अखिलेश की नजर तेलंगाना पर !

अखिलेश की नजर तेलंगाना पर !
Published on

पांच राज्यों में सम्पन्न चुनाव देश की राजनीति के लिए बहुत महत्वपूर्ण माने जा रहे हैं। आगामी 3 दिसम्बर को जब इनके चुनाव परिणाम आ जायेंगे तो साफ हो जायेगा कि इसके चार महीने बाद होने वाले लोकसभा चुनावों में देश की राजनीति कौन सी दिशा पकड़ेगी मगर इन्हें लोकसभा चुनावों का 'सेमिफाइनल' मानना भी बहुत बड़ी गलती होगी। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि राष्ट्रीय चुनावों में राजनीतिक मुद्दे पूरी तरह किसी दूसरे चक्र में खड़े नजर आयेंगे। लेकिन राज्य विधानसभा चुनावों से यह जरूर स्पष्ट हो जायेगा कि देश की राजनीति में प्रभावशाली समझे जाने वाले क्षेत्रीय दलों की स्थिति क्या होगी।
वैसे केवल मिजोरम व तेलंगाना में भी क्षेत्रीय दलों का राष्ट्रीय दल समझे जाने वाली पार्टियों भाजपा व कांग्रेस से मुकाबला है जबकि राजस्थान, मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ में ये दोनों राष्ट्रीय पार्टियां ही आमने- सामने टकरा रही हैं। इन तीनों राज्यों के चुनावों में भाजपा की कोशिश यह रही है कि वह अपनी प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस पार्टी को चुनावी मैदान में विभिन्न मुद्दे तैरा कर उलझा दे मगर कांग्रेस ने बड़ी होशियारी के साथ जिस प्रकार लोक कल्याणकारी राज के आवरण में अपनी गारंटियों को फेंका उन पर अन्ततः भाजपा को भी आना पड़ा। मगर भाजपा भली-भांति खास तौर पर प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी जानते हैं कि ये राज्यों के चुनाव हैं और इन चुनावों में कांग्रेस नेताओं की सभाओं में उमड़ी भीड़ को देख कर हार-जीत का अंदाजा लगा कर कांग्रेस पार्टी जिस खुशी के सैलाब में तैरना चाहती है वह लोकसभा चुनावों तक टिकने वाला नहीं है क्योंकि उन चुनावों में विपक्ष का 'इंडिया गठबन्धन' ही इसका सबसे बड़ा सिरदर्द बनने जा रहा है।
कांग्रेस को छोड़ कर इस गठबन्धन में शेष सभी क्षेत्रीय दल हैं जो लोकसभा चुनावों में अपनी पार्टी की तरफ से अधिक से अधिक प्रत्याशी उतारने की फिराक में रहेंगे। यह देखना बहुत दिलचस्प होगा कि तेलंगाना में इस बार चुनाव परिणाम क्या होगा क्योंकि इस राज्य में भाजपा का कोई खास प्रभाव नजर नहीं आ रहा है। इसी प्रकार मिजोरम में भी वहां की क्षेत्रीय पार्टी 'मिजो नेशनल फ्रंट' के अलावा एक और क्षेत्रीय पार्टी भी चुनावी मैदान में है। दोनों का मुकाबला कांग्रेस से है। तेलंगाना की भारत राष्ट्रीय समिति की चन्द्रशेखर राव की सरकार पिछले दस साल से सत्तारूढ़ है। यह देश का सबसे ताजा बना राज्य भी है क्योंकि इसका गठन 2014 में ही हुआ था। इसकी विधानसभा में कुल 119 सीटें हैं मगर भाजपा की केवल एक सीट ही पिछले 2018 के चुनावों में आयी थी। मगर राज्य में प्रधानमन्त्री मोदी और गृहमन्त्री अमित शाह ने कम समय के लिए ही मगर धुआंधार प्रचार किया है। इसकी वजह है।
भाजपा इस राज्य को दक्षिण के कर्नाटक की तरह ही अपनी प्रयोगशाला बनाना चाहती है क्योंकि पूरा राज्य हैदाराबद के पूर्व निजाम की ही रियासत है जिसके भारत में विलय का अपना रक्त-रंजित इतिहास भी है। इस राज्य में भाजपा अपनी हिन्दुत्व मूलक राष्ट्रवादी विचारधारा का प्रचार-प्रसार कर्नाटक की भांति ही करना चाहती है मगर वर्तमान चुनावों में वह कांग्रेस को रोकना भी चाहती है। अतः चन्द्रशेखर राव की दस साल की सत्ता के विरोध में उठे जन विमर्श में वह अपना हिस्सा बांटने की कोशिश में है। राजनीति में यह जायज प्रक्रिया है क्योंकि दुश्मन का दुश्मन ही अन्त में दोस्त हो सकता है। मगर तेलंगाना के चुनावों को उत्तर भारत का एक कुशाग्र समझे जाने वाला राजनीतिज्ञ 'अखिलेश यादव' बहुत दिचस्पी से देख रहा है। राजनीति में अक्सर सीधा गणित फेल हो जाता है।
