संपादकीय

विश्व के 60 देशों में चुनावों का शोर है इन दिनों

Shera Rajput

चुनावी शोर सिर्फ हमारे देश में ही ध्वनि-प्रदूषण नहीं फैला रहा। विश्व के लगभग 60 देशों में यह सिलसिला इन दिनों चर्चा में है। भारत के अलावा अमेरिका, ब्रिटेन व इंडोनेशिया में यही शोर दिखने-सुनने में आ रहा है। यद्यपि चुनावी तारीखें अलग-अलग हैं, मगर सर्वेक्षणों और संभावित परिणामों की घोषणाएं जारी हो चुकी हैं।
हमारे अपने देश में अब तक चुनावी सर्वेक्षणों का एक दौर पूरा हो चुका है। कमोबेश सभी सर्वेक्षणों ने भाजपा को मतदाताओं की पहली पसंद बताया है, मगर कुछ प्रदेशों में चौकाने वाले परिणाम भी सामने आ सकते हैं। भाजपा 'अबकी बार 400 पार' का लक्ष्य प्राप्त कर पाएगी या नहीं, इस पर बहसों के दंगल जारी हैं। मगर फिलहाल इतना तय है कि वर्तमान प्रधानमंत्री के सामने चुनौती खड़ा कर पाना, किसी भी विपक्षी दल या गठबंधन के लिए संभव नहीं हो पा रहा। बेरोजगारी और महंगाई बड़े मुद्दे हैं, मगर विकास और निर्माण की गति इन दोनों मुद्दों से लम्बी लकीर सिद्ध हो सकती है। चुनावों में अपनी उपलब्धियों की भी मार्केटिंग करनी होती है। वोटर उपभोक्ता है, ग्राहक है। उसे आप अपनी छवि बेचना चाहेंगे तो बेचें, मगर वह जो भी लेगा, ठोक बजाकर लेगा। सत्तापक्ष के पास तो उपलब्धियों का भरा पूरा भंडार है, मगर प्रतिपक्ष के पास फिलहाल आरोपों के गुब्बारे हैं। उन गुब्बारों में हवा भर उड़ाने की मशक्कत प्रतिपक्ष को थका सकती है।
सबसे बड़ा संकट भाषा की तहज़ीब और शालीनता पर है। भाषा का स्तर निरंतर गिरता जा रहा है। राजनेता गालियों व गली-बाजारों की भाषा पर उतरने लगे हैं। उन्हें इस बात का भी अहसास नहीं है कि आप आदमी हो या खास आदमी ऐसी भाषा को कतई पसंद नहीं करता। कम से कम भद्दी भाषा कभी भी 'वोट-कैचर' सिद्ध नहीं होती। शालीनता, सादगी और भलमनसाहत भले ही बेमानी हैं, मगर यह भी एक हकीकत है कि आम आदमी अभी भी इन्हीं चीजों को पसंद करता है।
एक पहलू इस बार के चुनावी हथकंडों का भी है। इस बार सिर्फ रिपोर्ट-कार्ड या आरोपों के गुब्बारे काम नहीं आएंगे। एक मुख्य भूमिका सोशल मीडिया और 'ए.आई.' यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की भी होगी। 'एआई' वाले प्रधानमंत्री से लेकर मामूली संतरी व गली के आम आदमी को किसी भी रूप में पेश कर सकते हैं। मसलन प्रधानमंत्री की आवाज़ में 'एआई' के जादूगर ऐसे भाषण भी प्रसारित कर सकते हैं जिनका प्रधानमंत्री की रीति-नीति, चिंतन, कार्यप्रणाली, निजी जिंदगी से कोई लेना-देना नहीं होता। 'एआई' किसी भी विपक्षी दिग्गज नेता को प्रधानमंत्री की तारीफों के पुल बांधते हुए दिखाने में भी समर्थ हैं।
देश में सोशल मीडिया चैनलों व 'यू-ट्यूबरों' की संख्या भी एकाएक बढ़ गई है। ऐसे चैनलों व कुछेक 'एआई' मदारियों की सेवाएं राजनैतिक दल भी लेने लगे हैं। अब राजनैतिक दलों के 'वार-रूम' में सिर्फ कम्प्यूटर-सैवी लोगों की ही भरमार नहीं है, एआई वालों, 'कंटैंट राइटरों', 'नारे गढ़ने वालों और बिना भीड़ जुटाए शोर मचा सकने वालों की भी भरमार है।'
देश के 90 प्रतिशत लोगों को नहीं मालूम कि ये 'चुनावी बांड' क्या होते हैं। हाल ही के हंगामों से उसे इतना अवश्य हुआ है कि रबर की चप्पल और सूती साड़ी पहनने वाली ममता दीदी की सादगी से भरी 'तृणमूल कांग्रेस', सोनिया-राहुल वाली कांग्रेस से भी ज्यादा अमीर है। भाजपा के बाद ममता दीदी की पार्टी का स्थान है। सोनिया-राहुल वाली कांग्रेस को 1421 करोड़ रुपए जबकि ममता दीदी की टीएमसी के खाते में 1609 करोड़ आए। इस फहरिस्त के मुख्य अंश इस प्रकार हैं ः
पार्टी (चंदा करोड़ रुपए में)
भाजपा : 6060.51
कांग्रेस : 1421.86
आप : 65.45
तृणमूल कांग्रेस : 1609.53
बीआरएस : 1214.70
बीजद : 775.50
द्रमुक : 639.00
वाईएसआर कांग्रेस : 337.00
तेपेदा : 218.88
राजद : 73.50
जनता दल सेक्युलर : 43.40
सिक्किम क्रांतिकारी पार्टी : 36.5
राकांपा 31.00
जन सेना पार्टी 21.00
समाजवादी पार्टी 14.05
जनता दल यूनाइटेड 14.00
झारखंड मुक्ति मोर्चा 13.50
अकाली दल 7.20
अन्नाद्रमुक 6.05
सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट 5.50
एमजीपी 1.00
जेकेएमसी 1.00
जीएफपी 1.00
सबसे बड़ा राजनैतिक-अजूबा यही है कि कमोबेश सभी के माथे पर दाग है। कोई पूरी तरह बेदाग नहीं दिखता। फर्क इतना भर ही है कि 'किसी के दाग छप जाते हैं तो किसी के छुप जाते हैं।' कमोबेश सभी के माथे पर दाग हैं, मगर सभी उन दागों को अपने माथे से धोकर दूसरे के माथे पर चस्पां करके तालियां पीटना चाहते हैं। हम सबकी आत्मा में झूठ भरा है और हम सबके माथे पर दाग लगा है, और हम महज वह विज्ञापन हो गए हैं जो बार-बार दोहराता है- 'दाग अच्छे हैं।'

– डॉ. चन्द्र त्रिखा