लोकसभा चुनाव 2024

पहला चरण - 19 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

102 सीट

दूसरा चरण - 26 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

89 सीट

तीसरा चरण - 7 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

94 सीट

चौथा चरण - 13 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

96 सीट

पांचवां चरण - 20 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

49 सीट

छठा चरण - 25 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

सातवां चरण - 1 जून

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

लोकसभा चुनाव पहला चरण - 19 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

102 सीट

अकाली : ‘जो बोले सो निहाल’

शिरोमणि अकाली दल ने भाजपा के साथ किसानों के मुद्दे पर जिस तरह अपना 23 वर्ष पुराना गठबन्धन खत्म किया है उसे भारतीय राजनीति का अत्यन्त महत्वपूर्ण घटनाक्रम माना जायेगा क्योंकि पिछले पांच दशकों में राष्ट्रीय राजनीति में जिस तरह क्षेत्रीय दलों की महत्ता बढ़ी है

शिरोमणि अकाली दल ने भाजपा के साथ किसानों के मुद्दे पर जिस तरह अपना 23 वर्ष पुराना गठबन्धन खत्म किया है उसे भारतीय राजनीति का अत्यन्त महत्वपूर्ण घटनाक्रम माना जायेगा क्योंकि पिछले पांच दशकों में राष्ट्रीय राजनीति में जिस तरह क्षेत्रीय दलों की महत्ता बढ़ी है उसमें अकाली दल की अग्रणी भूमिका रही है। 1967 के आम चुनावों में जब देश के नौ राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारों का गठन हुआ था तो पंजाब में अकाली दल ने प्रमुख भूमिका निभाते हुए भारतीय जनसंघ (भाजपा) के साथ गठजोड़ करके स्व. गुरुनाम सिंह के नेतृत्व में सरकार बनाई थी जिसमें जनसंघ की तरफ से श्री बलराम जी दास टंडन उद्योग मन्त्री और डा. कृष्ण लाल वित्त मन्त्री बने थे। यह सरकार बेशक अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई थी मगर अकाली-जनसंघ गठजोड़ अटूट रहा और जब 1969 में राज्य में मध्यावधि चुनाव हुए तो पुनः यही गठजोड़ सत्तारूढ़ हुआ, परन्तु 1971 की इंदिरा लहर में लोकसभा चुनावों में यह गठजोड़ बुरी तरह परास्त हुआ जिसके बाद इस राज्य में कांग्रेस पार्टी पुनः प्रभाव में आई।  यह अकाली-भाजपा गठजोड़ तब से लेकर अब तक लगातार पंजाब में कांग्रेस पार्टी के खिलाफ मजबूत विकल्प के तौर पर इस प्रकार रहा कि राज्य में किसी तीसरे दल को पैर जमाने की इजाजत मतदाताओं ने नहीं दी (केवल पिछले चुनावों को छोड़ कर जिनमें आम आदमी पार्टी को छिटपुट सफलता प्राप्त हुई ) परन्तु केन्द्र में बनी लगभग सभी भाजपा नीत सरकारों में सक्रिय भूमिका निभाने वाले अकाली दल ने अब कृषि क्षेत्र में बदलाव के ​लिए लाये गये संसद में पारित विधेयकों के मुद्दे पर भाजपा का साथ छोड़ने की घोषणा कर दी है। पहले संसद में ये विधेयक पारित होने से पहले इस दल की मन्त्री हरसिमरत बादल ने इस्तीफा दिया और बाद में शनिवार की रात्रि को इस पार्टी के शीर्षस्थ नेताओं ने सत्तारूढ़ एनडीए से भी अलग होने की घोषणा कर दी। जाहिर है कि किसानों का मुद्दा अकाली दल के लिए जीवन-मरण का प्रश्न है क्योंकि पंजाब में इस पार्टी का जनाधार खेतीहर जनता ही है जो इन विधेयकों के विरोध में सड़कों पर उतर कर आन्दोलन कर रही है और अपना रोष प्रकट कर रही है। हालांकि कांग्रेस पार्टी का कहना है कि अकाली दल ने यह कदम बहुत देर से तब उठाया है जब उसने देख लिया कि पंजाब की जनता कृषि विधेयकों को किसी भी तौर पर स्वीकार नहीं करेगी वरना इस दल की मन्त्री हरसिमरत बादल को उसी दिन इस्तीफा देकर एनडीए से अलग हो जाना चाहिए था जिस दिन सरकार