Sharma Ji Ki Beti Review: वुमेन एम्पावरमेंट वाली पुरानी कहानी में ताहिरा ने डाला नया तड़का, Sharma Ji Ki Beti Review: Tahira Adds A New Flavor To The Old Story Of Women Empowerment

Sharma Ji Ki Beti Review: वुमेन एम्पावरमेंट वाली पुरानी कहानी में ताहिरा ने डाला नया तड़का

‘तुम्हारी सुलु,’ ‘सुखी,’ ‘धक धक,’ ‘इंग्लिश विंग्लिश,’ ‘क्वीन,’ इन सभी फिल्मों में क्या समानता है? महिलाएं सामाजिक बंधनों से मुक्त होकर अपनी खोज और सेल्फ लव की यात्रा पर निकल रही हैं। Sharma Ji Ki Beti  भी अलग नहीं है। निर्देशक ताहिरा कश्यप की पहली फिल्म आज के भारत में वुमनहुड की एक दिल छू लेने वाली और मजेदार खोज है। शर्मा महिलाओं की तीन पीढ़ियों की परस्पर जुड़ी कहानियों के जरिए, जो सभी एक ही सरनेम से जुड़ी हुई हैं, फिल्म महत्वाकांक्षा, सामाजिक अपेक्षाओं और मां और बेटियों के बीच अटूट बंधन के विषयों पर रोशनी डालती है। अपनी यात्रा के जरिए, ताहिरा कश्यप ने मध्यवर्गीय भारतीय महिलाओं की उन चुनौतियों और जीत की कहानी को दर्शाया है, जिनका वह अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में सामना करती हैं।

  • कहानी किशोरावस्था की दहलीज पर खड़ी दो सबसे अच्छी सहेलियों, स्वाति और गुरवीन के इर्द-गिर्द घूमती है
  • स्वाति को काम में व्यस्त रहने वाली मां ज्योति से जूझना पड़ता है, जो एक ट्यूटर है और कई जिम्मेदारियां निभाती है

कहानी

कहानी किशोरावस्था की दहलीज पर खड़ी दो सबसे अच्छी सहेलियों, स्वाति और गुरवीन के इर्द-गिर्द घूमती है। स्वाति को काम में व्यस्त रहने वाली मां ज्योति से जूझना पड़ता है, जो एक ट्यूटर है और कई जिम्मेदारियां निभाती है। दूसरी ओर, गुरवीन अपनी मां किरण के स्ट्रगल की गवाह है, जो एक ऐसी शादी से जूझ रही है, जिसमें प्यार नहीं है। कहानी में एक और परत जोड़ रही है तन्वी, किरण की जिंदादिल पड़ोसी और मुंबई महिला क्रिकेट टीम की एक स्टार खिलाड़ी। अपनी प्रतिभा के बावजूद, तन्वी को सामाजिक दबावों और एक बॉयफ्रेंड का सामना करना पड़ता है जो चाहता है कि उसकी गर्लफ्रेंड वैसी ही रहे जैसे कि दूसरी लड़कियां रहती हैं।

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निर्देशन

ताहिरा की ताकत रिलेटेबल कैरेक्टर को गढ़ने की है। महिलाओं द्वारा महिलाओं की कहानियां सुनाना एक ऐसी शैली है जो शायद ही कभी निराश करती है। फिल्म का अट्रेक्शन रोजमर्रा की जिंदगी के हल्के-फुल्के, लेकिन ईमानदार कैरेक्टर में निहित है। निर्देशक चतुराई से सभी भावों को दर्शकों तक पहुंचाती हैं। जैसे शर्मा महिलाएं बड़ी और छोटी चुनौतियों का सामना करती हैं। उदाहरण के लिए, ज्योति का अपने काम और करियर के प्रति निरंतर प्रयास स्वाति के संघर्षों से जुड़ा हुआ है, जो केवल अपनी मां का ध्यान चाहती है। इसी तरह, किरण का अकेलापन उसकी बेटी गुरवीन के साथ शेयर किए अच्छे मोमेंट्स से संतुलित होता है। हालांकि, महत्वाकांक्षी क्रिकेटर तन्वी का कैरेक्टर यकीनन फिल्म का सबसे कमजोर पहलू है। हालांकि, उनका कैरेक्टर महिलाओं के प्रति द्वेषपूर्ण चेहरे को उजागर करने का प्रयास करता है, लेकिन यह दो अच्छी तरह से तैयार की गई कहानियों से ध्यान भटकाने का काम करता है। अगर फिल्म पूरी तरह से दो अलग-अलग मां-बेटी की कहानियों पर केंद्रित होती तो फिल्म और मजबूत होती।

