उत्तरकाशी की सिलक्यारा सुरंग में 15 दिनों से फंसे मजदूरों को अभी तक बाहर निकाला नहीं जा सका है। अभी तक कोई उपाय काम नहीं आ रहा। बड़ी से बड़ी मशीनें खराब हो गई। सुरंग के अगल-बगल से खुदाई चल रही है। उम्मीद तो बंधी थी कि मजदूर जल्दी ही बाहर आ जाएंगे। 50 मीटर तक पाइप डाला जा चुका था कि मशीन के प्लेट ही टूट गए। दरअसल सीधी खुदाई में मलबा हटाना जोखिम भरा काम होता है। इसलिए इस काम में काफी वक्त लग रहा है। सुरंग में फंसे मजदूरों को दवाएं, भोजन, मेवे, ऑक्सीजन सब कुछ पहुंचाया जा रहा है। कैमरे के माध्यम से उनसे सम्पर्क भी हो रहा है लेकिन श्रमिकों के परिजनों के सब्र की सीमा टूटती नजर आ रही है। अब उन्हें भगवान पर ही भरोसा है। उनकी इंतजार करते-करते आंखें भी थक चुकी हैं। हर सुबह उम्मीद बंधती है कि फंसे मजदूर बाहर निकल कर सूर्य की किरणें देखेंगे लेकिन शाम तक सभी उम्मीदें अंधकार में डूब जाती हैं। सुरंग से मजदरों को निकालने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय विशेषज्ञ भी पहुंचे हुए हैं। इन विशेषज्ञों ने पहले भी सुरंग हादसों में अनेक लोगों को बचाया है।
उत्तरकाशी के टनल हादसे ने 2018 में हुए थाइलैंड के टनल हादसे की याद दिला दी है। उस वक्त 18 दिन बाद सुरंग में फंसे बच्चों को सुरिक्षत बाहर निकाल लिया गया था। थाइलैंड में एसोसिएशन फुटबाल टीम के 11 से 16 साल की उम्र के 12 बच्चे और कोच एक टनल में फंस गए थे। टनल में पानी भर गया था और हर तरफ अंधेरा था। टनल में फंसे बच्चों को खोजने में ही रेस्क्यू टीम को 9 दिन लग गए थे। रेस्क्यू ऑपरेशन में ब्रिटेन, अमेरिका, चीन, रूस और ऑस्ट्रेलिया जैसे कई देश आगे आए थे।
उस वक्त टनल से बच्चों को निकालने के लिए एक बेस तैयार किया गया। बच्चे जिस टनल में फंसे थे उसमें हर तरफ पानी और अंधेरा ही था। ऐसे में तय किया गया कि हर बच्चे को निकालने के लिए दो गोताखोर जाएंगे। एक गोताखोर बच्चे को बाहर निकालेगा और दूसरा उसके पीछे होगा। बच्चों तक पहुंचने के लिए बेहद पतली जगह में से होकर गुजरना था। गोताखोरों के साथ ऑक्सीजन टैंक भी थे। टनल में गाइडिंग रस्सी लगाई गई। बच्चों को बाहर निकालने से पहले बेहोश किया गया। इस ऑपरेशन के शुरू में कहा जा रहा था कि इसमें 4 महीने लग जाएंगे, लेकिन तीन दिनों में ही गोताखोरों ने बच्चों को बाहर निकाल लिया। हालांकि ऑक्सीजन की कमी से रेस्क्यू कर रहे दो कर्मचारियों की मौत हो गई।
उत्तरकाशी की सुरंग में फंसे मजदूरों का मनोबल कायम है और वह हिम्मत के साथ रह रहे हैं। परिजनों से उनकी बात भी कराई जा रही है। उम्मीद बंधी हुई है कि मजदूरों को सुरक्षित निकाल लिया जाएगा। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री श्री पुष्कर सिंह धामी टनल ऑपरेशन की स्वयं निगरानी कर रहे हैं। भारत में पहले भी कई कोयला खदानों के धंस जाने से या उनमें पानी भर जाने से मजदूरों के मारे जाने की घटनाएं हो चुकी है। चसनाला कोयला खदान का हादसा तो सबको याद होगा। 27 दिसम्बर, 1975 को झारखंड के धनबाद स्थित कोयला खदान में पानी भर गया था। दिल दहला देने वाले इस हादसे में लगभग 375 मजदूरों की जिंदा ही जल समाधि हो गई थी। उस समय साइट पर कोई सुरक्षा उपकरण उपलब्ध नहीं थे। जहां तक की पानी निकालने के लिए उच्च दबाव वाले पम्प भी रूस और पोलैंड से मंगाए गए थे। इस हादसे के बाद आधुनिक तकनीक से लैस मशीनों का इस्तेमाल होने लगा और सुरक्षा उपाय अधिक पुख्ता हो गए। तब से कोयला खदानों में हादसे बहुत कम हुए। उत्तरकाशी में सुरंग बना रही कम्पनी के पास तकनीकी दक्षता तो है। हो सकता है सुरंग की खुदाई करते वक्त पहाड़ की प्रकृति का आकलन करने में कहीं कोई भूल हो गई हो।
उत्तराखंड के पहाड़ों की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। इस वर्ष अधिक वर्षा के चलते पहाड़ों के दरकने की कई घटनाएं हो चुकी है। जोशीमठ में पहाड़ों के दरकने की आपदा अब तक स्मरण होते ही रोंगटे खड़े कर देती है। सुरंग धंसने के बाद कम्पनी द्वारा सुरक्षा उपायों में बढ़ती गई लापरवाही पर भी उंगलियां उठी हैं। खुदाई से पहले श्रमिकों की सुरक्षा के लिए पहले ही जो पाइप डाली जानी चाहिए थी वह नहीं डाली गई थी। पर्यावरणविद तो पहाड़ी राज्यों में पहाड़ खोद कर बड़ी परियोजनाएं चालू करने का विरोध करते रहे है लेकिन यह साफ है कि सरकारें विकास और प्रकृति में संतुलन बनाकर नहीं चल पाई। हर हादसा कोई न कोई सबक देकर जाता है। ऐसे हादसों से सबक लेकर ही भविष्य में होने वाली घटनाओं को रोका जा सकता है। विशेषज्ञ हर रास्ते से मजदूरों को निकालने के लिए तकनीकी उपायों का इस्तेमाल कर रहे हैं। हम सबका भरोसा उन्नत तकनीक पर बना हुआ है। उम्मीद यही है कि मजदूरों को सुरक्षित बाहर निकाल लिया जाएगा।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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