12 मई को मेरे दादा अमर शहीद रमेश चन्द्र जी का बलिदान दिवस है। 12 मई की पूर्व संध्या पर पूजनीय पिता श्री अश्विनी कुमार अपनी कलम लेकर बैठ जाते थे और कुछ क्षण में भावुक हो जाते थे। पितामह को स्मरण करते हुए वह सम्पादकीय लिखा करते थे और उन्हें भावांजलि अर्पित करते थे। जीवन भर उन्होंने एक महान व्यक्तित्व का पुत्र होने के नाते अपने सारे दायित्व निभाये।
पिता जी मुझे अक्सर पंजाब के काले इतिहास के बारे में बताते थे कि किन-किन परिस्थितियों में मेरे परदादा लाला जगत नारायण जी और फिर दादा रमेश चन्द्र जी को अपना बलिदान देना पड़ा। पिता जी के इसी वर्ष अवसान के बाद अब मुझे पितामह के बलिदान दिवस पर लिखने का दायित्व निभाना पड़ रहा है। पूजनीय पिता जी और मां किरण जी ने मुझे कई बार बताया कि दादा रमेश चन्द्र जी के बलिदान दिवस 12 मई के दो दिन बाद मेरी आयु दो वर्ष की होने वाली थी।
दादा जी ने आकर मुझे बाहों में उठाया, मुझ पर स्नेह उड़ेला और वह मुझे अपने साथ ले गए। दो वर्ष के बच्चे को क्या पता था कि वह जिस व्यक्तित्व की बाहों में खेल रहा है, वह राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए अपने प्राणों की आहूति दे देगा। मुझे इस बात का अहसास अब पिता जी के निधन के बाद हो रहा है कि मैं दादा के स्नेह से भी वंचित रहा और अब पिता जी की छाया भी मुझ पर और मेरे छोटे भाइयों अर्जुन और आकाश पर नहीं रही। मेरी मां अक्सर कहा करती हैं कि भारत अपनी संस्कृति और सभ्यता के लिए प्राचीन समय से ही मशहूर रहा है।
हमारे जीवन में रिश्तों का बहुत महत्व रहा है। यहां के संयुक्त परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी सभ्यता और संस्कृति के संवाहक रहे हैं। तमाम रिश्ते-नातों की मोतियों रूपी वरमाला में पिरोये संयुक्त परिवार हमेशा ही आकर्षण और शोध का विषय रहे हैं लेकिन अफसोस अब संयुक्त परिवार टूट गया, रिश्तों में कोई आकर्षण बचा ही नहीं। जालंधर से दिल्ली तक का सफर मेरे परिवार के लिए नए बदलाव का सूत्र था।
मैं आतंकवाद के दौर में बड़ा हुआ हूं। परिवार और मैं चारों तरफ पुलिस और ब्लैक कैट कमांडो के संरक्षण और किसी भी क्षण प्राणों से हाथ धो बैठने की दहशत में जिये। मुझे मां अक्सर भीगी आंखों से बताती है कि मुझे नर्सरी स्कूल में एडमिशन देने के लिए इंकार कर दिया गया था क्योंकि मेरे साथ सिक्योरिटी के कारण दूसरे स्कूली बच्चों को परेशानी हो सकती थी इसलिए मैंने तीसरी कक्षा तक घर में ही पढ़ाई की।
जब स्कूल जाना शुरू हुआ तो भी स्कूल जाना भी पुलिस संरक्षण में और आना भी पुलिस संरक्षण में। उन दिनों खुली हवा में सांस लेना भी दूभर रहता था। भयावह परिस्थितियों में भी पिता अश्विनी कुमार और मां किरण जी बिखराव और टूटन का शिकार नहीं हुई। मैंने देखा कि विपरीत हालात में उन्होंने जिन्दगी को कैसे जिया।
जिन्दगी के तूफानों को झेलते हुए पिता जी जब अपने कमरे में मेरे बच्चों से खेलते, मुस्कराते, उसे देखकर मैं महसूस करता रहा कि दादा का अपने पौत्र से कितना स्नेह होता है, उस स्नेह से मैं काफी दूर रहा। पिता जी की टेबल पर मेरे दादा की छोटी डायरी हमेशा पड़ी रहती थी, वह आज भी पड़ी हुई है। पिता जी अक्सर उसी डायरी के पन्ने खोल कर देखा करते थे और फिर उसे रख देते थे।
मैंने भी उस छोटी डायरी को खोला तो उस पर श्रीमद्भागवत गीता, गुरुवाणी और रामायण की पंक्तियां अंकित थी। स्वयं अपने पूर्वजों के बारे में लिखना कठिन होता है परन्तु मेरे परदादा और दादा उस इतिहास का हिस्सा हैं जो इतिहास हमें स्कूली पुस्तकों में पढ़ाया ही नहीं गया। जो मुझे परिवार और पत्रकारिता के इतिहास से जानकारी मिली मैं उतना ही समझ पाया। वह उन षड्यंत्रों का शिकार हुए जो हर संत पुरुष की नियति है जो राजनीति में आ जाए।
पंजाब की पूरी की पूरी राजनीति भारत की स्वाधीनता से 30 वर्ष पहले और पितामह रमेश चन्द्र जी की शहादत तक उन्हीं के इर्दगिर्द घूमती रही। परदादा लाला जगत नारायण जी की शहादत के बाद पंजाब आतंकवाद के कारण धू-धू जल रहा था। उन्माद की काली छाया पंजाब को लील लेना चाहती थी। खबरनामे इस बात का गवाह हैं कि इटैलीजैंस और सुरक्षा एजैंसियां, किस-किस ने नहीं कहा कि रमेश जी आप स्वयं को सुरक्षित रखें, बाहर न जाएं।
आप फिक्र करें, विध्वंसक शक्तियां सत्य और असत्य की गरिमा को नहीं पहचानती लेकिन दादा जी ने हिन्दू-सिख एकता को कायम रखने, राष्ट्र की एकता और अखंडता का संकल्प लेकर लेखनी को बेरोक चलाये रखा। उनकी शहादत इसलिए महान और गौरवशाली बन गई क्योंकि उनकी कलम न बिकी न ही गोलियों की धमक से कभी रुकी।
आतंकवाद का कड़ा विरोध करते समय वह कलम लेकर अग्निपथ पर चले, जिसका परिणाम शहादत ही थी। मुझे इस बात का स्वाभिमान है कि मैं उस परिवार से हूं जिसके दो पुरोधाओं ने अपने जीवन होम कर दिए। मैं दादा जी को नमन करते हुए ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि मुझे पिता अश्विनी कुमार जी की तरह सत्य के अग्निपथ पर चलने की शक्ति और ऊर्जा प्रदान करें। परिवार का जीवन तो बस ऐसा ही है।
जिये जब तक लिखे खबरनामे,
चल दिए हाथ में कलम थामे।