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विरोध का अधिकार, मौलिक अधिकार है, इसे 'आतंकी गतिविधि' करार नहीं दिया जा सकता: दिल्ली HC

दिल्ली उच्च न्यायालय ने मंगलवार को कहा कि विरोध का अधिकार, मौलिक अधिकार है और इसे 'आतंकी गतिविधि' करार नहीं दिया जा सकता। न्यायालय ने संशोधित नागरिकता कानून (सीएए) के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन के दौरान उत्तर-पूर्वी दिल्ली दंगे के एक मामले में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की छात्रा देवांगना कालिता को जमानत प्रदान करते हुए उक्त टिप्पणी की। 

एक खंडपीठ ने कहा कि अदालत को गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) कानून में उपयोग किए गए निश्चित शब्दों और वाक्यांशों को लागू करने के दौरान बेहद सावधानी बरतनी होगी। साथ ही ऐसे शब्दों और वाक्याशों को आतंकवादी कृत्य जैसे जघन्य अपराधों में हल्के में लेने से सावधान रहना होगा, बिना यह समझे कि आतंकवाद किस तरह पारंपरिक एवं जघन्य अपराध से अलग है। 

पीठ ने कहा कि असंतोष को दबाने और मामला हाथ से निकल सकता है, इस डर से ''राज्य ने संवैधानिक गारंटी वाले 'विरोध के अधिकार' और 'आतंकी गतिविधि' के बीच की रेखा को धुंधला किया।'' न्यायमूर्ति सिद्धार्थ मृदुल और न्यायमूर्ति अनूप जयराम भंभानी की पीठ ने कलिता के खिलाफ यूएपीए लगाने के मामले में विचार-विमर्श के बाद 83 पन्नों के फैसले में कहा, '' अगर इस तरह का धुंधलापन जोर पकड़ता है, तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा।'' 

उन्होंने कहा कि बिना हथियार के शांतिपूर्वक विरोध-प्रदर्शन करना संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (बी) के अंतर्गत मौलिक अधिकार है और यह अभी बरकरार है।