो लोग ऐसा बर्ताव करते हैं उन्हें सख्त सजा देकर यह संदेश तो देना ही होगा कि समाज में भेदभाव के लिए कोई जगह नहीं है। ऐसे मामलों में फौरी कार्रवाई की बजाय सख्त नियम कानून बनाने चाहिए, जिससे इस प्रकार की घटनाएं आगे न होने पाएं।

– राजेश माहेश्वरी