नई दिल्ली : राष्ट्रवाद से ही मीडिया आरंभ होता है। मीडिया, साहित्य और राष्ट्रवाद का जो विषय आज यहां चुना गया है, इसका मेरे और मेरे परिवार के जीवन में बहुत असर है। या यूं कहें कि ये तीनों शब्द मिलकर पंजाब केसरी बनाते हैं। यह कहना है वरिष्ठ नागरिक केसरी क्लब की चेयरपर्सन किरण चोपड़ा का। मौका था दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) के पीजीडीएवी (सांध्य) कॉलेज द्वारा आयोजित दो दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का। कार्यक्रम के अंतिम दिन के तीसरे सत्र में मीडिया, राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद पर चर्चा की गई, जिसकी अध्यक्षता प्रोफेसर कुमुद शर्मा (हिन्दी विभाग, डीयू) ने की।
इस दौरान विशिष्ट अतिथि किरण चोपड़ा, मुख्य वक्ता प्रो. अरुण कुमार भगत (पत्रकारिता विभाग, भोपाल) और कॉलेज के प्राचार्य डॉ. रविंद्र कुमार गुप्ता मौजूद रहे। मंच का संचालन डॉ. ज्योत्सना प्रभाकर और कार्यक्रम के अंत में धन्यवाद ज्ञापन डॉ. हरीश अरोड़ा ने दिया। डॉ. हरीश अरोड़ा ने कहा कि मैं नियमित रूप से पंजाब केसरी संपादकीय पढ़ता हूं, अश्विनी कुमार चोपड़ा जी जिस प्रकार निर्भीकता के साथ इसे लिखते हैं वह सराहनीय है।
लाजपत राय की पत्रिका ‘जय हिंद’ से शुरू हुआ सफर…
किरण चोपड़ा ने बताया कि आजादी की लड़ाई के समय से ही हिंदी पत्र-पत्रिकाओं का विशेष महत्व रहा है। लाला लाजपत राय और बाल गंगाधर तिलक ने जयहिंद पत्रिका की शुरुआत की, उस समय मेरे ग्रेट ग्रांड फादर इन लॉ लाला जगत नारायण जी इसके एडिटर थे। उन्होंने न केवल पत्रकारिता बल्कि आजादी की लड़ाई में भी योगदान दिया। 16 साल उन्हें जेल में रखा गया। उस वक्त क्रांतिकारियों को संदेश देने के लिए पत्र का व्यवहार किया जाता था। धीरे-धीरे पत्र पेज बना और फिर कई पेज बनकर अखबार का रूप लिया।
और उसी से हमारे परिवार का अखबार शुरू हुआ ‘हिंद समाचार’ जो मेरे दादा ससुर ने शुरू किया। उनकी पत्रकारिता राष्ट्रवादी थी इसलिए वो दोनों देश की एकता और अखंडता को कायम रखते हुए शहीद हुए। पंजाब आतंकवाद के समय उन्होंने निष्पक्ष, निर्भीक और निडर पत्रकारिता करते हुए शहादत को प्राप्त किया। उसके बाद अश्विनी जी ने उनकी कलम को थामा जो पंजाब केसरी के नाम से आज भी जारी है। पंजाब केसरी ने कभी पत्रकारिता से समझौता नहीं किया और न ही करेगा।
पत्रकारिता में निर्भीकता जरूरी है… डॉ. कुमुद शर्मा ने कहा कि आज के दौर में निर्भीक पत्रकारिता की जरूरत है। ग्लोबल मीडिया के इस दौर में पत्रकारिता के मायने बदल गए हैं। पहले मीडिया में एडिटर हुआ करते थे लेकिन आज उनका स्थान मार्केटिंग एडिटर ने ले लिया है। धीरे-धीरे अखबारों से एडिटर की सत्ता छिनती जा रही है। उन्होंने दशकों पहले का टेलिविजन में आने वाले धारावाहिक की पटकथा से इसे समझाने की कोशिश की।
उन्होंने कहा कि 90 के दशक में दो सीरियल हमलोग और बुनियाद आता था। जिसमें एक मध्यम वर्ग परिवार के लोगों द्वारा अभाव में भी सुंदर भविष्य की कल्पना दिखती थी और बुनियाद देशबोध को दर्शाता था। ग्लोब्लाइजेशन के दौर में इसका स्वरूप बदला और धारावाहिक जुनून आया और नायक का स्थान खलनायक ने ले लिया जो प्रेमिका को खुश करने के लिए कोई भी काम कर सकता है। वैसे ही आज अखबारों से खबर गायब और विज्ञापन स्थान घेरता जा रहा है। लेकिन सोशल मीडिया से आपको कुछ राहत जरूर मिलती है।
तो इसलिए पत्रकारिता बेस्ट…
प्रो. अरुण भगत ने कहा कि आज भी राष्ट्र पत्रकारिता से प्रेरणा ग्रहण करता है। देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है। समाचार पत्रों में लिखते समय राष्ट्र को सर्वोपरि रखा जाता है। देश में जब युद्ध, विषम परिस्थितियां और आंतरिक कलह या अलगाववाद आता है तो पत्रकारिता का महत्व और बढ़ जाता है। आजादी के समय अखबारों में राष्ट्रीयता दिखाई देती थी। लेकिन आज के समय में कुछ टीवी चैनलों और अखबारों के जरिए देश की नकारात्मक खबरों को प्रमुखता दी जाती है। जबकि देश में सकारात्मक घटनाएं 80 प्रतिशत होती है और नकारात्मक महज 20 प्रतिशत। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि पत्रकारिता के माध्यम से ऐजेंडा तैयार किया जाता है। इसलिए आज राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद की जरूरत बढ़ गई है।
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