हमारे देश में एक मजबूत लोकतंत्र है। हर कोई अपनी आवाज उठा सकता है और सबको इसका अधिकार भी है। परन्तु इस समय जब दुश्मन सरहदों पर तैनात है और किसी भी चाल को चल सकता है और कोरोना भीतर से सबको मार रहा है। इस समय सभी भारतीयों की एक ही आवाज होनी चाहिए कि देश पहले और पार्टी बाद में। नैतिकता यही कहती है। वर्तमान में राजनीति का जो विद्रूप स्वरूप हमारे सामने आ रहा है उसके धागे अर्थव्यवस्था से इस तरह जुड़े हैं कि सामान्य जन खुले बाजार की अराजक ताकतों से बंध कर इस तरफ सोचने का विचार तक नहीं लाता। राजनीति का अपराधीकरण इसका एक पक्ष जरूर है मगर मूल समस्या सियासत के धनतन्त्र के शिकंजे में फंसने की है जो बाजारमूलक अर्थव्यवस्था की देन है। कथित आर्थिक भूमंडलीकरण ने राजनीति को इस तरह प्रभावित किया है कि अब विदेशी कम्पनियां भी भारतीय राजनीतिक दलों को चन्दा दे सकती हैं। इस प्रयोजन के लिए जिस तरह विदेशी कम्पनी की परिभाषा को बदला गया उसकी तरफ बाजार के शोर ने आम हिन्दोस्तानी का ध्यान ही नहीं जाने दिया। जबकि किसी भी देश के आत्मनिर्भर बनने की पहली शर्त होती है कि वह राजनीतिक रूप से विदेशी शक्तियों से पूरी तरह स्वतन्त्र रहे।
लोकतन्त्र को जीवन्त बनाये रखने की यह प्राथमिक शर्त इस प्रकार होती है कि घरेलू राजनीति में सक्रिय विभिन्न राजनीतिक दल आपस में बेशक लड़ते-मरते रहें मगर जब विदेशों की धरती पर हों तो केवल सत्तारूढ़ सरकार की नीतियों को ही समग्र भारत देश की नीतियां बता कर उनकी वकालत करें। खुली बाजार अर्थव्यवस्था इस सीमा को तोड़ रही है जिसकी वजह विदेशी कम्पनियों की हमारी राजनीति में परोक्ष रूप से हिस्सेदारी हो रही है परन्तु यह देश अन्ततः महात्मा गांधी की नीतियों पर चलने वाला देश ही रहेगा। अतः हो सकता है कि आने वाली पीढि़यां आज के रास्ते में परिमार्जन इस तरह करें कि गांधीवाद और राष्ट्रवाद गले में बाहें डाल कर आगे बढ़ते नजर आयें परन्तु आज की राजनीतिक पीढ़ी जिस तरह धनतन्त्र की गिरफ्त में फंस कर चुनावी लड़ाई में विजय प्राप्त करने का लक्ष्य बना रही है उसे देखते हुए लगता है कि राजनीति में सदाचारी और त्यागी व्यक्ति आने से घबराने लगेंगे। एक तो आर्थिक रूप से वे अशक्त होंगे और दूसरे पैसे की चकाचौंध की चमक मंे उनकी नैतिक राजनीति की तरफ से स्वयं आम जनता ही आंखें मूंदे रखेगी।
लोकतन्त्र के जीवित रहने के लिए सदाचार और निडरता दो स्तम्भ होते हैं जिन पर पूरा राजनीतिक विमर्श खड़ा होता है जिससे आम जनता के बीच राजनीतिज्ञों की छवि का आंकलन होता रहता है। इस सम्बन्ध में 1975 में लागू इमरजेंसी के दौरान विपक्ष के दो संसद सदस्यों का दिया गया इस्तीफा आज की पीढ़ी की आंखें खोल देने के लिए काफी है। इन्दिरा गांधी के तत्कालीन शासन के खिलाफ पूरा विपक्ष स्व. जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में आन्दोलन चला रहा था। आन्दोलन भ्रष्टाचार समाप्त करने से लेकर चुनाव प्रणाली में परिवर्तन करने के मुद्दों को लेकर छेड़ा गया था परन्तु 12 जून, 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा श्रीमती इन्दिरा गांधी का रायबरेली से लोकसभा चुनाव ही रद्दा किये जाने के बाद स्थिति पूरी तरह बदल गई थी और जेपी ने इन्दिरा जी के इस्तीफे की मांग कर डाली थी जिसकी वजह से 25 जून को इमरजेंसी लगा दी गई थी और सभी विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया गया था। तब इन्दिरा जी ने लोकसभा की अवधि पांच से छह साल कर दी थी। इस पर जेल से ही जेपी ने सभी विपक्षी