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शर्माजी की बेटी वुमनहुड को पेश करने में शानदार है। यह पुरुषों को भयावह रूप में चित्रित नहीं करता है। फिल्म का उद्देश्य पुरुषों को खलनायक बनाना नहीं बल्कि सिर्फ महिलाओं की कहानियां बताना है। ताहिरा का ध्यान सिर्फ इस बात पर प्रकाश डालना है कि हर महिला अपने दैनिक जीवन में क्या झेलती हैं। यह अपनी महिला पात्रों की अलग-अलग आकांक्षाओं और यात्राओं का जश्न मनाता है। उदाहरण के लिए, ज्योति बलिदान देने वाली मां की रूढ़ि को तोड़ती है, जबकि तन्वी खेल में महिलाओं पर लगाई गई सीमाओं को चुनौती देती है। फिल्म इस विचार का समर्थन करती है कि महिलाएं एक ही समय में महत्वाकांक्षी, मजबूत और कमजोर हो सकती हैं।

यह स्क्रिप्ट तेज बुद्धि और भारतीय मिडिल क्लास फैमिली की जिंदगी की कहानी कहती है। गंभीर विषयों पर केंद्रित होने के बावजूद, शर्माजी की बेटी मुख्य रूप से हल्की-फुल्की फिल्म है। ताहिरा जटिल परिस्थितियों से निपटने के लिए ह्यूमर का प्रभावी ढंग से उपयोग करती हैं। फिल्म पारिवारिक रिश्तों की गतिशीलता, किशोरावस्था की चिंताओं और संबंध बनाने की चाहत को खूबसूरती से दर्शाती है। स्वाति और गुरवीन की बढ़ती उम्र की कहानियां एक वास्तविकता के साथ गूंजती हैं जो दिल को छू लेती है।

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फिल्म की गति असमान हो सकती है। इसके अलावा, कभी-कभी इसके पूर्वानुमानित होने का जोखिम भी रहता है। स्क्रीनप्ले में सूक्ष्मता का अभाव है और इसमें चीजों को जरूरत से ज्यादा समझाया गया है। ताहिरा एक निर्देशक के तौर पर सभी आधारों को कवर करने की कोशिश करती हैं, जिसके परिणामस्वरूप एक ओवरसफर्ड कथा बनती है जो अंतिम 20 मिनट में पूरी तरह से सुलझ जाती है। कुछ नरेटिव बहुत जल्दी हल हो जाते हैं, जिससे अंत में जल्दबाजी का एहसास होता है। स्वाति और गुरवीन एक टीनएजर के तौर पर पीरियड्स, टीनएज और टीनएस में रिलेशनशिप जैसे विषयों पर चर्चा करती हैं, लेकिन चित्रण अधूरा रह जाता है। जेन ज़ेड के साथ तालमेल बिठाने के प्रयास में, फिल्म निर्माता लक्ष्य से चूक गए। उदाहरण के लिए, स्वाति गुरवीन से हार्मोनल बदलावों के बारे में शिकायत करती है और ऐसा महसूस करती है कि उसका शरीर सामान्य रूप से विकसित नहीं हो रहा है, इसकी तुलना रोड रोलर द्वारा कुचले जाने से की जाती है। फिल्म में युवावस्था से संबंधित चिंताओं को दूर करने के प्रयास के बावजूद ऐसे सीन संभावित रूप से युवा दर्शकों को अपने शरीर के बारे में असुरक्षित बना सकते हैं।

