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370 अब कल की बात हुई

जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाये जाने के लगभग ढाई वर्ष बाद भी इस राज्य की क्षेत्रीय पार्टियां इस मुद्दे को लेकर राजनीति कर रही हैं उससे यही आभास होता है

जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाये जाने के लगभग ढाई वर्ष बाद भी इस राज्य की क्षेत्रीय पार्टियां इस मुद्दे को लेकर राजनीति कर रही हैं उससे यही आभास होता है कि उन्होंने अभी तक इस हकीकत को स्वीकार नहीं किया है कि भारतीय संविधान में यह अनुच्छेद अस्थायी तौर पर नत्थी किया गया था और 74 वर्ष पूर्व की भारत बंटवारे के बाद की परिस्थितियों को देखते हुए किया गया था। 15 अगस्त, 1947 को जब भारत आजाद हुआ तो जम्मू-कश्मीर एक स्वतन्त्र रियासत थी जिस पर पाकिस्तान ने अक्टूबर महीने में आक्रमण कर दिया था और तब इस रियासत के महाराजा स्व. हरिसिंह ने भारत सरकार से दरख्वास्त की थी कि वह उन्हें व उनकी प्रजा को आक्रमणकारी पाकिस्तानियों से बचाये और अपनी पनाह में ले। तब महाराजा हरिसिंह ने 26 अक्टूबर, 1947 को अपनी पूरी रियासत का भारतीय संघ में विलय करने का फैसला किया था जिसे देखते हुए तब भारत सरकार ने पाकिस्तानी आक्रमण को नाकारा बना दिया था और महाराजा को निर्भय किया था। 
जम्मू-कश्मीर का भारत में यह विलय उसी प्रकार हुआ था जिस प्रकार भारत की पांच सौ से अधिक अन्य देशी रियासतों का हुआ था परन्तु तब महाराजा ने एक शर्त यह रखी थी कि भारत में विलय  करने की एवज में उनकी रियासत और इसके  लोगों को कुछ विशेषाधिकार इस प्रकार दिये जायें कि भारत में रहते हुए भी इनकी अलग पहचान बनी रहे जिस पर भारतीय संविधान के निर्माता डा. भीमराव अम्बेडकर ने गंभीर आपत्ति की थी और कहा था कि एक ही संविधान के भीतर रहने वाले देश के किसी राज्य को कानूनी तौर पर विशेष दर्जा नहीं दिया जा सकता है अतः उन्होंने सम्बन्ध में बनाये गये अनुच्छेद 370 का प्रारूप लिखने से इन्कार कर दिया था। इसके बावजूद अनुच्छेद 370 लिखा गया और उसे संविधान में नत्थी किया गया मगर इस एहतियात के साथ उसे भारतीय संविधान का हिस्सा बनाया गया कि यह प्रावधान अस्थायी तौर पर जोड़ा जा रहा है। जाहिर है कि इसे संविधान पुस्तिका से हटाने का उपक्रम देश की आने वाली सरकारों पर छोड़ दिया गया था। इस अनुच्छेद के तहत जम्मू-कश्मीर का अपना अलग संविधान बनाया गया और नागरिकों के अधिकार तय किये गये जिनका भारतीय संविधान में दिये गये नागरिक अधिकारों से मेल नहीं खाता था। स्पष्टतः यह एक ही देश के लोगों के बीच में भेदभाव पैदा करने वाला था जिसका विरोध सबसे पहले इसके लागू होने के बाद इसी राज्य के नेता स्व. प्रेमनाथ डोगरा द्वारा पचास के दशक के शुरू में ही इसका विरोध किया गया और बाद में उस समय नवगठित भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष डा. श्यामा प्रशाद मुखर्जी ने जम्मू-कश्मीर को पृथक दर्जा देने के खिलाफ आन्दोलन शुरू कर दिया जिसके दौरान उनकी मृत्यु भी 1953 में हो गई। डा. मुखर्जी ने तब नारा दिया था कि एक देश में दो विधान, दो निशान और दो प्रधान नहीं चल सकते। 
370 के तहत जम्मू-कश्मीर को अपना पृथक झंडा रखने का हक था और इसके मुख्यमन्त्री को प्रधानमन्त्री या वजीरेआजम कहने का भी अख्तियार था। तभी से भारतीय जनसंघ (बाद में भारतीय जनता पार्टी) का यह राष्ट्रीय एजेंडा रहा कि जब भी वह देश की सत्ता में इस योग्य होगी कि अनुच्छेद 370 को समाप्त करने लायक उसके पास बहुमत हो तो वह यह कार्य करेगी। अतः 5 अगस्त, 2019 को मोदी सरकार के गृहमन्त्री श्री अमित शाह ने संसद के माध्यम से इस कार्य को राज्य में लगे राष्ट्रपति शासन के दौरान अंजाम दिया और सूबे को दो भागों लद्दाख व जम्मू-कश्मीर में विभक्त कर दिया और केन्द्र प्रशासित क्षेत्र बना दिया लेकिन यह आश्वासन दिया कि सूबे का दर्जा वक्त आने पर पूर्ण राज्य में बदला जा सकता है।
 पिछले ढाई साल के दौरान जम्मू-कश्मीर की हालत में बहुत परिवर्तन आ चुका है और वहां पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवादी घटनाओं में कमी आयी है और जिला विकास परिषदों के चुनावों के बाद विकास में आम लोगों की सक्रिय भागीदारी बढ़ी है। हाल ही में राज्य में राजनीतिक गतिविधियों को भी शुरू कर दिया गया है। इसी सिलसिले में पुंछ में आयोजित एक जनसभा में कांग्रेस के नेता श्री गुलाम नबी आजाद ने बहुत यथार्थवादी रुख अपनाते हुए मांग की कि जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाये और विधानसभा के चुनाव जल्दी से जल्दी कराये जायें। इसके साथ ही राज्य के लोगों को उन्होंने यह भी आगाह किया कि 370 का वापस होना अब मुमकिन नहीं लगता क्योंकि यह काम केवल सर्वोच्च न्यायालय या केन्द्र सरकार ही कर सकती है और उन्हें लगता है कि अगले चुनावों में लोकसभा में उनकी पार्टी कांग्रेस की तीन सौ सीटें आ सकती हैं। मगर आश्चर्यजनक यह है कि नेशनल कान्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला इसके लिए उनकी कड़ी निन्दा कर रहे हैं और कह रहे हैं कि उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आने से पहले ही हार मान ली है। मगर शायद उमर साहब दिल्ली में ही इंडियन एक्सप्रेस अखबार की ‘अड्डा’  गोष्ठी में दिये गये उस बयान को याद नहीं रख सके जिसमें उन्होंने कहा था कि 370 का हटना अब हकीकत है और इसकी वापसी संभव नहीं है।  दरअसल अब्दुल्ला खानदान के राजनीतिज्ञों पर यह आरोप शुरू से ही लगता रहा है कि वे दिल्ली में कुछ और बोलते हैं और श्रीनगर में कुछ और। यही हाल पीडीपी नेता श्रीमती महबूबा मुफ्ती का है। वह कश्मीरियों को 370 के नाम पर छलावे में रखना चाहती है। एेसे सभी नेताओं को समझना पड़ेगा कि अनुच्छेद 370 हटाने का पूरे देश के लोगों ने हृदय से स्वागत किया था जिसका लोकतन्त्र में सबसे ऊपर महत्व होता है। इन सभी नेताओं को कश्मीर के भारत में समावेशी समागम के ​िलए काम करना चाहिए न कि अलगाव पैदा करने की बातें करनी चाहिए।

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