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श्रीमती इन्दिरा गांधी और भारत का आर्थिक पुनर्जागरण : डा.जगन्नाथ मिश्र

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पटना : पूर्व मुख्यमंत्री डा. जगन्नाथ मिश्र ने कहा कि भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी तत्कालीन विश्व-राजनेताओं में सर्वाधिक लोकप्रिय थीं तो स्वभावत: ही हमारा माथा गौरव से ऊंचा हो जाता था। किन्तु इस अद्वितीय लोकप्रिय की कसौटी में उनके सार्वजनिक नेतृत्व के मात्र राजनैतिक पक्ष का ही बाहुल्य है। यदि इसमें उनके सार्वजनिक जीवन के मानवीय एवं आर्थिक पक्ष का समावेश किया जाय, तो निश्चय ही वह द्वितीय विश्व-युद्धोश्ररकालीन अवधि की उच्चतम राजनेता सिद्ध होंगी। जैसा कि सभी विशिष्ट राजनेताओं के साथ सटीक उतरता आया है, श्रीमती गांधी की सार्वजनिक मानवीयता उनके आर्थिक विचारों, नीतियों तथा सम्पादन-कर्मठता के रूप को निखारती है। यत्र-तत्र बिखरे उनके इन विचारों के मंथन एवं तदाधारित नीतियों के मनन से यह ज्ञात होगा कि उन्होंने विकास-चिन्तन को एक नया मोड़़ दिया था और विकासात्मक आयोजन को वांछनीय बनाया जो भारत जैसे विकासशील देशों के लिए अत्यन्त समीचीन होने के साथ-साथ सर्वथा अनिवार्य भी है।

‘‘मेरे खून की हर एक बूँद इस देश के विकास को एक नई शक्ति देगी तथा देश मजबूत व ऊर्जावान बनेगा।’’ उड़ीसा में 30 अक्टूबर, 1984 की आम सभा के इस अन्तिम भाषण में स्व.श्रीमती इन्दिरा गांधी ने अपनी उस जीवन-यात्रा के अंत की कल्पना की थी, जिसकी हर एक सांस देश के विकास के लिए समर्पित थी। इस सांस ने देश की 1966 की अचेत अर्थव्यवस्था को नई चेतना दी। अकाल से घिरे दो वर्षों (1966 व 1967) से देश को निकालकर हरित क्रान्ति के द्वार पर खड़ा किया, आर्थिक विषमता के कुचक्रों की चुनौतियों का सामना किया और इसे स्थायित्व प्रदान किया। उन्होंने सश्रा अकाल की छाया में संभाली थी, पर 15 करोड़ टन वार्षिक अनाज उत्पादन की संपन्नता देकर हमारे बीच से उठ गयीं। आर्थिक इतिहास में अन्नपूर्णा का यह रूप और कार्य सदा अंकित रहेंगे।

मानवीय राजनेताओं के कार्यकलापों में सदैव राजनीति के साथ आर्थिक चिन्तन का स्वर्णिम समन्वय रहता है। स्वयं श्रीमती गांधी के शब्दों में:- ‘‘राजनीति के अभाव में अर्थशास्त्र नहीं, और अर्थशास्त्र के अभाव में राजनीति नहीं।’’ आर्थिक चिन्तन के बिना राजनीति खोखली है और राजनीतिक वास्तविकताओं की विमुखता में आर्थिक चिन्तन अधूरा है। आर्थिक नीतियों को राजनैतिक पृष्ठभूमि का आदर करना है और व्यावहारिक राजनीति को आर्थिक परिस्थितियों से प्रेरणा लेनी है। (संभवत: इसी कारण अर्थशास्त्र के जनक एडम स्मिथ ने अपनी पुस्तक का नाम ‘‘राजनीतिक अर्थशास्त्र’’ यानी पोलिटिक्ल इकोनॉमी रखा था) राजनीति एवं अर्थशास्त्र के स्वर्णिम समन्वय में विश्वास के ही कारण लेकिन महात्मा बने, ‘‘भाईजी’’ ने विश्व को आधुनिक जापान देने का श्रेय लिया और अमेरिका के अब्राहम लिंकन अमर हुए। भारत में भी यह विश्वास परंपरा अक्षुण्ण है।

