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महाभियोगः नोटिस पर Yes या No, कानून विशेषज्ञों की राय के बाद फैसला लेंगे वेंकैया

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सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग के नोटिस पर कांग्रेस में मतभेद उभरने लगे हैं। कई वरिष्ठ नेताओं ने पार्टी के इस कदम पर नाराजगी जताई है। दूसरी तरफ तृणमूल कांग्रेस और डीएमके ने भी इससे किनारा कर लिया है। जिसके बाद अब सबकी नजरें राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू पर टिक गई हैं। लेकिन संभव है कि उपराष्ट्रपति इस पर फैसला लेने में समय लगाएं। क्यों वे इससे मसले पर विशेषज्ञों की राय ले सकते हैं।

सरकार के दो वरिष्ठ अधिकारियों ने नाम नहीं बताने की शर्त पर बताया कि उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू इस पर फैसले से पहले यह देखेंगे कि आखिर सीजेआई के खिलाफ जांच कराने के लिए विपक्ष के आरोप पुख्ता हैं या नहीं। कोई फैसला लेने से पहले नायडू जानकारों से राय ले सकते हैं और कोर्ट रिकॉर्ड्स भी मंगाए जा सकते हैं ताकि मुख्य न्यायाधीश पर लगे आरोपों का परीक्षण किया जा सके। यदि उपराष्ट्रपति आरोपों को पुख्ता नहीं मानते हैं तो फिर प्रस्ताव को स्वीकार करने से इनकार कर सकते हैं।

हालांकि नियम पुस्तिका (रूल बुक) में इसके के लिए कोई समय सीमा निर्धारित नहीं है। इससे पहले के केस में भी जब ऐसे नोटिस मिले थे तो राज्यसभा के सभापति और लोकसभा के स्पीकर ने अलग-अलग फैसले के लिए 3 दिन और 13 दिन का समय लिया था।

एक बार नोटिस जमा हो जाने के बाद, राज्यसभा सचिवालय सांसदों की ओर से किये गए हस्ताक्षरों का सत्यापन करता है और इसकी रिपोर्ट प्रस्तुत करता है। उसके बाद, राज्यसभा के सभापति कानूनविदों से परामर्श कर यह तय करेंगे कि नोटिस को मंजूरी दिये जाने का आधार है या नहीं।
अधिकारी ने बताया कि पहले के मामलों में, राज्यसभा के सभापति मुख्य न्यायाधीश से परामर्श लेते थे। लेकिन इस केस में चूकि नोटिस उन्हीं (सीजेआई) के खिलाफ है तो सभापति को कानूनविदों से परामर्श लेना होगा।

कानूनी विशेषज्ञों ने बताया कि अगर राज्यसभा के सभापति प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करते हैं तो याचिकाकर्ता कोर्ट में चुनौती दे सकते हैं। नोटिस देना सदन के किसी भी नियम के तहत नहीं आता बल्कि यह शक्ति कानून की ओर से प्रदान की गई है।

लोकसभा के पूर्व महासचिव पीडीटी आचार्य ने कहा कि मेरी राय में याचिकाकर्ता इस आधार पर फैसले को चुनौती दे सकते हैं कि यह पक्षपातपूर्ण है। राज्यसभा के एक अन्य पूर्व महासचिव विवेक कुमार अग्निहोत्री ने भी इस पर सहमति जताई। उन्होंने कहा कि हालांकि कोई उदाहरण नहीं है लेकिन मुझे लगता है कि अगर राज्यसभा के सभापति ने प्रस्ताव को खारिज कर दिया तो याचिकाकर्ता इसे कोर्ट में चुनौती दे सकते हैं।

अगर सभापति प्रस्ताव स्वीकार कर लेते हैं तो तीन सदस्यीय समिति (सुप्रीम कोर्ट के जज, हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस या जज,कानूनविद) आरोपों की जांच करेगी। समिति जांच पूरी करने के बाद अपनी रिपोर्ट पीठासीन अधिकारी को सौंपेगी। इसके बाद आरोपी जज को भी अपने बचाव का मौका मिलेगा। दोष साबित होने पर प्रस्ताव को लोकसभा और राज्यसभा से पारित करना अनिवार्य है। इसके लिए दो तिहाई सदस्यों की अनुमति जरूरी होगी।

कांग्रेस में प्रस्ताव पर मतभेद 
पूर्व केंद्रीय मंत्री और पार्टी के वरिष्ठ नेता सलमान खुर्शीद ने अलग राय जताते हुए कहा कि शीर्ष अदालत के फैसले पर राजनीति करने को उचित नहीं कहा जा सकता। जज लोया मामले का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला अंतिम होता है। अदालत के फैसले को लेकर कोई आपत्ति है, तो पुनर्विचार याचिका दाखिल की जा सकती है।

दरअसल, जज लोया मामले में फैसला आने के बाद कांग्रेस ने बाकायदा प्रेस कांफ्रेस कर जांच की मांग दोहराई थी। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी. चिदंबरम भी महाभियोग का नोटिस देने के फैसले में शामिल नहीं हैं। पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि चिंदबरम ने नोटिस पर हस्ताक्षर भी नहीं किए हैं। इसके अलावा वीरप्पा मोइली भी इससे सहमत नहीं हैं।

कांग्रेस ने शुक्रवार को दावा किया कि विपक्षी दलों की ओर से लाए गए महाभियोग प्रस्ताव पर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को रणनीति के तहत शामिल नहीं किया गया है। कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने राज्यसभा के सभापति एम. वेंकैया नायडू को विपक्षी दलों की ओर से महाभियोग प्रस्ताव का नोटिस सौंपने के बाद कहा कि डॉ. मनमोहन सिंह सहित अन्य प्रमुख नेताओं को जानबूझकर इस प्रक्रिया में शामिल नहीं किया है। पार्टी में मतभेद के सवाल पर सिब्बल ने कहा, इस बारे में पार्टी में विभाजन जैसी कोई बात नहीं है।

सिब्बल ने स्पष्ट किया कि मनमोहन ही नहीं बल्कि कुछ अन्य ऐसे वरिष्ठ नेताओं को भी प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करने वाले नेताओं में शामिल नहीं किया है, जिनके खिलाफ न्यायालय में मामले लंबित हैं।

 

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