भाजपा नेता श्री लालकृष्ण आडवाणी का आजाद भारत की राजनीति में सबसे बड़ा योगदान उस राजनीतिक विमर्श को बदलने का माना जायेगा जो विकासशील भारत में स्थिरता और जड़ता-पकड़ता जा रहा था तथा नई पीढि़यां उसमें ऊर्जा की कमी महसूस करने लगी थीं। निश्चित रूप से यह विमर्श कांग्रेस पार्टी का ही था जिसके तार आजादी के आन्दोलन से जुड़े हुए थे। आडवाणी ने इस विमर्श में ताप भरते हुए नई पीढ़ी को हिन्दुत्ववादी सांस्कृतिक चेतना से जोड़ कर जो राजनीतिक विमर्श खड़ा किया। उसने कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने का वह रास्ता तैयार किया जिसकी खोज वर्षों से समाजवादी नेता कांग्रेस के विमर्श को ही और अधिक पैना बना कर कर रहे थे। अतः हम निश्चिन्त होकर कह सकते हैं कि श्री आडवाणी 20वीं सदी के आजाद भारत के ऐसे महानायक हैं जिन्होंने दशकों से सत्ता सुख भोग रही कांग्रेस को वनवास में भेजने की भूमिका अपनी पार्टी के उस राष्ट्रवाद के सिद्धान्त को विस्तार देकर की जिसके आधार पर इस पार्टी की नींव 1951 में डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने हिन्दू महासभा से अलग होकर रखी थी। आडवाणी भारत की उस असली ताकत को शिद्दत से पहचानते हैं जिसे लोकतन्त्र कहा जाता है।
संसदीय लोकतन्त्र की शुचिता व पारदर्शिता व जवाबदेही पर उनका भरोसा रहा है और इस क्रम में अपने लम्बे संसदीय जीवन में उन्होंने कांग्रेस पार्टी की परिपाठी का ही पालन किया है क्योंकि वह जानते थे कि भारत को गांधी के प्रभाव से कभी मुक्त नहीं किया जा सकता। हालांकि वह राजनीति में गांधीवादी विचारों के समर्थक नहीं माने जाते थे। उन्होंने जनसंघ के जमाने के मुस्लिम तुष्टीकरण के सिद्धान्त को छद्म धर्मनिरपेक्षता में ढाल कर भारत के लोगों के सामने ही ऐसा प्रश्न खड़ा करने की कोशिश की जिसका सम्बन्ध उनके व्यावहारिक जीवन से सीधे टकराता था। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद उनका इजाद किया गया शब्द नहीं था मगर इसे राजनीतिक विमर्श में लाकर उन्होंने सत्ता में रहने वाली कांग्रेस पार्टी के लिए धर्म संकट खड़ा करने की जरूर कोशिश की। व्यक्तिगत जीवन से लेकर सार्वजनिक जीवन तक में अल्पभाषी किन्तु सैद्धान्तिक विवेचना में खुला दिल रखने वाले आडवाणी को हम मौजूदा दौर का सरदार पटेल भी मान सकते हैं क्योंकि उन्होंने कभी भी हिन्दू हृदय सम्राट बनने का प्रयास नहीं किया हालांकि उनके कुछ प्रशंसक उन्हें इस नाम से नवाज देते थे। वह गृहमन्त्री भी रहे और उप प्रधानमन्त्री भी रहे परन्तु अपने सरकारी कार्यकाल में उन्होंने देश के प्रति दायित्व को पार्टी के प्रति दायित्व से ऊपर रखा और सुनिश्चित किया कि वह उन अल्पसंख्यकों की समस्याओं का भी निवारण करें जो उन्हें हिन्दू कट्टरपंथी समझते थे। उनके व्यक्तिगत मित्रों में मुस्लिम नागरिकों की संख्या कम नहीं है। जब आडवाणी आतंकवाद विरोधी कानून टाडा को पोटा से बदल रहे थे तो उन्होंने इस बात पर चिन्ता जताई थी कि टाडा में किशोर वय के बालकों तक को जेल भेज दिया जाता था परन्तु पोटा कानून अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों को देखते हुए ज्यादा सख्त भी बनाया गया था। उन्हें राम मन्दिर आंदोलन के दायरे में समेटना उनकी राजनीति को सीमित करके देखना होगा हालांकि उनकी राजनैतिक पहचान इसी आन्दोलन ने मजबूत की। आडवाणी की भारत के लोगों की सूझबूझ में गजब की आस्था रही है। यही एक उनका ऐसा गुण है जो उन्हें महात्मा गांधी के विचारों के समर्थन में आंशिक रूप से खड़ा करता है। श्री आडवाणी ने अयोध्या में राम मन्दिर आन्दोलन चलाने से पहले और सोमनाथ से अयोध्या तक रथयात्रा निकालने से पहले दिल्ली और अन्य स्थानों की रामलीलाओं में जाकर जनता का मन टटोला। जब वह नारा लगाते थे कि 'मन्दिर वहीं बनाएंगे-जहां राम का जन्म हुआ था', तो जनता से मिली प्रतिक्रिया को तोलते थे। इसके बाद ही उन्होंने रथयात्रा निकालने का फैसला किया था। यही वजह रही कि उन्होंने 1984 में केवल दो सीटों वाली भाजपा को 1996 में 161 सीटें वाली पार्टी बना दिया और इसके बाद 1998 में शासन के लिए एनडीए गठबन्धन की नींव स्व. अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में रखने की आधारशिला रखी और अयोध्या मुद्दे को नैपथ्य तक में डाल दिया। भाजपा को सत्ता में लाने का श्रेय यदि किसी को दिया जा सकता है तो निश्चित रूप से वह श्री आडवाणी को ही दिया जा सकता है क्योंकि कांग्रेस के विकल्प के रूप में भाजपा को खड़ा कर दिया और इसके लिए स्व. वाजपेयी ने पूरा सहयोग किया। उन्होंने भारत रत्न सम्मान से अलंकृत करके मोदी सरकार ने आम लोगों की चेतना को ही पुरस्कृत किया है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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