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ऑनलाइन शिक्षा का अफसाना

कोरोना महामारी के चलते बच्चों की पढ़ाई ऑनलाइन शिक्षा तक सिमट गई है लेकिन जिस ऑनलाइन शिक्षा को एक बेहतर विकल्प के तौर पर पेश किया गया, अब उसका सच सामने आ चुका है।

कोरोना महामारी के चलते बच्चों की पढ़ाई ऑनलाइन शिक्षा तक सिमट गई है लेकिन जिस ऑनलाइन शिक्षा को एक बेहतर विकल्प के तौर पर पेश किया गया, अब उसका सच सामने आ चुका है। बच्चों के अभिभावक पुरानी शिक्षा को ही पसंद करते हैं। अभिभावक और शिक्षाविद् यह स्वीकार करते हैं कि पढ़ाई का पारम्परिक तरीका ही सही है, जिसमें बच्चों को स्कूल में जाकर पढ़ना-लिखना ही सबसे श्रेष्ठ तरीका है। महामारी के चलते स्कूल बंद रहने से छात्रों के लिए कई परेशानियां पैदा कर दी हैं। एक नए सर्वे के मुताबिक ग्रामीण क्षेत्रों में 8 फीसदी छात्र ही नियमित रूप से ऑनलाइन पढ़ते हैं जबकि 37 फीसदी ने पढ़ाई छोड़ ही दी है। शहरी क्षेत्राें में 24 फीसदी छात्र ही शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं, 19 फीसदी छात्रों ने पढ़ाई छोड़ दी है। 17 महीने के लम्बे लाॅकडाउन के दौरान वित्तीय दबाव के चलते कई छात्रों ने प्राइवेट स्कूल छोड़कर सरकारी स्कूलों का रुख कर लिया है। जो अभिभावक बेरोगार हुए हैं वे भी काफी हताश हैं क्योंकि ऑनलाइन शिक्षा उनके बच्चों के लिए ज्यादा फायदेमंद साबित नहीं हुई। अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज, रीतिका खेड़ा और अनुसंधानकर्ता विपुल पैकरा द्वारा कक्षा एक से लेकर आठवीं तक के छात्रों का 15 राज्यों में सर्वे किया। सर्वे से यह स्पष्ट हो गया कि ऑनलाइन शिक्षा का काफी सीमित प्रभाव रहा। 
ऑनलाइन  शिक्षा के बहुत सीमित प्रभाव होने का सबसे बड़ा कारण ग्रामीण क्षेत्रों में स्मार्टफोन नहीं होना है। यह अनुपात शहरी  क्षेत्रों में 31 फीसदी और ग्रामीण क्षेत्रों में 15 फीसदी है। स्मार्टफोनों का इस्तेमाल ज्यादातर नौकरीपेशा लोग करते हैं, स्कूली बच्चों के पास स्मार्टफोन नहीं हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में स्कूल ऑनलाइन  स्टडी मैटेरियल भेजते ही नहीं या फिर अभिभावकों को इस संबंध में पता ही नहीं। अधिकतर अभिभावक प्राइवेट स्कूलों की फीस भी देने में सक्षम नहीं हैं। स्कूल वाले ट्रांसफर सर्टिफिकेट देने से पहले बकाया धनराशि चुकाने का दबाव डाल रहे हैं।
पिछले माह भी स्कूल ऑफ बिजनेस में सैंटर फॉर इन्नोवेशन एटरप्रेन्योरशिप की मदद से एक सर्वे किया गया था। इस सर्वे में 5 हजार लोगों ने हिस्सा ​लिया था। इस सर्वे में 93 फीसदी लोगों ने यही माना था कि ऑनलाइन शिक्षा से बच्चों के सीखने और प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। इससे बच्चों पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ रहा है। इस प्रक्रिया में बच्चों की गतिविधियों पर नजर रखने की शिक्षकों की क्षमता कम हो रही है। इसका प्रभाव विद्यार्थियों और शिक्षक दोनों पर पड़ रहा है। लाखों छात्रों के लिए स्कूलों का बंद होना उनकी शिक्षा में अस्थाई व्यवधान नहीं है बल्कि इसका दूरगामी प्रभाव होगा। बच्चों ने काम करना शुरू कर दिया। लड़कियों को अभिभावकों ने घर में बैठा ​िलया। बच्चों का शिक्षा से मोहभंग हो गया और मान लिया कि वे फिर से पढ़ाई शुरू नहीं कर सकेंगे। 
यहां तक कि जो छात्र अपनी कक्षाओं में लौटे हैं या लौट आएंगे वे भी महामारी के दौरान पढ़ाई में हुए नुक्सान के प्रभाव को महसूस करेंगे। कोरोना ने हरेक व्यक्ति के जीवन की सुरक्षा के प्रयास में बच्चों की शिक्षा का हरण कर लिया है। ऑनलाइन शिक्षा शुरू तो की गई लेकिन इसकी सफलता और गुणवत्ता में भारी अंतर रहा। इंटरनेट की पहुंच, क्नेक्टिवटी सुलभता, भौतिक तैयारी, शिक्षकों का प्रशिक्षण और घर की परिस्थितियों समेत कई मुद्दों ने शिक्षा की व्यवहार्यता को बड़े पैमाने पर प्रभावित ​किया।  जहां तक ऑनलाइन उच्च शिक्षा का सवाल है शि​क्षाविदों का मानना है कि इस तरह की शिक्षा से कालेज छात्रों को डिग्री तो मिल जाएगी लेकिन यह उन्हें नौकरी नहीं दिलवा सकती। छात्र केवल कोर्स की थ्योरी पढ़ रहे हैं, उन्हें व्यावहारिक ज्ञान नहीं मिलता। हमारी भारतीय शिक्षा प्रणाली में विद्यार्थी पूरी तरह शिक्षकों पर निर्भर रहते हैं। इस समय शिक्षक और छात्रों में ऑफलाइन संवाद नहीं है, न ही शिक्षक अपने सामने विद्यार्थी को उसकी कमियों पर काम करने और उनमें सुधार करने के ​लिए समझा सकता है। 
कक्षाएं तो लग रही हैं लेकिन उन कक्षाओं से विद्यार्थी ने कितना सीखा, इसका आकलन नहीं हो पा रहा। छात्र आत्मप्रेरित भी नहीं हैं। अगर छात्र खुद स्पष्ट हो कि उन्हें भविष्य में क्या करना है तभी वे ऑनलाइन शिक्षण से सीख सकते हैं लेकिन छात्र सिर्फ डिग्री लेने पर ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं। ऑनलाइन ​शिक्षा से संचार कौशल, आत्मविश्वास, अवलोकन कौशल, अनुशासन टीम भावना आदि कौशल विकसित नहीं हुए हैं। ऑनलाइन शिक्षा का अफसाना यह है की बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में लाॅकडाउन के दौरान पढ़ाई के लिए कुछ किया ही नहीं जबकि पंजाब, कर्नाटक, महाराष्ट्र में कुछ प्रयास किए गए। अब जबकि बड़ी कक्षाओं के स्कूल खोल  दिए गए हैं। महज स्कूल खोल देने से नुक्सान की भरपाई नहीं होगी। यह सुनिश्चित करना होगा कि सभी बच्चे स्कूलों में लौटें। बच्चों के हितों और नुक्सान की भरपाई के लिए सरकारों को कमर कसनी होगी। राज्य सरकारों को चाहिए कि सार्वजनिक शिक्षा के वित्त पोषण की हिफाजत करे और इसे प्राथमिकता दे।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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