आरुषि और हेमराज की अजीबोगरीब नृशंस हत्या 16 मई, 2008 को हुई थी। अपराध की जांच करने पुलिस भी पहुंची थी। दोनों का गला एक ही तरीके से काटा गया था। पुलिस इस नतीजे पर पहुंची थी कि यह आनर किलिंग का मामला है। जैसे-जैसे अपराध का विश्लेषण आगे बढ़ता गया त्यों-त्यों तलवार परिवार के वैवाहिक जीवन चरित्र की बदनाम कहानियां जोर पकड़ती गईं। संवेदनाएं खत्म होती गईं और अफवाहों ने तहकीकात पर प्रभाव डालना शुरू कर दिया। इस दर्दनाक हत्याकांड को लेकर अखबारें, टी.वी. चैनल और इंटरनेट भर गया। जितने मुंह उतनी बातें। हर जगह इसकी चर्चा। हाइप्रोफाइल केस की गुत्थी उलझती चली गई। पुलिस ने आरुषि के पिता राजेश तलवार को आनर किलिंग में गिरफ्तार भी किया था लेकिन तत्कालीन मायावती सरकार ने इस मामले की जांच सीबीआई को सौंप दी। सीबीआई की पहली टीम ने आरुषि के पिता को निर्देष बताया, राजेश तलवार के कंपाउडर कृष्णा के अलावा दो अन्य लोगों को गिरफ्तार भी किया था। इसके बाद राजेश तलवार को जमानत पर रिहा भी कर दिया गया, सीबीआई 90 दिन के भीतर चार्जशीट ही नहीं पेश कर पाई। इस मामले की जांच के लिए सीबीआई ने 2010 में दूसरी टीम बनाई, इस टीम ने भी सबूतों के अभाव में क्लोजर रिपोर्ट लगा दी थी जिसे ट्रायल कोर्ट ने नहीं माना। फिर गाजियाबाद स्थित सीबीआई की विशेष अदालत ने 26 नवम्बर, 2013 को राजेश तलवार और नुपुर तलवार को केवल परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर दोहरे हत्याकांड का दोषी ठहराते हुए सजा सुनाई। तलवार दम्पति ने इस फैसले को 2014 में इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी थी। अंततः इलहाबाद हाईकोर्ट ने निचली अदालत का फैसला पलटते हुए दोनों को रिहा कर दिया।
यह भारतीय न्याय प्रणाली और लोकतंत्र के सशक्त स्तम्भ पर कलंक ही है कि उसने दो जिन्दगियों के 9 साल और मृत आरुषि का आत्मसम्मान छीन लिया। अगर पुलिस, सीबीआई या मीडिया जांच और रिपोर्टिंग का रुख कुछ और होता तो हालात ऐसे नहीं होते। आरुषि-हेमराज मर्डर केस का कत्ल तो पहले ही दिन हो गया था। जांच और अनुमानों का सिलसिला चला तो फिर उसने थमने का नाम ही नहीं लिया। मामले को इतना सनसनीखेज बना दिया गया, अवैध संबंधों की कहानी ने पूरे मामले पर काली स्याही पोत दी। न तो पुलिस ने जिम्मेदारीपूर्ण रवैया अपनाया और न ही शीर्ष जांच एजैंसी ने। 14 साल की लड़की के बारे में इतनी घटिया बातें कही गईं कि विश्वास ही नहीं होता था।
कहने को तो सीबीआई देश की सबसे बड़ी जांच एजैंसी की तुलना अमेरिका की एफबीआई से होती है परन्तु कई ऐसे मामले हैं जिनमें सीबीआई या तो गुनाहगार का पता ही नहीं कर पाई या फिर उसकी जांच पर गंभीर सवाल उठे। निठारी कांड को कौन भूल सकता है। इस मामले में भी सीबीआई का लचर रुख सामने आया था। सीबीआई ने इस कांड से जुड़े बहुत सारे मामलों में मोनिंदर सिंह पंढेर को यह कहते हुए छोड़ दिया था कि हत्याओं के वक्त वह मौजूद नहीं था और सिर्फ उसके नौकर सुरिंदर कोली ने हत्याएं की हैं। हालांकि जुलाई 2017 में दोनों को अदालत ने फांसी की सजा सुनाई है। आज 9 वर्ष बाद भी सवाल अपनी जगह खड़ा है कि आरुषि-हेमराज को किसने मारा। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उपलब्ध साक्ष्यों और हालात को ध्यान में रखते हुए स्पष्ट टिप्पणियां भी की हैं। कोर्ट ने कहा है कि संदेह सबूत की जगह नहीं ले सकता।
क्या देश की शीर्ष जांच एजैंसी को आरुषि के कातिलों को ढूंढने के लिए 9 वर्ष और चाहिए। आरुषि को न्याय नहीं मिला। हत्याकांड पर आया फैसला यह भी दिखाता है कि मीडिया ट्रायल हमारे सोचने के तरीके, फैसलों पर कितना असर डालता है। अब सीबीआई के पूर्व निदेशक ए.सी. सिंह का कहना है कि तलवार दम्पति को संदेह का लाभ मिला है न कि क्लीनचिट मिली है। सेवानिवृत्त अधिकारी जो कुछ भी कहे वह तो महज लीपापोती ही है। हाईकोर्ट ने कठोर टिप्पणी की है कि निचली अदालत ने परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर ही फैसला सुना दिया, हत्या की वजह को लेकर स्थिति स्पष्ट ही नहीं है, ट्रायल जज गणित के टीचर की तरह व्यवहार नहीं कर सकता। उसने एक फिल्म निर्देशक की तरह सोच लिया कि हुआ क्या था। कानून के बुनियादी नियम को जज ने फालो ही नहीं किया। आरुषि मामले में जो फैसला आया उससे यह सवाल तो बनता है कि क्या तलवार दंपति गलत और अनफेयर ट्रायल का शिकार हुआ अगर तलवार दंपति निर्दोष है तो फिर उन्हें जेल में क्यों सड़ना पड़ा? सीबीआई सबूतों के अभाव में हार गई, उसने बहुत दावे किए थे कि उसके पास पुख्ता सबूत हैं, तो फिर सबूत गए कहां? इंसाफ पर समाज सवाल उठा रहा है, उठाता रहेगा लेकिन जवाब कौन देगा?