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‘भारत-रूस-चीन’ सुरक्षा त्रिकोण

इसमें जरा भी शक की गुंजाइश नहीं है कि रूस पूरी दुनिया में भारत का सच्चा व परखा हुआ दोस्त है अतः जब 90 के दशक में ‘रूस-भारत-चीन’ के सुरक्षा चक्र ‘रिक’ का गठन हुआ था तो इसका उद्देश्य एकल ध्रुवीय विश्व में समानान्तर सामरिक सन्तुलन पैदा करना था और एशिया व यूरोप को ऐसी सुरक्षा छतरी प्रदान करना था जिससे संसार किसी एक देश की शक्ति के समक्ष नतमस्तक होते हुए अपनी विविध आयामी ताकत को अनदेखा न कर सके। 2008 में भारत द्वारा अमेरिका से परमाणु सन्धि किये जाने के बाद इस गठजोड़ की कसावट में उस समय बेशक ढीलापन आया था मगर कालान्तर में इसकी उपयोगिता का विमर्श बना रहा। अब रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते जिस प्रकार अमेरिका समेत पश्चिमी देशों के नाटों सामरिक सन्धि के सदस्य देशों ने रूस के समक्ष चुनौती पैदा की है और राष्ट्रसंघ में उसे रक्षात्मक पाले में ले जाते हुए वैशिवक अर्थव्यवस्था में उसे अलग-थलग करने का प्रयास किया है उससे स्थिति और जटिल हो गई है तथा भारत पर यह जिम्मेदारी आ पड़ी है कि वह इस उलझे हुए पेंच को सुलझाये क्योंकि इसके अमेरिका व रूस दोनों से ही विभिन्न स्तरों पर सम्बन्ध बहुत मधुर मित्रवत हैं परन्तु इसमें भी एक पेंच यह है कि हिन्द-प्रशान्त महासागर क्षेत्र में भारत अपने राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा के लिए अमेरिका-आस्ट्रेलिया व जापान के साथ चतुष्कोणीय गठबन्धन में है जिससे वह इस महासागरीय क्षेत्र में चीन की सीनाजोरी और सैनिक मंसूबों का मुकाबला कर सके। अतः भारत एक ओर ‘रिक’ का सदस्य है तो दूसरी तरफ चतुष्कोणीय सहयोग का अंग है और तीसरी तरफ शंघाई सहयोग संगठन में भी शामिल है, जिसमें चीन समेत रूस व पाकिस्तान तक शामिल है। 

इस संगठन की बैठक भी भारत में जून महीने में होने वाली है और रिक की बैठक भी इसी साल के दौरान होनी है जबकि जी-20 सम्मेलन की अध्यक्षता भारत के पास है और इसका दूसरे देश को स्थानान्तरण आगामी सितम्बर माह में होने की तैयारी कर ली जायेगी। एक प्रकार से देखें तो भारत इस समय केन्द्रीय भूमिका में है और रूस, चीन, अमेरिका से लेकर कोई भी अन्य महत्वपूर्ण देश इसकी अनदेखी करने की हालत में नहीं है। चीन व अमेरिका की कारोबारी स्पर्धा हिन्द महासागर क्षेत्र को सैनिक शक्ति का जमावड़ा बना रही है क्योंकि इसी मार्ग से होकर ए​िशया व यूरोप के बीच कारोबार का तीन चौथाई हिस्सा होता है। यह व्यापार-वाणिज्य का महाद्वार माना जाता है और भारत इसका प्रहरी है जबकि चीन इस क्षेत्र में चौधराहट जमाने के लिए सैन्य शक्ति का जमावड़ा करने से पीछे नहीं हटना चाहता और अमेरिका इसके जवाब में अपनी ताकत का प्रदर्शन करना चाहता है। भारत की हर कीमत पर यह कोशिश है कि हिन्द महासागर क्षेत्र किसी भी सूरत में जंग का अखाड़ा न बन पाये। इसलिए एक तरफ वह चीन की बरजोरी रोकने के लिए चतुष्कोणीय गठबन्धन का सदस्य है तो दूसरी तरफ रिक का भी महत्वपूर्ण अंग है। 

रूसी विदेश मन्त्री श्री लावरोव ने जी-20 सम्मेलन में जिस तरह यूक्रेन के मुद्दे पर कड़ा रुख अपनाया और चीन ने उनका साथ दिया उससे साफ है कि रूस जी-20 सम्मेलन को केवल यूक्रेन युद्ध केन्द्रित करने के खिलाफ है और वह चाहता है कि दुनिया के 20 सर्वाधिक औद्योगिक राष्ट्र दुनिया के उन देशों की बात भी करें जो पश्चिमी देशों व अमेरिका की लापरवाह हरकतों से कराह रहे हैं। इनमें अफगानिस्तान, इराक व युगोस्लाविया जैसे देश हैं। इन तीन संगठनों के अलावा एक और एेसा संगठन ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन व दक्षिण अफ्रीका) है जिसमें रूस, चीन व भारत तीनों हैं। अतः इन तीनों के बीच आपसी विचार-विमर्श के अवसर पर्याप्त कहे जा सकते हैं मगर इसके बावजूद यदि चीन भारत के साथ अपने सम्बन्ध असामान्य बनाये रखता है और भारत-चीन सीमा पर पिछले सभी समझौतों का उल्लंघन करते हुए सैनिक गतिविधियों को बढ़ावा देता है तो भारत व रूस मिलकर उस पर यह दबाव बनाने की स्थिति में हो सकते हैं कि वह अपनी बेढंगी चाल को बदले। इस सन्दर्भ में लावारोव ने संकेत भी दिये और स्पष्ट किया कि रूस का मित्र चीन भी है और भारत भी। इन दोनों के बीच सौहार्दपूर्ण व शान्तिपूर्ण तरीके से बातचीत हो इसमें रूस उत्प्रेरक की भूमिका में ही रहेगा। इन दोनों के बीच हमारी उपस्थिति सकारात्मक रूप में होगी । क्योंकि रूस की यह नीति है कि वह अपने सम्बन्ध अपने आधार पर ही बनाता है। जाहिर है कि श्री लावरोव न तो चीन से अपने सम्बन्धों को कम तवज्जो देते हैं और न ही भारत के साथ। 

दूसरी तरफ भारत की भी यह स्पष्ट नीति है कि वह किसी दूसरे देश के साथ अपने सम्बन्ध अपने आधार पर ही बनाता है मगर भारत और चीन दोनों के मित्र देश के रहने से व्यावहारिक खुशनुमा माहौल तो बन ही सकता है। भारत की लगातार यह कोशिश है कि चीन के साथ उसके सम्बन्ध मधुर हों क्योंकि वह उसका निकटतम पड़ोसी देश है मगर इसी तर्ज पर चीन को भी सोचना पड़ेगा तभी समस्या का हल निकल सकता है। श्री लावरोव इस हकीकत को पहचानते लगते हैं कि रिक की उपयोगिता तभी सामयिक हो सकती है जब भारत व चीन के सम्बन्ध पूरी तरह सामान्य व प्रेमपूर्ण हों।