निर्धन प्रताडि़त देश के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने ‘‘हरिजन’’ को हरिजन (प्रभु-प्रिय) माना; राष्ट्रनायक पं? जवाहर लाल नेहरू ने ‘‘लघु व्यक्ति के पुनरूद्धार का आदर्श अपनाया और उसी श्रृंखला में श्रीमती गांधी ने ‘‘निर्धनता-निवारण’’ का संकल्प लिया। श्रीमती इन्दिरा गंाधी की विचारधारा मुख्यत: महात्मा गंाधी के विचारों और उनके द्वारा बताये गये मार्गों पर चलती थी, श्रीमती इन्दिरा गांधी पर डॉ. अम्बेदकर के परिवत्र्तनकारी विचारों का भी अत्यधिक प्रभाव था। डॉ. अम्बेदकर ने 26 नवम्बर 1949 को राष्ट्र को चेताया था कि भारत ने राजनीतिक समानता और दूसरी तरफ सामजिक आर्थिक असमानता का अन्तर्विरोध स्थापित हो रहा है।

इसे शीघ्र समाप्त करने की जरूरत है, अन्यथा गैर बराबरी के शिकार समूह राजनीति में अपना विश्वास खो देंगें। असमानता एक भयंकर रोग है, जो भारत में शैक्षणिक, धार्मिक, लैंगिक एवं राजनीतिक लोकतंत्र के लिए खतरा बनती रही है। किसी भी देश की शासन व्यवस्था उसकी सामाजिक संरचना एवं उसके आर्थिक आधार पर टिकी होती है, और लोकतांित्रक समाज में लाकतांत्रिक शासन व्यवस्था का सफल होना असमानता के कारण असंभव है। इसकी सफलता के लिए सामाजिक लोकतंत्र एवं सामाजिक समानता एक पूर्व शत्र्त है। गांधी जी का मानना था, ‘आजादी कि शुरूआत निचले स्तर पर होनी चाहिए। गांधी जी कहते थे ‘मैं एक ऐसे भारत के लिए कोशिश करूँगा जिसमें गरीब से गरीब आदमी भी यह महसूस करे कि यह उसका देश है, इसके निर्माण में इसकी आवाज का महत्व है। स्त्रियों को पुरूषों के समान अधिकार मिले। सारी दुनिया से हमारा संबंध शांति और भाईचारे का होना, यही मेरे सपनों का भारत है।

एक दिलचस्प स्थिति की चर्चा अनिवार्य हो जाती है। 1968 में मीरडाल की पुस्तक ‘‘एशियनड्रामा‘‘ का प्रकाशन हुआ, जिसे देशों की निर्धनता के कारणों की खोज की संज्ञा दी गयी है (विपरीत एडम स्मिथ की विख्यात पुस्तक ‘‘पोलिटिकल इकॉनोमी‘‘ को वैकल्पिक रूप से देशों से वैभव के कारणों की खोज कहा जाता है) इसी के आस-पास विश्व-बैंक की ‘‘विचारशाला‘‘ (थिक-टैंक) से निर्धनता के अध्ययन एवं उसके शासन की चर्चाएं निकलीं और उसी समय बिन्दु की परिधि में श्रीमती गांधी ने निर्धनता-उन्मूलन का संकल्प लिया था। चौथी पंचवर्षीय योजना के प्रमुख व्यापक लक्ष्य के रूप में आर्थिक चिन्तन किसी कवि की कविता नहीं, जो ‘‘अकस्मात‘‘ हृदय से फूट पड़े, वह मनन एवं अवगाहन का परिणाम होता है।

