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एक पुलिस अफसर की शहादत!

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आज पूरा देश यह सोचने पर मजबूर है कि क्यों बुलन्दशहर में उस पुलिस अधिकारी सुबोध कुमार सिंह को कुछ कथित गाैरक्षकों ने अपनी गोली का शिकार बनाया जो 2015 में दिल्ली के बहुत करीब दादरी के एक गांव में अफवाहों के आधार पर अपने घर के फ्रिज में गौमांस रखे जाने के कारण कथित गौरक्षकों द्वारा ही मौत के घाट उतारे जाने वाले नागरिक अखलाक के मामले की जांच का प्रथम जांच अधिकारी था? मगर उत्तर प्रदेश के चंगेजी निजाम की कैफियत देखिये कि इस सूबे पर राज करने वाली पार्टी के कुछ रहनुमा इस दिनदहाड़े की गई वहशी हरकत में उस पुलिस को ही जिम्मेदार बताने की हिमाकत कर रहे हैं और इसे आस्था के लबादे में पेश करके पूरी इंसानियत को पैरों तले रौंदने की जुर्रत कर रहे हैं।

अगर किसी प्रदेश में कानून की रखवाली पुलिस को ही अपनी जान बचाने के लिए कुछ आस्थावान लोग भागने पर मजबूर कर देते हैं तो एेसे लोगों को कानून सीधे राजद्रोह का खतावार मानता है मगर कयामत देखिये कि इन लोगों ने अपनी ईमानदारी के लिए विख्यात और ड्यूटी के पाबन्द पुलिस अधिकारी को केवल गोली ही नहीं मारी बल्कि उसके घायल होने के बावजूद उस पर पत्थरों की बरसात भी कर दी। आजाद हिन्दोस्तान की 21वीं सदी में पनपी यह राक्षसी संस्कृति हमंे सचेत कर रही है कि हम आदमखोरों के बीच अपने आदमी होने का वजूद तलाश रहे हैं। यह न कोई हादसा है और न कोई संयोग कि बुलंदशहर में सम्पन्न हुए तीन दिवसीय इस्लामी सम्मेलन के समापन पर अचानक इस जिले के एक गांव में गायों के कंकाल मिलने पर साम्प्रदायिक दंगा भड़काने की पुरजोर कोशिश इस तरह की जाती है कि बुलन्दशहर में हुए सम्मेलन में शिरकत करने आये लोगों के खिलाफ गुस्सा भड़क उठे और चुनावों से पहले उत्तर प्रदेश में दूसरा मुजफ्फरनगर कांड हो सके मगर नादान हैं वे लोग जो इस मुल्क की तासीर से वाकिफ नहीं हैं और अंग्रेजों की बांटों और राज करो की नीति को आजाद भारत में लागू करना चाहते हैं।

इतिहास गवाह है कि भारत में पहला बूचड़खाना लार्ड क्लाइव ने बंगाल फतेह करने के बाद 1776 के करीब इसी राज्य में खुलवाया था क्योंकि अंग्रेज फौजी अफसरों काे बीफ (गौमांस) बहुत पसन्द था। किसी भी मुगल बादशाह की सल्तनत में गौहत्या की इजाजत नहीं थी मगर 1860 में ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा हिन्दोस्तान की पूरी सल्तनत इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया को बेच देने के बाद अंग्रेजों ने गाय को हिन्दू और मुसलमानों के बीच बंटवारा करने की गरज से कारगर औजार बना लिया और इसका इस तरह प्रयोग किया कि वे हिन्दू और मुसलमान दोनों के ही मुल्क भारत की सम्पत्ति की खुली लूट करते रहे और दोनों पर ही जुल्म ढहाते हुए इन्हें आपस में लड़ाते रहें। इसका जो अन्तिम परिणाम निकला उससे हम सब वाकिफ हैं। भारत का ‘दिमाग’ समझे जाने वाले बंगाल और इसका ‘बल’ समझे जाने वाले पंजाब राज्यों को केवल हिन्दू-मुसलमान के आधार पर बांट कर उन्होंने इसे कंगाली की हालत में छोड़ दिया।

