पूरे देश में लोकसभा चुनावों के लिए विभिन्न राजनीतिक दल प्रत्येक राज्य में जो रणनीतिक रास्ते तैयार कर रहे हैं उनमें सबसे ज्यादा उलझी हुई डगर उत्तर प्रदेश की है और सितम यह है कि इसी राज्य की 80 लोकसभा सीटों की मार्फत दिल्ली की अगली बनने वाली सरकार का रास्ता खुलता है। इस राज्य की राजनीति की जमीनी हकीकत यह है कि यहां के मतदाताओं को क्षेत्रीय दलों ने साम्प्रदायिक माहौल के बीच जातिगत धड़ों में इस प्रकार बांट रखा है कि उनके सामने वोट के जरिये अपने-अपने इन्हीं धड़ों का रुआब ग़ालिब करना भर रह गया है। अतः कांग्रेस की नई महासचिव बनीं श्रीमती प्रियंका गांधी के सामने सबसे बड़ी चुनौती इसी माहौल को बदलने की है। यह काम निश्चित रूप से आसान नहीं होगा क्योंकि सबसे बड़ी चुनौती विचारधारा की राजनीति से इसी धड़ेबन्दी को तोड़ने की है।
दुर्भाग्य से यह माहौल पिछले तीस साल से उन्हीं राजनीतिक दलों समाजवादी पार्टी व बहुजन समाज पार्टी ने भाजपा की पर्दे के पीछे से मदद पर बनाने में सफलता प्राप्त की है जिसकी वजह से चुनावों में मतदाता हिन्दू और मुसलमान होकर रह गए हैं मगर यह बंटवारा इतने शातिराना अंदाज में हुआ है कि जातिगत धड़ों में बांटे गए हिन्दू समाज की चिन्ता मुस्लिम समाज को भाजपा से डरकर स्वतः उनके खेमे में खिंचे आने की हो गई है। इस पूरी तरह उलझी हुई डगर से गुजर कर ही श्रीमती प्रियंका गांधी को कांग्रेस का रास्ता बनाना होगा परन्तु दिक्कत यह है कि इसके लिए सबसे पहले उन्हें ऐसे राजनीतिक दलों का ही पर्दाफाश करना होगा जिन्होंने इस राज्य में लगातार साम्प्रदायिक माहौल को ही अपनी सफलता की कुंजी माना है। गौर से देखा जाए तो कांग्रेस पार्टी के लिए उत्तर प्रदेश की बंजर जमीन ऐसी उपजाऊ धरती साबित हो सकती है जो यहां के मतदाताओं में मुल्क की हुकूमत को अपनी मुट्ठी में बन्द कर लेने की ताकत अता फरमा सकती है। प्रियंका को केवल इतना ही बदलाव करना है कि इस राज्य के नागरिक हिन्दू-मुसलमान से मतदाता बनें और चुनावों में अपने वोट का इस्तेमाल हिन्दोस्तान की हुकूमत में अपनी हकदारी के लिए करें। उनके वोट की ताकत को क्षेत्रीय दलों ने जिस तरह अपनी सियासत की तिजारत करने का जरिया बना रखा है उसका राज इस तरह खुले कि हर नागरिक को महसूस हो कि उसके वोट का खर्च उसकी अपनी सम्पत्ति है जिसे वह हिन्दू-मुसलमान की जगह हिन्दोस्तान पर लगाना चाहता है। दरअसल नेतृत्व का परीक्षण ऐसे ही दौर में होता है।
राजनीति में ऐसे दौर भी आते हैं जब दोस्त और दुश्मन में शिनाख्त मुश्किल हो जाती है। इसके लिए सबसे पहले उस माहौल को ही बदलने की जरूरत होती है जिसकी वजह से दोस्ती और दुश्मनी की तस्वीरें गढ़ी जाती हैं। इस माहौल के बदल जाने पर ही चारों तरफ वह नजारा बनता है कि आदमी को अपनी असली पहचान करते देर नहीं लगती। इसलिए राहुल गांधी ने अपनी बहन प्रियंका गांधी की शक्ल में उत्तर प्रदेश की साम्प्रदायिक आग में झुलसती धरती पर जिन महकते फूलों की बयार छोड़ी है उसके असर से सबसे पहले वह धुंआ ही छंटना चाहिए जिसने लोगों की आंखों पर हिन्दू-मुसलमान का चश्मा चढ़ा रखा है। यह काम नामुमकिन नहीं