भारत में रक्षा सौदों को लेकर जिस तरह समय-समय पर विवाद होते रहे हैं उनके मूल में रक्षा आयुध सामग्री के क्षेत्र में भारत का आत्मनिर्भर होना नहीं रहा है। वास्तविकता यह है कि स्व. इन्दिरा गांधी के अन्तिम कार्यकाल 1980 से 84 तक वायु सेना के लिये लड़ाकू विमानों से लेकर अन्य आयुध सामग्री के उत्पादन में जो जबर्दस्त तरक्की की गई थी उसकी रफ्तार बाद में लगातार ढीली होती गई। जिस हिन्दुस्तान एयरोनाटिक्स लिमिटेड कम्पनी का राफेल लड़ाकू विमान सौदे में बार-बार जिक्र आ रहा है उसे इस देश की राजनीति ने ही कमजोर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
सोवियत संघ के बिखर जाने और भारत में आर्थिक उदारीकरण की नीतियां शुरू हो जाने के बाद रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के नजरिये में गुणात्मक बदलाव आया परन्तु सबसे बड़ा नुकसान इस देश में बोफोर्स तोप कांड उठने के बाद हुआ जिसे उठाने वाला कोई और नहीं बल्कि स्व. राजीव गांधी के मन्त्रिमंडल का एक विश्वस्त साथी विश्वनाथ प्रताप सिंह ही था। सोवियत संघ के साथ भारत ने रक्षा क्षेत्र में सहयोग करके आत्मनिर्भरता प्राप्त करने का जो अभियान चलाया था उसे इस देश के बिखरने के बाद बहुत बड़ा झटका लगा और रही-सही कसर 1991 से 96 तक देश के प्रधानमन्त्री स्व. पी.वी. नरसिम्हा राव ने पूरी कर दी जो कथित बोफोर्स घोटाले की लटकने ही लहराते रहे। उनके बाद राजनीति ने जो रंग बदला उसने उस हिन्दुस्तान एयरोनाटिक्स लि. कम्पनी को लगातार कमजोर करने का काम किया जिसने अंग्रेजी शासनकाल में ही जन्म लेकर लड़ाकू विमानों के इंजन उत्पादन से लेकर सभी प्रकार के आधुनिक ब्रिटिश व अमेरिकी विमानों को ठीकठाक (रिपेयरिंग) करने में महारथ हासिल किया था।
पं. नेहरू के कार्यकाल के दौरान इस कम्पनी ने ‘एच एफ-24 मारुत’ लड़ाकू विमान का उत्पादन करके सिद्ध कर दिया था कि यह भारत की वायुसेना की जरूरतों को पूरा करने में प्रमुख भूमिका निभा सकती है क्योंकि इसने तभी रूसी विमान मिग-21 उत्पादन करने का काम शुरू किया था बल्कि इस लड़ाकू विमान का सेवाकाल भी 20 वर्ष तक करने की टैक्नोलोजी इजाद कर ली थी। इंदिरा गांधी के अन्तिम शासनकाल में इसने तेजस व ध्रुव जैसे लड़ाकू हेलीकाॅप्टरों का उत्पादन करना शुरू किया। यह आश्चर्यजनक कहा जायेगा कि जिस कम्पनी से एयर बस, बोइंग व हनीवेल जैसी अंतर्राष्ट्रीय विमानन कम्पनियां इंजन व कलपुर्जों के उत्पादन का ठेका देती हाें वह दुनिया के किसी भी आधुनिकतम लड़ाकू विमान के उत्पादन में किस तरह सहयोगी नहीं बन सकती।
भारतीय वायुसेना को आधुनिकतम बनाने की मांग आज से नहीं बल्कि नरसिम्हा राव सरकार के जमाने से चली आ रही है और वाजपेयी सरकार के कार्यकाल के दौरान तो अधीर होकर तत्कालीन वायुसेना अध्यक्ष ने जरूरी सामान की पूरी फेहरिस्त पेश कर दी थी मगर तब यह सरकार तहलका कांड में फंस गई और अपने रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडीज को कभी मन्त्रिमंडल से बाहर करती रही और कभी उनकी वापसी का जश्न मनाती रही। अतः यह बेवजह नहीं था कि बदली हुई परिस्थितियों को देखते हुए पूर्व राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी के रक्षा मन्त्री रहते भारत ने स्पष्ट रक्षा खरीद नीति बनाकर ऐसा किया कि हर बड़ी खरीद में विदेशी कम्पनी को टैक्नोलोजी का स्थानान्तरण करना होगा और कुल खरीद कीमत का कम से कम तीस प्रतिशत भारत में निवेश करना होगा। यह बदली परिस्थितियों में रक्षा क्षेत्र में भारत को आत्मनिर्भर बनाने के लिए महत्वपूर्ण कदम था।
गौर करने वाली बात यह है कि यदि भारत में लड़ाकू विमान बनाने में हिन्दुस्तान एयरोनाटिक्स लि. सहयोग नहीं करेगी तो और कौन सी कम्पनी करेगी। इस क्षेत्र में शत-प्रतिशत विदेशी निवेश की छूट देने के बावजूद कोई भी प्रमुख विदेशी कम्पनी अभी तक आगे नहीं आयी है? इसकी एकमात्र वजह यह है कि ये कम्पनियां अपनी टेक्नोलोजी सांझा नहीं करना चाहती हैं। ऐसा करते ही उनकी महत्ता समाप्त हो जायेगी। अतः टैक्नोलोजी हस्तांतरण का नियम भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा को मजबूत करने की दृष्टि से ही महत्वपूर्ण नहीं था बल्कि भारत में युवा व दक्ष लोगों को रोजगार उपलब्ध कराने के लिए भी था। फ्रांस से जिन 36 राफेल लड़ाकू विमानों की खरीद का समझौता किया गया उसमें से टैक्नोलोजी हस्तांतरण की शर्त को ही हटा दिया गया क्योंकि कंपनी इसके लिये तैयार नहीं थी।
हिन्दुस्तान एयरोनाटिक्स लि. की उत्पादन शाखाएं अब देश के लगभग एक दर्जन शहरों में हैं जिनमें हजारों लोगों को रोजगार मिलता है। रूस के सहयोग से यह कम्पनी आज भी नई टैक्नोलोजी के कुमोव हेलीकाप्टरों का उत्पादन कर रही है जो तेजस और चीता हेलीकाॅप्टरों की जगह लेंगे। यह सरकारी कम्पनी जितनी मजबूत होगी उतनी ही राष्ट्रीय सुरक्षा मजबूत होगी और रोजगार के अवसर भी पैदा होंगे। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद राफेल मामले में दूध का दूध और पानी का पानी हो चुका है तो फिर बेवजह हंगामा करना उचित नहीं है। देश की सेनाओं को बदलते परिदृश्य में राफेल जैसे अत्याधुनिक लड़ाकू विमानों की जरूरत है। देश के रक्षा हितों से किसी भी तरह का समझौता नहीं किया जा सकता।