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2-जी घोटाले का ‘तपता’ सच

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पिछली मनमोहन सरकार की प्रतिष्ठा को धूल मंे मिलाने वाले कथित 2-जी स्पैक्ट्रम घोटाले का जो सच सामने आया है उसने केवल भारत के लोगों को ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया खासकर अन्तर्राष्ट्रीय कार्पोरेट जगत के लोगों को भी यह सन्देश दिया है कि जिस तरह हर चमकने वाली धातु ‘सोना’ नहीं होती उसी तरह कालिमा की परतों से घिरी हर चीज ‘लोहा’ भी नहीं होती। सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी मंे काम करने वाली सीबीआई की विशेष अदालत ने 2-जी के कथित घपले में अभियुक्त बनाये गये सभी अभियुक्तों को बाइज्जत बरी कर दिया है और विद्वान न्यायाधीश ने अपने फैसले में कहा है कि किसी भी अभियुक्त के विरुद्ध अभियोजन पक्ष कोई यह सबूत नहीं दे सका है कि 2-जी स्पैक्ट्रम आवंटन में किसी प्रकार का भ्रष्टाचार किया गया या किसी को रिश्वत दी गई अथवा किसी को लाभ पहुंचाया गया।

जाहिर तौर पर मनमोहन सरकार के सूचना टैक्नोलोजी मन्त्री रहे श्री ए. राजा व द्रमुक की नेता राज्यसभा सदस्य श्रीमती कनिमोझी के लिए यह निष्कलंक व निरपराध रहने का प्रमाण पत्र है, क्योंकि इन्हीं दोनों नेताओं को आरोपों के चलते जेल में भी रहना पड़ा था और यह सब यूपीए शासनकाल में ही हुआ था। वास्तव में तत्कालीन लेखा महानियन्त्रक विनोद राय की भूमिका पर भी अदालत का फैसला परोक्ष रूप से तीखी टिप्पणी करता है कि उन्होंने किस प्रकार स्पैक्ट्रम आवंटन की प्रक्रिया में देश के खजाने को एक लाख 76 हजार करोड़ रुपये का अनुमानित नुकसान होने का आकलन किया जबकि अदालत के सामने एेसा कोई सबूत पेश नहीं हो पाया जिससे यह कहा जा सके कि मन्त्री व उनके सूचना टैक्नोलोजी मन्त्रालय तथा उनकी पार्टी द्रमुक ने इन लाइसेंसों के आवंटन में किसी प्रकार का धन लाभ प्राप्त किया। इसके साथ ही लाइसेंस प्राप्त करने वाली निजी कम्पनियों के खिलाफ भी यह सिद्ध नहीं हो पाया कि उन्होंने लाइसेंस लेने के ​लिए किसी तरह के लोभ या रिश्वत के औजारों का प्रयोग किया।

सबसे हैरत वाला तथ्य यह निकल कर आया कि पूरे प्रकरण में जिस वाणिज्यिक इकाई या कम्पनी अथवा मन्त्रालय के साथ धन का लेन-देन किया गया वह चैकों के माध्यम से ही किया गया और इसमें किसी प्रकार का घपला नहीं हुआ, न ही किसी को व्यक्तिगत लाभ पहुंचाया गया मगर इसके साथ ही यह भी हकीकत है कि 2-जी मामले में सवाल खड़े होने पर सर्वोच्च न्यायालय ने ही सरकार द्वारा जारी 122 स्पैक्ट्रम लाइसेंस रद्द करने का आदेश दिया था और पूरे मामले की जांच के लिए विशेष अदालत बनाने का हुक्म जारी किया था। तब भारत के राष्ट्रपति की तरफ से भी न्यायालय में सन्दर्भ प्रश्नावली भेजी गई थी क्योंकि लाइसेंस प्राप्त करने वाली कम्पनियों में विदेशी कम्पनियों का भी हिस्सा होने की वजह से भारत की संप्रभु सरकार की विश्वसनीयता भी घेरे में आ रही थी परन्तु तब लेखा महानियन्त्रक विनोद राय ने जो हिसाब-किताब अपनी रिपोर्ट में लगाया था वह यह था कि ए. राजा ने 2008 में स्पैक्ट्रम लाइसेंसों का आवंटन 2001 के मूल्यों पर तत्कालीन वाजपेयी सरकार की ‘पहले आओ-पहले पाओ’ नीति के आधार पर किया जबकि इनकी नीलामी होने पर सरकार को एक लाख 76 हजार करोड़ रुपये की राजस्व आमदनी हो सकती थी। इसी आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने भविष्य में स्पैक्ट्रम की नीलामी करने का निर्देश दिया था मगर मूल सवाल यह है कि मनमोहन सरकार ने स्पैक्ट्रम आवंटन का जो रास्ता अपनाया था वह पूरी तरह पुरानी संरक्षणवादी अर्थव्यवस्था के नियामकों से बंधा हुआ था जबकि पूरी अर्थव्यवस्था बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के नियामकों से बन्धकर चल रही थी।