है। क्योंकि इसी राज्य में चौधरी चरण सिंह ने वह काम कर दिखाया था जिसकी कल्पना उस समय कोई नहीं कर सकता था, 1967 के आम चुनाव में इस राज्य में कांग्रेस पार्टी के समक्ष जनसंघ गौहत्या निषेध आन्दोलन के चलते मजबूत दीवार बनकर खड़ी हो गई थी और 418 की विधानसभा में उसे 101 सीटें मिली थीं मगर 1969 में जब चौधरी साहब ने अपनी अलग पार्टी भारतीय क्रान्ति दल बनाकर गांवों की ताकत का इजहार करते हुए मध्यावधि चुनाव लड़ा तो जनसंघ 47 सीटों पर रह गई और उनकी पार्टी को 117 से ज्यादा सीटें मिलीं।
उन्होंने केवल इतना काम किया था कि लोगों के बीच से हिन्दू-मुसलमान की पहचान खत्म करके उनकी पहचान को किसान, मजदूर, दस्तकार, कामदार और रेहड़ी-खोमचे व फेरी वाले में बदल दिया था। आज बेशक परिप्रेक्ष्य बदल चुका है मगर जो सबसे ज्यादा बदला है वह प्रशासन तन्त्र के हर हिस्से में निजी सैक्टर का दबदबा है। हिन्दोस्तान की इस सूरत को बदलना आसान काम नहीं है। इसके लिए ऐसे नेतृत्व क्षमता से भरे लोगों का आगे आना जरूरी है जिनकी स्पष्ट नीतियों में केवल आम और गरीब आदमी को संवैधानिक रूप से मजबूत बनाने की कसम शामिल हो। लोकतन्त्र में कभी खैरात से लोगों की किस्मत नहीं बदली जा सकती। क्योंकि जो खैरात बांटने का स्वांग किया जाता है वह उसी से वसूली गई रकम से किया जाता है और यह कैसे मुमकिन है कि लोकतन्त्र के मालिक आम आदमी को ही उसकी बनाई गई सरकार उसे खैरात बांट कर वाहवाही लूटने की जुगाड़ बैठाए। महात्मा गांधी के उसूलों पर चलने वाले इस मुल्क की किसी भी सरकार के लिए जरूरी है कि वह बिना किसी भेदभाव के हर अमीर-गरीब के बच्चे के लिए विकास का एक जैसा वह माहौल बनाए जिसमें उसकी योग्यता की पहचान उसकी माली हालत देखकर नहीं बल्कि उसके दिमाग को देखकर हो। आज के हिन्दोस्तान के सामने सबसे बड़ी समस्या यही है कि हुकूमत में आने के शौक में लोगों को ही लोगों से लड़ाने की सियासी तजवीजें ढूंढ कर उन लोगों की जरदारी को ही मजबूत किया जा रहा है जो इसकी 73 प्रतिशत सम्पत्ति पर कब्जा किए बैठे हैं।
गांधी बाबा बहुत पहले लिखकर चले गए थे कि लोकतन्त्र के मायने यह नहीं हैं कि सरकार कितनी मजबूत बनी है बल्कि यह है कि लोग कितने मजबूत बने हैं। क्योंकि सीमाओं की सुरक्षा भी तभी संभव है जब लोग मजबूत हों। यह काम जाहिर तौर पर तभी हो सकता है जब लोग अपने वोट की वह सही कीमत समझें जिसके जरिये वे अपने देश को मजबूत बना सकें। वोट जब मजबूत होगा तो मजबूत सरकार बनने से भी नहीं रोकी जा सकती। इसी वजह से डा. राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि जिन्दा कौमें कभी पांच साल इन्तजार नहीं करतीं क्योंकि लोकतन्त्र कोई प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी नहीं होता कि मिल्कियत बेदखल बनी रहेे। लोकतन्त्र में जनता जब स्वयं सिंहासन पर बैठने की ठान लेती है तो मिल्कियत खुद-ब-खुद महफूज हो जाती है अतः प्रियंका गांधी अगर लोगों में सिंहासन पर स्वयं ही बैठ जाने का जज्बा पैदा कर पाती हैं तो उत्तर प्रदेश की जमीन को सोना उगलने से कोई नहीं रोक सकता और पनघट की डगर को आसान होने से भी नहीं रोका जा सकता।