एक्टिंग

फिल्म के कलाकारों की परफॉर्मेंस फिल्म का एक प्रमुख आकर्षण है। युवा कलाकार, स्वाति के रूप में वंशिका तपारिया और गुरवीन के रूप में अरिस्ता मेहता ने टीनएज में फेस की जाने वाली अजीब परिस्थित्यों को दर्शाते हुए शानदार काम किया है। ज्योति के रूप में साक्षी तंवर को लगता है कि यह उनके लिए ऑफिस का एक और दिन है। वह उन बलिदानों का प्रतीक हैं जो कई कामकाजी माएं परिवार और करियर के बीच संतुलन बनाते समय करती हैं। उनसे बेहतर बहुत कम लोग हैं जो ऐसी भूमिकाएं इतनी ईमानदारी और सादगी से निभा सकते हैं। किरण के रूप में दिव्या दत्ता भी उतनी ही प्रभावशाली हैं। वह एक ऐसी महिला के रोल में हैं जो रिश्ते में प्यार के लिए तरस रही है। उन्हें सबसे भरोसेमंद किरदार मिलता है और वह अपने हर दृश्य के साथ न्याय करती हैं। दुर्भाग्य से, सैयामी खेर कमजोर पड़ जाती हैं। जब आप सैयामी खेर को देखते हैं तो ऐसा लगता है कि अगर उन्होंने मॉडलिंग और एक्टिंग की बजाय क्रिकेट करियर बनाया होता तो बेहतर होता। वह क्रिकेट के सीनों में सहज दिखती हैं, लेकिन नाटक या कॉमेडी में उनके प्रदर्शन के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है। परवीन डबास और शारिब हाशमी सहायक भूमिकाओं में गहराई जोड़ते हैं।

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फीचर फिल्म निर्देशक के रूप में ताहिरा की शुरुआत ईमानदारी शानदार है। जबकि निर्देशन में उनके अनुभव की कमी स्पष्ट है, उनकी कहानी कहने की कला चमकती है। वह ईमानदारी से सामाजिक रूढ़िवादिता को खत्म करने का लक्ष्य रखती हैं। ज्योति, अकेली मां को एक पीड़ित के रूप में नहीं बल्कि एक लचीली, स्वतंत्र महिला के रूप में चित्रित किया गया है जो अपना रास्ता खुद बना रही है। फिल्म साहसपूर्वक इस बात की वकालत करती है कि सामाजिक अपेक्षाओं के बावजूद महिलाएं अपने सपनों को पूरा कर सकती हैं और अपनी शर्तों पर उन्हें पूरा कर सकती हैं।

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फैसला

शर्माजी की बेटी महिलाओं का जश्न मनाने वाली भारतीय फिल्मों के बढ़ते समूह में स्वागत योग्य एक और फिल्म है। यह एक ऐसी फिल्म है जो न केवल भारत भर के शर्मा परिवारों के साथ, बल्कि उन दर्शकों के साथ भी जुड़ती है जो महिलाओं की ताकत और लचीलेपन को पहचानते हैं। ताहिरा कश्यप की निर्देशित पहली फिल्म एक गर्मजोशी भरी, मजाकिया और अपलिफ्ट करने वाली फिल्म है जो दर्शकों के चेहरे पर मुस्कान लाती है और उनके जीवन में सभी शर्मा जी की बेटियों के लिए नए सिरे से सराहना करती है। हम इसे 3.5 रेटिंग देते हैं। इस फिल्म को एप्लाज़ एंटरटेनमेंट द्वारा प्रस्तुत किया गया है।

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