सांसदों से अपील की कि वे संसद से इस्तीफा दे दें। उनके आह्वान पर केवल दो सांसदों माननीय शरद यादव और स्व. मधु लिमये ने लोकसभा से इस्तीफा दिया था। शरद यादव ने इन्दौर जेल से भेजे गये अपने इस्तीफे में जो लिखा उसे पढि़ये ‘‘मैं जबलपुर संसदीय निर्वाचन क्षेत्र से लोकनायक जय प्रकाश के अनुयायी व जनता प्रत्याशी के रूप में लोकसभा हेतु निर्वाचित हुआ था। संविधान के उपबन्धकों के अनुसार लोकसभा की अवधि पांच वर्ष होती है। वर्तमान लोकसभा की अवधि 18 मार्च, 1976 को समाप्त होने जा रही है इस तरह 18 मार्च को लोकसभा भंग कर दी जानी चाहिए और नये चुनाव कराये जाने चाहिएं क्योंकि जनता ने इस लोकसभा के लिए 18 मार्च, 1976 तक ही अपना आदेश प्रदान किया है , इसके बावजूद श्रीमती इदिरा गांधी की तानाशाह सरकार ने अपने क्रूर बहुमत के आधार पर संसद की अवधि एक वर्ष के लिए बढ़ाये जाने का प्रस्ताव पारित कर लिया।
अल्पमत में बैठे विरोधी पक्ष के अधिसंख्य सदस्य गत नौ माह से जेल की सींखचों के अन्दर हैं। वे इस घोर अप्रजातान्त्रिक प्रस्ताव का विरोध तक नहीं कर सके या विरोध में मत नहीं दे सके। यह सब पाप आपातकाल के संवैधानिक उपबन्ध के नाम पर किया गया।’’ मुद्दा यह है कि जेल में बन्द शरद यादव ने लोकतन्त्र को हर हाल में जीवन्त रखने की अपनी जिद नहीं छोड़ी और संसद की सदस्यता से इस्तीफा देकर त्याग का परिचय दिया। यह विशुद्ध सदाचार था जो लोकतन्त्र की आत्मा कहलाता है। यह जनता द्वारा चुने गये एक सांसद की नैतिकता थी जिसका ऐलान उसने अपने इस्तीफे में किया जबकि शरद यादव 1974 में पहली बार उपचुनाव जीत कर लोकसभा में पहुंचे थे और कांग्रेसी दिग्गज उन स्व. सेठ गोविन्द दास की जबलपुर सीट से पहुंचे थे जो संविधान सभा के सदस्य भी रहे थे। लोकनायक जय प्रकाश नारायण ने ही उन्हें इस चुनाव में जनता प्रत्याशी बनाया था। शरद यादव इससे पहले भी इमरजेंसी लगने से पूर्व ही जबलपुर विश्वविद्यालय के छात्र नेता के तौर पर चार बार मीसा में बन्द कर दिये गये थे और उन्हें चुनाव हराने के लिए इन्दिरा जी ने कांग्रेस की पूरी ताकत झोंक दी थी मगर उस समय तक भारत की राजनीति पर धनतन्त्र इस कदर हावी नहीं था जिस तरह आज है।
प्रश्न पैदा होता है कि शरद यादव जैसे लोगों को मौजूदा राजनीति में केन्द्रीय भूमिका में लाकर क्या हम राजनीतिक कलेवर बदल सकते हैं और त्याग को फिर से राजनीति का मानक बना सकते हैं? सवाल यह है कि जब पूरे कुएं में ही भांग पड़ चुकी हो तो गंगाजल का असर क्या होगा? आरोप-प्रत्यारोप के घमासान में सफेदपोश कहां से ढूंढें? कौन सा दरवाजा खटखटायें कि दरवेश नमूदार हो? गांधी ने स्वतन्त्रता से पूर्व ही अपने अखबार ‘हरिजन’ में लिखा था कि राजनीति में उसे ही प्रवेश करना चाहिए जिसे अपने निजी जीवन को कुर्बान करना आता हो क्योंकि सार्वजनिक जीवन में निजी जीवन कुछ नहीं होता है। राजनीतिज्ञ के जीवन पर जनता का अधिकार होता है। यह एक सेवा मार्ग है, परन्तु हम तो इसी मार्ग से भटक चुके हैं तो राजनीति में सदाचार कहां से लायेंगे। बाजार में जैसे हर चलती चीज बिकती है वैसे ही हम राजनैतिक विमर्श बेच रहे हैं, सत्ता और विपक्ष दोनों ही इस घुंध में फंसे हुए हैं मगर हम भूल रहे हैं कि भारत में फकीरों का रुतबा बादशाहों से भी ऊंचा रहा है। बाजार मूलक सियासत हिन्दोस्तान की इस शिफ्त को कभी खत्म नहीं कर सकती।
‘‘बादशाहों से भी बड़ा फकीरों का रुतबा न था,
सारी दुनिया जेब में पर हाथ में पैसा न था।’’
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com