अस्तु, यह निश्चित करना कि निर्धनता-संबंधी आर्थिक चिन्तन का प्रथम ठोस श्रेय मीरडाल को है या विश्व बैंक की विचारशाला को है, अथवा श्रीमती गांधी को है, यदि असंभव नही कहा जाय तो, परम दुरूह अवश्य है। किन्तु, इतना निर्विवाद है कि इन तीनों के संबंधित चिन्तन में समयावधि की समानता है। परंतु इससे अधिक महत्वपूर्ण है एक विभिन्नता, जो श्रीमती गंाधी की विशिष्टता थीं, श्री मीरडाल ने निर्धनता-निवारण की प्रयास-सफलता के लिए किंचित ‘‘कठोर‘‘ तथा ‘‘किचित कम नर्म‘‘ राज्य सरकार (सोफ्ट स्टेट) की पूर्वकल्पना बतायी, विश्व-बैंक के अध्यक्ष श्री मेकनमारा ने अपने कार्यकाल में निर्धनता-शमन हेतु पिछड़े देशों में कुछ छिटपुट एकांगी परियोजनाओ केा प्रश्रय दिया, किन्तु प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी ने ‘‘नर्म राज्य‘‘ के तत्वाधन में ही निर्धनता-निवारण का उद्देश्य अपनाया, व्यापक सर्वांगीण आयोजन के द्वारा इसकी प्राप्ति का बीड़ा उठाया तथा उसकी प्रक्रिया को ठोस रूप दिया। सत्य ही आयोजन द्वितीय विश्व-युद्धोत्तरकालीन अवधि का लोकप्रिय नारा है। उद्देश्य मुख्यत: उत्पादन वृद्धि रहा, उसमें निर्धनता उन्मूलन का राष्ट्रीय उद्देश्य स्वयं अपने में एक क्रान्तिकारी नवीनता है, जिसका श्रेय है प्रधानमंत्री को। विकासात्मक आयोजन को यही उनकी अनूठी देन है।

इस देश में स्व. पं. जवाहर लाल नेहरू के आर्थिक आदर्शों की प्रेरणा है। आयोजन का काल देश में 1950-51 यानी प्रथम पंचवर्षीय योजना था। पर प्रथम पंचवर्षीय योजना अधिकांशत: पुनसंस्थापनात्मक थी, जिसमें द्वितीय विश्व-युद्ध और देश विभाजन की बर्बादियों तथा खाद्यान्न समस्या एवं मुद्रा-स्फीति जैसी तत्कालीन कठिनाइयों के शमन के लिए विभन्न परियोजनाओं का समावेश था। भारतीय आयोजन की विकास-विधि का स्वरूप निश्चित हुआ द्वितीय पंचवर्षीय योजना के आरंभ से और इसका निर्धारण हुआ 1954 में जब स्व. पं. जवाहर लाल नेहरू ने ‘‘सोशलिस्टक पैटर्न आफॅ सोसायटी‘‘ का रूप-निखार किया। ऐसे समाजवादी समाज की रचना में, जो हमारे आयोजन का दीर्घकालीन परम उद्देश्य, ‘‘लघु व्यक्ति‘‘ (स्माल मैन) को केन्द्रीय स्थान है। द्वितीय पंचवर्षीय योजना के अंतिम प्रतिवेदन के अनुसार, हमारे आयोजन का उद्देश्य है सामान्य जनजीवन के जीवन-यापन में सुधार, आर्थिक एवं सामाजिक विषमताओं का निराकरण तथा ऐसे समाज व वातावरण का सृजन जिसमें ‘‘लघु व्यक्ति‘‘ को सदैव ऊपर उठने के अवसर उपलब्ध होते जायँ, ताकि स्वयं ऊपर उठते हुए ‘‘समस्त राष्ट्र को नित नयी उंचाइयां देते जाएं।‘‘ लघु व्यक्ति के उत्थान में ही राष्ट्रीय उत्थान का रहस्य है। ठीक यही बात पिछले दिनों नयी दिल्ली में स्कूल के विद्यार्थियों को सम्बोधित करते हुए 21 जनवरी, 1982 को श्रीमती गांधी ने दुहरायी थी।

छठी योजना के आमुख में योजना आयोग के अध्यक्ष के रूप में इन्दिरा गांधी का निम्नोद्धृत विश्वास अक्षरश: सत्य है: ‘‘पिछले तीन दशकों के आयोजन के फलस्वरूप हम अपने देश में एक आधुनिक तथा आत्मनिर्भर अर्थव्यय को संपोषित करने में सफल हुए हैं। आज विश्वास के साथ हम कह सकते हैं कि बावजूद क्षेत्रीय भाषागत, सामाजिक तथा सामप्रदायिक विभिन्नताओं के, विकास विधि ने हमारे राष्ट्र को मजबूत बनाया है, हमारे गणतंत्र को ठोस बनाया है और समाजवाद का हमारा मार्ग प्रशस्त किया है। हमें गर्व है कि आज भारत उस अवस्था में है कि विकास का प्रतिफल ‘‘अंतिम व्यक्ति‘‘ तक पहुंचेगा। इस अवस्था मेें आयोजन प्रक्रिया का महत्व और भी गुणित हो जाता है।‘‘

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