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राज्यसभा में ‘कृषि’ परीक्षण!

विवादास्पद तीनों कृषि सम्बन्धी विधेयकों के लोकसभा में पारित होने के बाद अब रविवार को इन्हें राज्यसभा में पेश किया जायेगा

विवादास्पद तीनों कृषि सम्बन्धी विधेयकों के लोकसभा में पारित होने के बाद अब रविवार को इन्हें राज्यसभा में पेश किया जायेगा, जहां सत्तारूढ़ भाजपा सरकार की अग्नि परीक्षा होगी क्योंकि इस 245 सदस्यीय सदन में भाजपा व इसके सहयोगी दलों की कुल सदस्य संख्या 116 ही है परन्तु इस सदन में बीजू जनता दल, तेलंगाना राष्ट्रीय समिति व आंध्र प्रदेश की वाईएसआर कांग्रेस के 22 सांसद हैं जो संकटकालीन समय में सरकार का साथ देते आ रहे हैं। अतः यह देखना काफी दिलचस्प होगा कि खेती से जुड़े विधेयकों पर इन तीनों दलों का रुख क्या रहता है क्योंकि कमोबेश इन तीनों ही दलों का जनाधार गांव और किसानों से जुड़ा हुआ है। यह भी हकीकत है कि इन तीनों दलों का उदय भी मूल रूप से उस कांग्रेस पार्टी से ही हुआ है जो इन विधेयकों के सख्त खिलाफ है। कृषि क्षेत्र को लेकर जो विवाद हम देख रहे हैं उसके मूल में आज की सत्तारूढ़ भाजपा पार्टी व मुख्य विरोधी पार्टी कांग्रेस के बीच इस क्षेत्र को लेकर परस्पर तीव्र विरोधी अवधारणा है। इसके तार अर्थव्यवस्था के उस मूल स्वरूप से जाकर जुड़ते हैं जिसे आजादी के बाद भारत की पहली सरकार ने अपनाया। यह मिश्रित अर्थ व्यवस्था थी जिसे ‘नेहरूवाद’ का नाम दिया गया जबकि नेहरू मन्त्रिमंडल से ही इस्तीफा देकर 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना करने वाले डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अपनी पार्टी के मूल घोषणापत्र में आर्थिक नीतियों पर सीधा विपरीत रुख अपनाते हुए लिखा कि भारत में कृषि को उद्योग का दर्जा दिया जाना चाहिए और समूची अर्थव्यवस्था खुले बाजार मूलक मानकों से चलनी चाहिए। 
वास्तव में 1991 में स्व. नरसिम्हा राव के जमाने में वित्त मन्त्री के तौर पर डा. मनमोहन सिंह ने जो आर्थिक नीतियां शुरू कीं वे जनसंघ के घोषणापत्र के सूत्रों से ही बन्धी थी। भारतीय राजनीति में जनसंघ को अमेरिका के निकट और कांग्रेस को सोवियत संघ के निकट इन्हीं आर्थिक विचारों की वजह से भी कहा गया क्योंकि जनसंघ अमेरिका की भांति पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की वकालत करता था और कांग्रेस सोवियत संघ की भांति अर्ध समाजवादी अर्थव्यवस्था की। यही वजह थी कि पचास के दशक में जब पं. जवाहर लाल नेहरू ने भारत में भी सोवियत रूस की भांति सहकारिता खेती का विचार कांग्रेस महाधिवेशन में रखा तो चौधरी चरण सिंह ने उसका कड़ा विरोध करते हुए कहा कि ‘भारत में किसान जमीन को अपनी मां मानता है। वह उसे किसी दूसरे के साथ सांझा हरगिज नहीं कर सकता।’ पं. नेहरू चौधरी चरण सिंह के विचारों से अन्ततः सहमत हुए और इतिहास में दर्ज हो गया कि कांग्रेस पार्टी के भीतर लोकतन्त्र इस हद तक था कि उत्तर प्रदेश  का एक साधारण विधायक भी प्रधानमन्त्री को वैचारिक स्तर पर सीधी चुनौती दे सकता था, परन्तु 1967 तक जनसंघ के हर घोषणापत्र में खेती को उद्योग का दर्जा देने की मांग निरन्तर चलती रही और इस क्षेत्र में निजी पूंजी निवेश के मार्ग खोजने की वकालत की जाती रही।
 1971 में जब भारत में स्व. इन्दिरा गांधी की ‘नई कांग्रेस’ पार्टी अपने उग्र समाजवादी तेवरों के साथ लोकसभा में धमाकेदार तरीके से जीती तो विपक्ष ने कृषि क्षेत्र के सम्बन्ध में अपने रुख में परिवर्तन लाना शुरू किया, परन्तु वक्त बदला और प्रधानमंत्री के तौर पर नरसिम्हा राव आर्थिक मोर्चे पर देश को मजबूत करने की दिशा में नए प्रयोग करते भी नजर आए।
आज मोदी सरकार हर किसान के लिए सम्भावनाओं के अवसर तलाश रही है, जिससे ये तीनों कृषि विधेयक जुड़े हैं जो लोकसभा में पारित हो चुके हैं। सरकार किसानों में आपसी ऊंच-नीच खत्म कर समानता लाने के प्रयास कर रही है ताकि किसानों को उनकी फसल की उचित कीमत मिल सके।
मोदी सरकार किसानों को ठेकों के जाल से बचाकर बाहर निकाल कर उम्मीदों के द्वार खोल रही है। खुद पीएम मोदी जी ने दो दिन पहले लोकसभा में सारी स्थिति स्पष्ट कर दी है और कृषि विधेयकों की उपयोगिता देश के सामने रख दी है। विवाद से ऊपर सबसे बड़ा सवाल खाद्यान्न व अन्य फसलों की जमाखोरी का भी है क्योंकि एक बार किसानों की फसल की खरीद करने के बाद उनके भंडारण की सीमा पर राज्य सरकारों का नियन्त्रण खत्म हो जायेगा और पूंजीपति या कम्पनी अपने हिसाब से खुले बाजार में माल व सप्लाई के समीकरण बनायेंगे। जिससे भावों पर सरकार का नियन्त्रण नहीं रहेगा क्योंकि सरकारी एजेंसियों जैसे भारतीय खाद्य निगम आदि पर न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानों की उपज खरीदने का प्रतिबन्ध स्वतः ही हल्का होता चला जायेगा। यह तय है कि नए कृषि विधेयक ​किसानों के लिए बेहद कारगर सिद्ध होंगे।
दरअसल हमें ऐसे आर्थिक सिद्धान्त की जरूरत है जो मूलतः भारत की मिट्टी से उपजा हुआ हो। इस बारे में आचार्य चाणक्य के अर्थशास्त्र के उस भाग का ध्यान से अध्ययन किया जाना चाहिए जिसमें राजा और किसान के बीच के सम्बन्धों का वर्णन है।

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