वाजपेयी सरकार के जमाने में जब विनिवेश मन्त्री के औहदे पर बैठे हुए अरुण शौरी देश की बहुमूल्य सम्पत्ति को कौडि़यों के दाम बेच रहे थे तो पूरे देश में सन्देश चला गया था कि सरकार जनता की गाढ़ी कमाई से खड़ी की गई कम्पनियों और औद्योिगक प्रतिष्ठानों को सफेद हाथी बता कर निजी उद्योगपतियों के हाथों में बेचने की तरकीब भिड़ा रही है और नाम आर्थिक उदारीकरण का दे रही है।
मगर वाजपेयी की एनडीए सरकार ने तब सारी सीमाएं लांघ डाली थीं जब छत्तीसगढ़ स्थित भारत अल्युमीनियम कम्पनी (बाल्को) की अथाह सम्पत्ति को मात्र साढ़े तीन सौ करोड़ रु. के लगभग में बेच डाला था। इतनी कीमत का तो इस आैद्योगिक प्रतिष्ठान का तब अपना बिजलीघर ही था। तब हमारी इसी संसद में कई दिन तक इस मामले पर गंभीर वाद- विवाद हुआ था।
मुझे अच्छी तरह याद है कि तब लोकसभा में विपक्षी पार्टी कांग्रेस के मुख्य सचेतक स्व. प्रिय रंजन दास मुंशी ने वाजपेयी सरकार को चुनौती दी थी कि वह सरकारी प्रतिष्ठानों को बेचने के एेसे तरीके अपना रही है जिससे उन उद्योगपतियों को लाभ हो सके जो सत्ताधारी पार्टी के पसंदीदा हैं। श्री मुंशी ने तब ताल ठोक कर कहा था कि भारत के विकास में सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों की भूमिका को कम करके नहीं देखा जा सकता। इन प्रतिष्ठानों को खड़ा करने में देश की जनता के खून–पसीने की कमाई लगी हुई है।
मगर यह एेसी सरकार है जिसने सार्वजनिक सम्पत्ति की बिक्री के लिए अलग से मन्त्री बनाया है और मंत्रालय गठित कर दिया है। श्री मुंशी ने लोकसभा के भीतर ही विदेश संचार निगम लि. को बेचने का भी पर्दाफाश कर डाला था और श्री शौरी पर आरोप लगाया था कि वह इस लाभ में चलने वाली कम्पनी को बीमार बनाने पर तुले हुए हैं और पूंजी बाजार में इसके शेयरों के भाव कम रहने के अवसर पर इसे बेचना चाहते हैं।
मगर मौजूदा दौर में बड़ी शान से जो फैसले हो रहे हैं वे भारत के लोगों का संस्थागत रोजगार छीनने और पूरे मुल्क को ठेके पर रखे जाने की तरफ ले जा रहे हैं। हाल ही में सरकार ने फैसला किया कि किसी भी विभाग में ठेके पर कर्मचारियों को रखे जाने की छूट होगी। अहम मसले राजनीति में इस कदर उलझ गए हैं। यह काेई नहीं बताता कि पिछले पांच वर्षों से भी अधिक समय से चली आ रही रेलवे में तीसरी व चौथी श्रेणी की रिक्तियां कब भरी जाएंगी? अकेले रेलवे विभाग में ही पिछले 15 साल में इन श्रेणियों की रिक्तियां घिस–घिस कर साढ़े तीन लाख से एक लाख बीस हजार कर दी गई हैं और उन्हें भी भरने के नाम पर रेल मन्त्री ने कहा था कि इनमें से केवल आधी रिक्तियां ही भरी जाएंगी।
मगर सरकार देश की सबसे बड़ी और प्रमुख एयर लाइन एयर इंडिया का भी निजीकरण करने जा रही है। इसके 76 प्रतिशत शेयर बेचने का सरकार का इरादा है। क्या कोई पूछ सकता है कि एयर इंडिया ने घाटे में चलना क्यों शुरू किया? इसका ठीकरा बड़ी आसानी के साथ सार्वजनिक कम्पनियों में व्याप्त नौकरशाही पर फोड़ दिया जाता है और इनके कर्मचारियों को अकर्मण्य बता दिया जाता है परन्तु हम भूल जाते हैं कि देश में जितने भी पूंजीमूलक तथा औद्योगिक प्रतिष्ठान हैं, वे यदि पं. नेहरू की सरकार से लेकर इंदिरा जी की सरकार के दौरान न कड़े किए गए होते तो हम आज उन उन्नत देशों के गुलाम होते जिन्हें विकसित देश कहा जाता है।
अमरीका ने तो पं. नेहरू को भारत में स्टील कारखाना स्थापित करने में मदद देने से साफ इंकार कर दिया था और कहा था कि इतने पूंजीमूलक उद्योग की स्थापना करना उसके बस की बात नहीं है। भारत को अमरीका से स्टील का आयात कर लेना चाहिए। यह सलाह पं. नेहरू को अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनहावर ने दी थी। तब नेहरू जी सोवियत संघ के पास गए थे। कहने का मतलब इतना सा है कि हम जिस निजीकरण की अन्धाधुंध मृग मारीचिका के पीछे दौड़ रहे हैं उसका लक्ष्य केवल मुनाफा कमाना होता है ।
उसका सरोकार न तो सामाजिक विकास से होता है और न राष्ट्रीय विकास से। यदि भारत ने बड़े-बड़े उद्योग सार्वजनिक क्षेत्र में स्थापित न किए होते तो पूरे देश में मध्यम और लघु उद्योगों का जाल किसी भी स्तर पर न फैल पाता। भारत के हवाई अड्डों का ढांचा यदि खुद सरकार खड़ा न करती तो क्या हम निजी एयरलाइनों की कल्पना तक कर सकते थे? यदि मारुति कार कम्पनी ही भारत में मंझौली कारों का बाजार न बनाती तो हम क्या आज इस देश को कार उत्पादन का केन्द्र बना सकते थे? हवाई सेवाओं का सम्बन्ध हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा से भी बन्धा रहता है।
हम देख चुके हैं कि हमारे सार्वजनिक बैंकों की भूमिका भारत के ग्रामीण इलाकों के आर्थिक विकास में कितनी महत्वपूर्ण रही है। मगर आज इस पर भी नीतिगत तरीके से हमला हो रहा है। हम भूल रहे हैं कि अमेरिका की किसी बड़ी कम्पनी का वार्षिक कारोबार भारत के साल भर के बजट से भी ज्यादा का होता है।
हम अपनी आर्थिक आजादी को इस तरह नीलाम नहीं कर सकते कि सब कुछ विदेशी निवेश पर ही निर्भर हो जाए। यह दकियानूसी विचार नहीं है बल्कि राष्ट्रहित का राष्ट्रीय विचार है मगर दिक्कत यह रही है कि खुद को राष्ट्रवादी कहने वाले लोग आर्थिक हितों को निजी पूंजीपतियों के हाथों में गिरवी रखने की वकालत करते रहे हैं। यह जबर्दस्त विरोधाभास भारत की राजनीति में रहा है। एयर इंडिया भारत की आर्थिक उड़ान का साक्षी रही है। यह भारत के लोगों की ही सम्पत्ति है।