जो मुल्क मुगलिया सल्तनत के दौरान अपना भौगोलिक विस्तार पूरे जोशो-खरोश से करता रहा हो उसे अंग्रेजों ने केवल हिन्दू और मुसलमान में बांट कर सतत जारी रहने वाली दुश्मनी के लिए इस तरह छोड़ा कि 1947 में जम्मू-कश्मीर का महाराजा हरिसिंह आजाद मुल्क बने रहने का ख्वाब पाल बैठा। इतिहास केवल पढ़ने के लिए नहीं बल्कि सबक सीखने के लिए होता है और वह सबक यह है कि 1971 में बांग्लादेश के उदय ने हिन्दू-मुसलमान बंटवारे की अंग्रेजों की नीति के परखचे उड़ाते हुए एेलान किया कि पूर्वी पाकिस्तान की एक ही संस्कृति है जिसका नाम बांग्ला है और ‘‘आमार शोनार बांग्ला” की गूंज इस मुल्क के मुक्ति संग्राम के महानायक शेख मुजीबुर्रहमान ने भारत की प्रधानमन्त्री स्व. इन्दिरा गांधी के सान्निध्य में दिल्ली के लालकिले से भी लगाई। बेशक गौवंश संवर्धन में हिन्दुओं की आस्था है यही वजह थी कि मुगल शहंशाह बाबर ने जब अपने ‘वली अहद’ हुमायूं को गद्दी सौंपी तो ताकीद की थी कि गौकशी की इजाजत मत देना।

यह हुमायूं वही थे जो चित्तौड़ की महारानी कर्मवती की मदद की गुहार पर बंगाल का युद्ध बीच में ही छोड़कर उसकी मदद करने के लिए मेवाड़ पहुंचा था मगर उसे तब वहां रानी कर्मवती की चिता ही मिली थी और इसकी राख को अपने हाथों में लेकर हुमायूं रोया था कि एक बहन की भेजी हुई राखी की वह लाज नहीं रख सका। हमारा इतिहास यह भी है कि गुरु नानक देव जी ने घोषणा की थी कि वह न हिन्दू हैं न मुसलमान, वह केवल इंसान हैं। क्या गजब का संयोग रहा कि गुरु नानक देव जी का जन्म ‘देव दीपावली’ के दिन हुआ और उन्होंने ही सर्वप्रथम बाबर को ‘बादशाह’ कहकर सम्बोधित किया। उससे पहले बादशाह शब्द को भारत में किसी ने नहीं सुना था। अतः पंजाबी मंे यह व्यर्थ नहीं है कि ‘नानक ने बाबर नू पातशाही बख्शी’ मगर बाद में सिख गुरुओं ने मुगल बादशाहों के जुल्मों के खिलाफ बलिदान भी दिय। उनकी शहादत इंसानियत को बचाने के लिए ही थी।

हमारी संस्कृति के ये पुख्ता दस्तावेज हैं। इनकी एवज में जब हम इंसानियत को ही दफन करने के रास्ते पर चलने लगते हैं और उसे आस्था का रंग देने लगते हैं तो भारत को ‘बदरंग’ करने की तस्वीर बनाने लगते हैं। अपने दायित्व का निर्वाह करते हुए बुलंदशहर में पुलिस अधिकारी सुबोध कुमार सिंह का लहू हमें चेतावनी दे रहा है कि हिन्दू-मुसलमान होने का अर्थ ‘आदमी’ का चोला उतार फैंकने से नहीं है, किसी भी देश का निर्माण आदमी ही करते हैं। विद्या या शिक्षा आदमी का धर्म देखकर उसके पास नहीं आती बल्कि उसकी लगन और मेहनत देखकर ही उसके पास आती है। सबसे ऊपर 15 अगस्त 1947 को इस देश के सभी हिन्दू-मुसलमान राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की सन्तान हो गये थे जिनका सबसे बड़ा हथियार ‘अहिंसा’ था और महात्मा गांधी को ‘राष्ट्रपिता’ का रुतबा उन नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने दिया था जो सैनिक युद्ध करके अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालना चाहते थे, किसी प्रकार की हिंसा करके नहीं। अतः हम गांधी पुत्रों को यदि कोई हिंसा का रास्ता दिखाता है तो उसे भारतवासी क्यों न अंग्रेजों का अनुगामी समझें ? इसलिए जरूरी है कि सुबोध कुमार सिंह की शहादत बेकार न जाये और बुलन्दशहर से आवाज गूंजे कि ‘‘बा-आवाजे बुलन्द कहो कि हम सब एक हैं।’’

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