तेलंगाना और उत्तर प्रदेश की राजनीति में कहीं कोई सीधा समीकरण नजर नहीं आता है मगर समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव के समीकरण एेसे राज्य से ही जाकर जुड़ते हैं। इसलिए नहीं कि वह चन्द्रशेखर राव के अच्छे मित्र हैं बल्कि इसलिए कि राव साहब की किस्मत से यादव साहब की किस्मत का सीधा सम्बन्ध है। यदि तेलंगाना में चन्द्रशेखर राव की पार्टी हार गई तो यह सिद्ध हो जायेगा कि कांग्रेस क्षेत्रीय दल को उसके ही गढ़ में घुस कर धराशायी कर सकती है जिसकी वजह से इंडिया गठबन्धन में अखिलेश यादव की स्थिति कमजोर हो जायेगी। अगर पुष्ट सूत्रों की माने तो यादव लोकसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी को अधिकतम 22 सीटें देकर गठबन्धन के हित में बहुत बड़ी 'कुर्बानी' देने को तैयार हैं। ये वे 22 सीटें हैं जिन्हें 2009 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने जीती थीं।
अखिलेश यादव के लिए एक मात्र राज्य उत्तर प्रदेश ही है जहां उनकी पार्टी अपना दम-खम दिखा सकती है। यह दम-खम वह अभी तक मुसलमानों के समर्थन के बूते पर ही दिखाती रही है लेकिन यदि तेलंगाना में कांग्रेस ने अपना झंडा लहरा दिया तो साफ हो जायेगा कि मुसलमानों का समर्थन राष्ट्रीय चुनावों में कांग्रेस के प्रति झुक जायेगा जिसकी वजह से अखिलेश यादव को अपना रुख ढीला करना पड़ेगा और कांग्रेस उन पर भारी पड़ जायेगी। तेलंगाना जीतने पर कांग्रेस में जो नया जोश पैदा होगा वैसा मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान जीतने पर नहीं हो सकता क्योंकि इन राज्यों में मुसलमानों की जनसंख्या बहुत कम है। इस समीकरण का प्रभाव सीधे तौर पर इंडिया गठबन्धन के अन्य क्षेत्रीय दलों जैसे तृणमूल कांग्रेस पर विशेष रूप से पड़ेगा। दूसरे भाजपा चाहती है कि तेलंगाना में चन्द्रशेखर राव विरोधी मतों को बांटा जाये। इससे गजब का समीकरण तेलंगाना में बन सकता है हालांकि इसकी उम्मीद कम नजर आती है क्योंकि इस राज्य में कांग्रेस की आंधी चलती हुई बताई जा रही है। वैसे भी तेलंगाना में भाजपा के पास कोई क्षेत्रीय नेतृत्व नहीं है। मगर इतना निश्चित है कि तेलंगाना के चुनाव परिणामों से इंडिया गठबन्धन के समीकरण प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकेंगे।
राज्यों के चुनावों में पिछले 2018 में भी भाजपा को कोई खास सफलता नहीं मिली थी। वह तेलंगना समेत उत्तर भारत के तीनों हिन्दी पट्टी के राज्यों में हार गई थी इसके बावजूद 2019 के लोकसभा चुनावों में उसने प्रधानमन्त्री मोदी की लोकप्रियता के बूते पर कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया था। कांग्रेस नेता राहुल गांधी जिस जातिगत जनगणना की बात करके भाजपा के हिन्दू वोट बैंक में दरार डाल सकते हैं उसकी काट हालांकि भाजपा अभी तक खोजने में सफल नहीं हो पा रही है मगर यह भी निश्चित है कि लोकसभा चुनावों तक श्री मोदी की तरफ से ऐसा बाण जरूर चलाया जा सकता है जिससे यह विमर्श महत्वहीन हो सके।
भाजपा अति पिछड़ों के साथ पसमान्दा मुसलमानों को जोड़ कर कोई एेसी तजवीज निकाल सकती है जिससे कांग्रेस के लम्बे चले केन्द्रीय शासन को जवाबदेह बनाने की राह खुल सके। राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं होता है। क्योंकि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघ चालक श्री मोहन भागवत अब धर्मनिरपेक्षता की वकालत में भी बयान दे रहे हैं। उनके ऐसे एक बयान से ही भाजपा विरोधी खेमे में खासी बेचैनी का आलम है। राष्ट्रीय चुनावों में असली देखने वाली बात यह होगी कि कांग्रेस की तरफ से जो सामाजिक न्याय और लोक कल्याणकारी राज का विमर्श रखा गया है उसके समानान्तर भाजपा कौन सा ऐसा विमर्श तैराती है जो जनता में स्वीकार्य हो सके।

– राकेश कपूर

Related Stories

No stories found.
logo
Punjab Kesari
www.punjabkesari.com