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किसान आंदोलन 102 दिन :11 दौर की वार्ता में नहीं निकला कोई हल, सरकार मानने को तैयार नहीं

केंद्र सरकार द्वारा पिछले साल लाये गए कृषि कानून के खिलाफ किसानों के विरोध प्रदर्शन को रविवार को 102 दिन हो गए हैं

केंद्र सरकार द्वारा पिछले साल लाये गए कृषि कानून के खिलाफ किसानों के विरोध प्रदर्शन को रविवार को 102 दिन हो गए हैं और देश के आर्थिक विकास की राह में रोड़ा बना यह आंदोलन और लंबा होता जा रहा है। किसान नये कृषि कानून निरस्त करने की मांग पर अड़े हैं जबकि सरकार इस मांग को मानने को तैयार नहीं है। 
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ऐसे में यह लड़ाई कितनी लंबी चलेगी इसका अनुमान लगाना मुश्किल है क्योंकि इस देश में किसानों का एक ऐसा भी आंदोलन हुआ है जो 44 साल तक चलता रहा और आखिरकार आंदोलन का अंजाम किसानों के पक्ष में ही रहा। लिहाजा, सवालों और आशंकाओं के बीच जारी इस किसान आंदोलन के अंजाम का इंतजार बना रहेगा क्योंकि इस आंदोलन से देशभर के किसानों का कितना भला होगा इस पर भी सवाल उठ रहा है। 
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हालांकि, देश के इतिहास में किसानों का सबसे लंबा संघर्ष ‘बिजोलिया आंदोलन’ इतना लंबा कोई आंदोलन आज लोकतंत्र में अगर चलता रहे तो कितनी ही सरकारें बदल जाएंगी। लेकिन तकरीबन बिजोलिया आंदोलन की ही तर्ज पर चल रहे किसानों के इस आंदोलन के नतीजे का इसलिए भी सबको इंतजार रहेगा क्योंकि राजस्थान के किसानों के उस संघर्ष ने देश में महात्मा गांधी से पहले ही यह साबित कर दिया था कि अहिंसा के मंत्र में कितनी ताकत है। बिजोलिया आंदोलन 1897 से 1941 तक चला था। 
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तब किसान अनावश्यक करों के बोझ से मुक्ति पाने के लिए संघर्ष कर रहे थे और अब कृषि उपज विपणन समिति यानी एपीएमसी की मंडियों के बाहर कृषि वस्तुओं का शुल्कमुक्त व्यापार की इजाजत वाला कानून उनको मंजूर नहीं है। उस समय सामंती व्यवस्था के शोषण से किसान परेशान थे अब नये कानून से उनको कृषि क्षेत्र में कॉरपोरेट की दखल बढ़ने का डर है। इसलिए किसान नये कृषि कानून का विरोध कर रहे हैं। 
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दिल्ली की सीमाओं पर स्थित सिंघु बॉर्डर, टिकरी बॉर्डर और गाजीपुर बॉर्डर पर पिछले साल 26 नवंबर से डेरा डाले किसानों की रहनुमाई करने वाले यूनियनों के नेता अहिंसात्मक व शांतिपूर्ण ढंग से आंदोलन करने की बात करते हैं। हालांकि, आंदोलन के दौरान इस साल 26 जनवरी को किसान संगठनों द्वारा दिल्ली में निकाली गई ट्रैक्टर रैली के दौरान देश की धरोहर लालकिला के परिसर में हुड़दंग मचने के बाद आंदोलनकारियों पर हिंसा करने का आरोप है। 
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गणतंत्र दिवस पर आयोजित ट्रैक्टर रैली के दौरान हुई हिंसा के बाद किसान आंदोलन की दिशा थोड़ी बदली, लोगों का समर्थन जुटाने के लिए यूनियनों के नेता किसान महापंचायतों में ज्यादा दिलचस्पी लेने लग गए, जिससे सिंघु बॉर्डर, टिकरी बॉर्डर और गाजीपुर बॉर्डर स्थित धरना स्थलों पर प्रदर्शनकारियों की संख्या घटने लगी। हालांकि, पंजाब के किसान नेता और भारतीय किसान यूनियन (लाखोवाल) के जनरल सेक्रेटरी हरिंदर सिंह लाखोवाल ने कहा कि यह सब आंदोलन को पूरे देश में ले जाने की रणनीति का हिस्सा है। उन्होंने कहा कि आंदोलन को लंबे समय तक चलाने के लिए दिल्ली बॉर्डर पर धरना के साथ-साथ कोई न कोई गतिविधि भी जरूरी है और 26 जनवरी के बाद पहली बार शनिवार को एक बड़ा एक्शन हुआ। 
