किसी भी देश में लोकतांत्रिक सरकारों का यह दायित्व होता है कि वह जनकल्याण की नीतियों को प्राथमिकता दे और जन-जन के हितों की रक्षा के लिए काम करे। इतिहास गवाह है कि लोकतांत्रिक देशों में जब जनता खुद को ठगा हुआ महसूस करती है तो वह सड़कों पर उतर अाती है चाहे वे यूरोपीय देश हों या फिर एशियाई देश। फ्रांस में डीजल और पेट्रोल की बढ़ती कीमतों के विरोध में पिछले दो सप्ताह से विरोध-प्रदर्शन हो रहे थे लेकिन अंततः लोगों का आक्रोश हिंसा में बदल गया। पैरिस के शान एलिजे इलाके में पुलिस के बनाए बैरिकेड को तोड़ने का प्रयास कर रहे कुछ प्रदर्शनकारियों और पुलिस के बीच झड़प हो गई जिसके कारण वहां हालात बिगड़ गए। देखते ही देखते पैरिस में जगह-जगह आगजनी की गई। प्रदर्शनकारियों ने पटाखे और सड़क किनारे फुटपाथ से पत्थर निकाल कर पुलिस पर फैंके। लोगों ने इमैनुएल मैक्रों के इस्तीफे की मांग की।
फ्रांस में चलने वाली अधिकतर कारों में डीजल का इस्तेमाल किया जाता है। देश में बीते 12 महीनों में डीजल की कीमतें लगभग 23 फीसदी बढ़ गईं। कीमतों में औसत 1.61 डॉलर प्रति लीटर की दर से बढ़ौतरी हुई जो 2000 के बाद से अपने उच्चतम स्तर पर है। वैश्विक स्तर पर कच्चे तेल की कीमतें बढ़ गई थीं जिसके बाद वे फिर से कम हो गईं, लेकिन मैक्रों सरकार ने डीजल पर 7.6 सैंट प्रति लीटर का और पैट्रोल पर 3.9 प्रति सैंट का हाइड्रोकार्बन टैक्स लगाया। सरकार का यह कहना था कि उसने बिजली से चलने वाली कारों और स्वच्छ ईंधन अभियान के कहत यह कदम उठाया था। इसके बाद एक जनवरी, 2019 से डीजल की कीमतों पर 6.5 सैंट और पैट्रोल पर 2.9 सैंट की बढ़ौतरी करने का फैसला किया गया था। राष्ट्रपति मैक्रों ने यह भी कहा था कि अक्षय ऊर्जा में निवेश को बढ़ाने के लिए जीवाश्म ईंधन पर अधिक टैक्स लगाने की जरूरत है लेकिन इस पर पूरा फ्रांस उबल पड़ा। जगह-जगह प्रदर्शन हुए। फ्रांस जल उठा।
विरोध-प्रदर्शन में दो लोगों की मौत हो गई और 600 लोग घायल हो गए। अगर हम समूचे घटनाक्रम को भारत के संदर्भ में देखें तो जब पैट्रोल-डीजल की कीमतें लगातार बढ़ रही थीं तब लोगों का आक्रोश भी बढ़ रहा था। अक्सर लोग शिकायत करते देखे जाते थे कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में जब कच्चे तेल की कीमतें बढ़ती हैं ताे तेल कंपनियां रोज उपभोक्ताओं पर बोझ डाल देती हैं। जब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कीमतें गिरती हैं तो तेल कंपनियां उपभोक्ताओं को तुुरंत राहत नहीं देतीं और अपना मुनाफा कमाती रहती हैं। यह अच्छा ही हुआ कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें गिरीं और तेल कंपनियों ने भी रोजाना पैट्रोल और डीजल की कीमतें घटानी शुरू कर दीं जिससे लोगों काे राहत मिली और लोगों का आक्रोश कम होता गया।
जब से तेल की कीमतों पर सरकरी नियंत्रण कम हुआ है और उन्हें सीधे बाजार से जोड़ दिया गया है, तब से भारत के लोग कीमतों को लेकर सिर के बल खड़े हैं। जब पैट्रोल की कीमतें आम आदमी के पेट को रोलने लग जाती हैं तो हाहाकार मचता ही है। भारत के लोग काफी सहनशील हैं जिनका आक्रोश थोड़ी सी राहत से शांत हो जाता है। चुनावी वर्ष होने के कारण सरकार पर भी दबाव था और तेल कंपनियों पर भी। जहां तक फ्रांस का संबंध है राष्ट्रपति मैक्रों की पहचान दुनिया भर में बहुत तेजी से बनी थी लेकिन अब उनकी चमक अचानक मद्धम पड़ने लगी है। लगभग 19 महीने का कार्यकाल पूरा होने के बावजूद राष्ट्रपति मैक्रों आर्थिक वृद्धि और रोजगार के वादे को पूरा नहीं कर सके हैं और अपने ही मुल्क में लोकप्रियता खो रहे हैं। उनकी लोकप्रियता का आलम यह है कि वह समान अवधि में पूर्व राष्ट्रपति फ्रांस्वा औलांद और निकोलस सरकोजी की लोकप्रियता से भी काफी नीचे चले गए हैं।
मैक्रों जब सत्ता में आए थे तो उन्होंने राजनीति में बड़े बदलाव का वादा किया था। उन्होंने पिछड़े और निचले तबके के लोगों की राजनीति की बात की थी लेकिन उन्होंने इस दिशा में कोई काम नहीं किया। मैक्रों की सरकार का टैक्नोक्रेटिक बने रहना भी लोगों के आक्रोश का कारण बना। टैक्नोक्रेटिक यानी एक ऐसी सरकार जो देश के कुलीन लोगों के हितों का ज्यादा ध्यान रखती हो। फ्रांस के लोगों को आर्थिक वृद्धि में सकारात्मक कदमों की उम्मीद थी लेकिन मैक्रों इसमें नाकाम रहे। मैक्रों का कार्यकाल अभी साढ़े तीन साल बचा हुआ है। उनके पास देश की आर्थिक हालत को बदलने के लिए पर्याप्त समय है लेकिन देश के लोग उनकी नीतियों से नाराज हैं। लोग नए-नए टैक्सों को सहन नहीं कर पा रहे हैं।
सरकारें कोई भी हों, सरकारें वही अच्छी होती हैं जो जनता को राहत दें और लोग खुद को सहज महसूस करें। अंततः मैक्रों सरकार ने तेल पर लगाया अतिरिक्त कर 6 माह के लिए स्थगित कर दिया है। लोकतंत्र को बोझतंत्र नहीं बनाया जाना चाहिए। लोकतंत्र में कल्याणकारी राज्य की अवधारणा ही सफल होती है। हालात चाहे कुछ भी हों जनता अपने लिए सरल जीवन चाहती है। कोई भी सरकार देश काे लाभ-हानि के मापदंड से कंपनी की तरह नहीं चला सकती। चुनी हुई सरकारों को जनहित में काम करना ही होता है। फ्रांस सरकार ने जनभावनाओं के दबाव में कर वापिस लेकर समझदारी वाला काम किया है। अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए अब उसे अन्य विकल्पों को अपनाना होगा।