आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट यानी अफस्पा भारतीय संसद ने 1958 में लागू किया था, जो एक तरह से फौजी कानून है, जिसे उपद्रवग्रस्त घोषित क्षेत्रों में लागू किया गया। अफस्पा अशांत क्षेत्रों में सुरक्षा बलों को बिना किसी पूर्व नोटिस के किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने और ऑपरेशन चलाने की विशेष इजाजत देता है। अफस्पा को 1 सितम्बर, 1958 को असम, मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम आैर नागालैंड सहित भारत के उत्तर पूर्व में लागू किया गया था। जम्मू-कश्मीर में आतंकवादी हिंसा पर काबू पाने के लिए इसे लागू किया गया। विभिन्न धार्मिक, नस्लीय, भाषाई, क्षेत्रीय समूहों, जातियों, समुदायों के बीच मतभेद या विवादों के कारण राज्य या केन्द्र सरकार किसी क्षेत्र को अशांत घोषित करती है तो अफस्पा के अधिकार के तहत सशस्त्र बलों के पास शक्ति होती है कि वह राज्य में चेतावनी के बाद यदि कोई व्यक्ति कानून तोड़ता है और अशांति फैलाता है तो सशस्त्र बल के विशेष अधिकार द्वारा आरोपी की मृत्यु हो जाने तक अपने बल का प्रयोग कर सकते हैं।
सशस्त्र बल किसी भी संदिग्ध व्यक्ति को बिना किसी वारंट के गिरफ्तार कर सकते हैं। किसी भी परिवार के किसी व्यक्ति, सम्पत्ति, हथियार या गोला-बारूद बरामद करने के लिए बिना वारंट के अन्दर घुसकर तलाशी ले सकते हैं। देश 1958 से लेकर 2018 तक पहुंच गया लेकिन हम आज भी अफस्पा हटाने या नहीं हटाने को लेकर बहस में उलझे हुए हैं। पूर्वोत्तर राज्यों में जहां विद्रोही गतिविधियां अब शांत हो गई हैं, वहां से अफस्पा हटाया गया है या फिर आंशिक रूप से हटाया जा रहा है। जैसे मेघालय से इसे पूरी तरह हटा लिया गया है। अरुणाचल आैर असम में इसका प्रभाव क्षेत्र सीमित किया गया है। इस कानून का विरोध करने वालों में मणिपुर की सामाजिक कार्यकर्ता इरोम शर्मिला भी थीं, जिसने 16 वर्षों तक अनशन किया। उनके विरोध की शुरूआत सुरक्षा बलों की कार्यवाही में कुुछ निर्दोष लोगों के मारे जाने की घटना से हुई। 80 के दशक में राष्ट्रविरोधी तत्वों का खात्मा करने के लिए तत्कालीन इन्दिरा गांधी सरकार ने इस कानून को पंजाब में भी लागू किया था आैर पंजाब में शांति स्थापना के बाद इस कानून को वापस ले लिया गया। पूर्वोत्तर राज्यों आैर जम्मू-कश्मीर से बार-बार अफस्पा हटाने की मांग की जाती है।
सवाल उठ रहा है कि उठ रहे स्वरों के बीच अफस्पा कानून पर क्या अब देश में बहस जरूरी हो गई है? अगर किसी क्षेत्र की जनता साबित करती है कि वह शांति कायम रख सकती है तो केन्द्र द्वारा अफस्पा को हटाया जाना जरूरी आैर पूरी तरह से सही कदम होगा लेकिन साथ ही सवाल यह भी है कि क्या आतंकवाद और विद्रोही गतिविधियों से जूझ रहे जवानों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए इसे हटाना सम्भव है? मेघालय का उदाहरण ले लीजिये, 27 वर्ष तक अफस्पा लागू रहा तब जाकर विद्रोही गतिविधियां शांत हो सकी हैं। क्या कश्मीर घाटी से अफस्पा हटा लिया जाना चाहिए? यह सही है कि जिन क्षेत्रों में अफस्पा लागू है वहां कुछ मामलों में ज्यादतियां भी हुई हैं। अब सेना के 356 जवान और अधिकारी अपने हितों को सुरक्षित किए जाने की गुहार को लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंचे हैं। याचिका में मांग की गई है कि देश की सुरक्षा के लिए अफस्पा के तहत कर्त्तव्य निर्वहन में किए गए कार्य के लिए उनके खिलाफ आपराधिक कार्रवाई या उनका उत्पीड़न न किया जाए। सुप्रीम कोर्ट 20 अगस्त को इस पर सुनवाई करेगा।