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दिल्ली मोर्चा यानी दिल्ली की सीमाओं पर किसानों के धरना-प्रदर्शन के 100 दिन पूरे होने पर शनिवार को संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा कुंडली-मानेसर-पलवल एक्सप्रेस-वे को पांच घंटे तक जाम रखा गया। किसान नेताओं ने बताया कि आगे भी इसी तरह के कार्यक्रम रखे जाएंगे। हरियाणा के किसान नेता और भारतीय किसान यूनियन के नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने कहा कि किसान महापंचायत के माध्यम से देशभर में किसानों में नये कानून के प्रति जागृति आ रही है। उन्होंने कहा कि आंदोलन में पहले पंजाब और हरियाणा के अलावा पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसान शामिल थे, लेकिन अब धीरे-धीरे देश के अन्य प्रांतों के किसान भी जागरूक हो रहे हैं और आंदोलन पूरे देश में फैल रहा है। 
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किसान आंदोलन में पहले सिर्फ किसान से जुड़े मुद्दे थे, लेकिन अब इसमें महंगाई और बेरोजगारी समेत अन्य मुद्दे भी उठने लगे हैं। किसान नेता कहते हैं कि पेट्रोल और डीजल की महंगाई से आम लोग तबाह हैं और नौकरियां नहीं मिलने से बेरोजगारों की फौज खड़ी होती जा रही है। दरअसल, किसान आंदोलन में आम लोगों का समर्थन जुटाने के लिए किसान नेता अन्य मुद्दों की भी चर्चा करने लगे हैं। आंदोलनरत किसान पिछले साल केंद्र सरकार द्वारा लाए गए तीनों कृषि कानूनों को निरस्त करने और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर फसलों की खरीद की गारंटी की मांग कर रहे हैं। 
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मगर, सरकार का कहना है कि तीनों कृषि कानून पूरे देश के 86 फीसदी लघु एवं सीमांत किसानों को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं। लिहाजा इन्हें वापस नहीं लिए जा सकते हैं। वहीं, (एमएसपी) पर खरीद की कानूनी गारंटी को सरकार और कुछ विशेषज्ञ अव्यावहारिक मानते हैं। सरकार एमएसपी पर खरीद को जारी रखने का आश्वासन दे रही है। लेकिन कुछ कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि जिस प्रकार कोई भी औद्योगिक उत्पाद लागत से कम भाव पर नहीं बिकता है उसी प्रकार किसानों की फसलें भी उत्पादन लागत से कम पर नहीं बिकनी चाहिए, लेकिन कई बार ऐसा होता है कि किसानों को खेती की लागत भी नहीं मिलती है। इसलिए एमएसपी की गारंटी होनी चाहिए। 
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तीन नए केंद्रीय कृषि कानून, कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) कानून 2020, कृषक (सशक्तीकरण एवं संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा करार कानून 2020 और आवश्यक वस्तु (संशोधन) कानून 2020 के अमल पर बहरहाल सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी है और शीर्ष अदालत द्वारा गठित विशेषज्ञों की एक समिति इन कानूनों पर किसान संगठनों समेत विभिन्न हितधारकों से उनके सुझाव ले रही है। 
इस बीच आंदोलनरत किसानों की अगुवाई करने वाले संगठनों के प्रतिनिधियों और सरकार के बीच 22 जनवरी को 12वें दौर की वार्ता बेनतीजा रहने के बाद से गतिरोध जारी है। सरकार ने नए कृषि कानून के अमल पर 18 महीने के लिए रोक लगाने और एमएसपी समेत सभी मसलों का समाधान करने के लिए एक कमेटी बनाने का सुझाव दिया है। सरकार को इन दोनों प्रस्तावों पर किसान यूनियनों द्वारा पुनर्विचार किए जाने का इंतजार है जबकि किसान नेता कुछ नए प्रस्तावों के साथ सरकार द्वारा फिर बुलावा मिलने की उम्मीद में हैं।

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