उस तर्क को अदालत के फैसले के बाद आसानी से नकारा नहीं जा सकता जो संसद में श्री ए. राजा बार-बार दोहरा रहे थे कि 2-जी स्पैक्ट्रम लाइसेंस ‘राशन के चावल’ हैं न कि खुले बाजार में बिकने वाले ‘बासमती चावल।’ उनका तर्क यह था कि लाइसेंसों को कम शुल्क पर देकर वह पूरे देश में मोबाइल टेलीफोन की पहुंच गरीब आदमी तक करना चाहते हैं और इस संचार व्यवस्था को सस्ता बनाना चाहते हैं। बिना शक देश में मोबाइल क्रान्ति ऐसी हुई की टेलीफोन ने गांव के लोगों की चिट्ठी-पत्री तक की आदत को छुड़ा दिया और गौर से देखें तो मनमोहन सरकार ने मोबाइल फोन के लिए जो नीति बनाई उसका आधार संरक्षित अर्थव्यवस्था और खुली बाजार मूलक अर्थव्यवस्था का मिला-जुला स्वरूप था। बेशक सरकार नीलामी करके अधिक राजस्व प्राप्त कर सकती थी मगर उसने एेसा न करके सीधे आम जनता के पास मोबाइल फोन पहुंचाने के लिए सस्ते मूल्य पर लाइसेंस बांटकर निजी कम्पनियों के बीच कम से कम मूल्य पर मोबाइल फोन देने की प्रतियोगिता खड़ी करके सुनिश्चित करने का प्रयास किया कि गरीब से गरीब आदमी भी इसे खरीदने के काबिल हो सके। यह विशुद्ध रूप से वह समाजवादी सोच थी जिसे हम ‘सब्सिडी जनित’ प्रणाली कहते हैं। यह सरकार की नीति थी जिसे न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है लेकिन लाइसेंसों के आवंटन में भेदभाव व भ्रष्टाचार को लेकर चुनौती दी जा सकती थी और एेसा ही किया गया था।

जाहिर है कि अदालत के फैसले को सीबीआई व प्रवर्तन निदेशालय उच्च न्यायालय में चुनौती दे सकते हैं। यह रास्ता उनके लिए खुला हुआ है और इसके साथ ही कांग्रेस पार्टी व द्रमुक के लिए भी अदालत के फैसले पर प्रसन्न होने की पक्की वजह है क्योंकि सच्चे और झूठे का फैसला अन्त में संविधान और कानून की कसौटी पर ही होगा परन्तु भाजपा की ओर से वित्तमन्त्री श्री अरुण जेतली ने जो सवाल खड़ा किया है वह भी बेदम नहीं है। उन्होंने मनमोहन सरकार की तब की नीति को निशाने पर लेते हुए कहा है कि यदि स्पैक्ट्रम आवंटन में सब कुछ ठीक-ठाक होता तो सर्वोच्च न्यायालय उन्हें रद्द ही क्यों करता? जाहिर है कि आवंटन की प्रक्रिया पर प्रश्नचिन्ह लगा होगा तभी उन्हें रद्द किया गया था मगर न्यायालय का फैसला नीति के बारे में नहीं बल्कि कथित घपले के बारे में आया है जो सिद्ध नहीं हो पाया। पूरे मामले के दो पक्ष हैं नीतिगत व प्रक्रियागत। लेखा महानियन्त्रक ने अपनी रिपोर्ट का आधार प्रक्रियागत रखा। कहा जा सकता है कि आवंटन में पक्षपात हो सकता है मगर उसके लिए धन की गड़बड़ी की गई यह शंका तो अदालत ने निपटा दी। इसलिए अदालत के फैसले का सभी को स्वागत करना चाहिए मगर आज राज्यसभा में लेखा महानियन्त्रक की भूमिका को लेकर एक गंभीर सवाल भी उठाया गया कि क्या लेखा महानियन्त्रक संसद में अपनी रिपोर्ट पेश किए बिना ही उसे सार्वजनिक कर सकता है? यह भारत की संसदीय प्रणाली से प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता से जुड़ा हुआ संजीदा सवाल है, इस पर संसद की कार्यवाही पूरी होने पर फिर कभी लिखूंगा।

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