याचिका में कहा गया है कि अफस्पा के तहत सेना के जवान देश में आतंकवाद और छद्म युद्धों को रोकने के लिए लड़ाई लड़ते हैं। ऐसे में अफस्पा प्रोटेक्शन के तहत सशस्त्र बलों के अधिकारों में कमी किया जाना देश की सुरक्षा के लिए खतरा हो सकता है। अफस्पा कानून में संशोधन िकए बिना सैन्य अधिकारियों के खिलाफ किसी तरह की कार्रवाई नहीं की जा सकती। सैन्य अफसरों, जवानों के खिलाफ आपराधिक कार्रवाई करने के लिए केन्द्र सरकार की अनुमति की जरूरत होती है। अपने कर्त्तव्य निर्वहन और देश की सम्प्रभुत्ता आैर सुरक्षा कायम रखने के लिए जवान अपनी जान न्यौछावर करने से भी नहीं हिचकते। उनके आैर उनके सहयोगियों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज कर कार्रवाई की जा रही है, जिस कारण जवानों को शीर्ष अदालत में जाना पड़ा। ऐसे में अगर सेना को संरक्षण नहीं दिया गया तो देश की सुरक्षा आैर सम्प्रभुत्ता को खतरा है। पिछले वर्ष सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ऐसे इलाकों में जहां अफस्पा लागू है, वहां भी सीबीआई और पुलिस सशस्त्र बलों के खिलाफ मामला दर्ज कर सकती है। सुप्रीम कोर्ट मणिपुर में फर्जी मुठभेड़ों के मामले में सुनवाई कर रही थी। कोर्ट ने सभी मुठभेड़ों की जांच के निर्देश दिए थे।
घाटी में एक पत्थरबाज को जीप से बांधकर अपने साथियों की जान बचाने वाले मेजर गोगोई के खिलाफ कितनी आवाजें उठी थीं। विषम हालात में अपने साथियों की जान बचाने वालों के विरुद्ध पुलिस में प्राथमिकी दर्ज की गई थी। शोपियां में पथराव कर रही भीड़ को सेना द्वारा तितर-बितर करने के दौरान तीन लोगों की मौत के बाद जम्मू-कश्मीर सरकार द्वारा मेजर आदित्य के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गई थी। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने उनके पिता की याचिका पर मेजर आदित्य के विरुद्ध कार्रवाई रोक दी थी। स्वतंत्रता दिवस के मौके पर इसी मेजर आदित्य को शौर्य चक्र से सम्मानित किए जाने की घोषणा की गई। उनके साथ राइफल मैन आैरंगजेब को मरणोपरांत शौर्य चक्र देने की भी घोषणा की गई है। यह कितना बड़ा विरोधाभास है कि एक तरफ हम असाधारण वीरता का सम्मान करते हैं, दूसरी तरफ ऐसे जवानों के खिलाफ पुलिस कार्रवाई करती है। यह सही है कि अफस्पा कानून का दुरुपयोग भी हुआ है, इन्हें अपवाद ही माना जाना चाहिए। हमारे समर्पित सैन्य अधिकारी और जवान शूरवीर अैर देशभक्त होने के बावजूद हैं तो इन्सान ही। विषम परिस्थितियों में उनसे भी गलतियां हो सकती हैं। यह अधिनियम भारतीय सशस्त्र बलों के लिए सुरक्षा कवच है। क्रूर आतंकवादी गतिविधियों के चलते हमारे असंख्य जवान शहादतें दे चुके हैं। उम्मीद है कि शीर्ष अदालत और केन्द्र सरकार बहुत संजीदा ढंग से फैसला लेंगी।