ने इन विधेयकों को अध्यादेशों के रूप में जारी किया था। हालांकि केन्द्र में सत्तारूढ़ मोदी सरकार को अकाली दल के अलग होने से कोई फर्क नहीं पड़ता है क्योंकि लोकसभा में भाजपा को अपने बूते पर ही पूर्ण बहुमत प्राप्त है मगर इसका असर सरकार की सर्वग्राह्यता पर जरूर पड़ता है। राज्यसभा में हमने देखा कि इन विधेयकों पर भाजपा के हमदर्द समझे जाने वाले बीजू जनता दल व तेलंगाना राष्ट्रीय समिति के सदस्यों ने किस प्रकार खुलकर विपक्ष की विधेयकों को प्रवर समिति को भेजे जाने की वकालत की। इसका आशय यही निकाला जा सकता है कि आन्ध्र प्रदेश की वाईएसआर कांग्रेस व बिहार की जनता दल (यू) पार्टी को छोड़ कर देश के सभी क्षेत्रीय दल इन विधेयकों के विरोध में हैं। यह तथ्य सत्तारूढ़ दल को परेशान करने वाला है क्योंकि लोकसभा  चुनावों में भाजपा की रणनीति एनडीए के सदस्य दलों के अलावा अन्य क्षेत्रीय दलों के साथ कमोबेश सहयोगात्मक रुख अपनाते हुए चुनाव लड़ने की रही है बेशक तृणमूल कांग्रेस व द्रमुक जैसे क्षेत्रीय दलों के साथ इसका टेढ़ा आंकड़ा रहा है मगर कुल मिलाकर उत्तर-पूर्वी राज्यों तक भाजपा की रणनीति यही रही है। अकाली दल का इसके खेमे से बाहर जाना अन्य क्षेत्रीय दलों में भी खतरे की घंटी सुना सकता है। वैसे पंजाब में अकाली-जनसंघ गठजोड़ का आधार समुदायगत गणित रहा है क्योंकि भाजपा के एकल राष्ट्रवाद के घेरे में अकाली दल शुरू से ही अचकचाता रहा है। इसकी वजह अकाली दल का वह उदार लोकतान्त्रिक इतिहास है जिसने इसे देश का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक क्षेत्रीय दल बनाया। हालांकि 80 के दशक के बाद से यह पार्टी भी अन्य क्षेत्रीय दलों की तरह परिवारवाद के दायरे में सिकुड़ती रही मगर इसका जनाधार कमोबेश रूप से कायम रहा। हाल ही में इसी पार्टी के नेता श्री एस.एस. ढींढसा ने जिस रह अपना अलग अकाली दल बनाया है वह इसी घटनाक्रम का नतीजा है लेकिन अकाली दल के भाजपा से अलग होने की प्रतिध्वनि  राष्ट्रीय राजनीति में इस प्रकार सुनाई पड़ सकती है कि किसानों का विरोध और व्यापक होता जाये। भाजपा के लिए यही सबसे ज्यादा चिन्तनीय विषय होगा क्योंकि अकाली दल का इतिहास यह भी है कि 1975 में जब स्व. इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लागू करके विपक्षी नेततों को जेल में बन्द किया था तो अकाली नेताओं को हाथ नहीं लगाया था और इनकी तरफ परोक्ष दोस्ती का हाथ ही बढ़ाया था मगर तब अकाली नेताओं ने इमरजेंसी के खिलाफ पूरे राज्य में जगह- जगह प्रदर्शन करके स्वैच्छिक गिरफ्तारियां दी थी। न्याय के पक्ष में डटकर खड़े होने का पंजाब का यह मूलभूत चरित्र इस पार्टी की रगों में आज भी दिखाई पड़ता है। बेशक पंजाब में लोकसभा की केवल 13 सीटें ही हैं परन्तु अखिल भारतीय स्तर पर देखें तो लगभग हर राज्य के आर्थिक-सामाजिक व राजनीतिक समीकरणों में आम पंजाबियों की भूमिका असरदार रहती है और अब तो इसका विस्तार अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक हो चुका है। अतः राष्ट्रीय राजनीति में पंजाब के विरोध को हल्के में नहीं लिया जा सकता।  बेशक अकाली दल के इस कदम के पीछे राज्य में कांग्रेस पार्टी से पिछड़ने का डर रहा हो क्योंकि यह पार्टी कृषि विधेयकों का सबसे उग्र विरोध कर रही है मगर हकीकत तो यही रहेगी कि अकाली दल मूलतः पंजाब के ग्रामीण परिवेश के किसानों की ही पार्टी है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

eight + 19 =

पंजाब केसरी एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है जो भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कई केंद्रों से प्रकाशित होता है।