कर्नाटक दक्षिण भारत का ऐसा पहला राज्य माना जाता है जहां उत्तर भारत की हिन्दी पार्टी माने जाने वाली भाजपा ने 2008 के चुनावों में अपने पैर जमाये थे। निश्चित रूप से इसका श्रेय तब जनसंघ के जमाने से भाजपा के नेता श्री बी.एस. येदियुरप्पा को दिया गया था जिन्होंने राज्य की दो प्रमुख दबंग माने जाने वाली जातियों वोकालिंग्गा व लिंगायत में से एक लिंगायत के मतदाताओं को रिझाने में सफलता प्राप्त की थी। कर्नाटक की राजनीति में 80 के दशक से ही परिवर्तन आना शुरू हुआ था जब जनता दल के स्व. रामकृष्ण हेगड़े जैसे नेता इसके साथ जुड़े थे और उनमें श्री एसआर बोम्मई आदि भी शामिल थे। श्री एसआर बोम्मई वर्तमान मुख्यमन्त्री श्री वासवराज बोम्मई के ही पिता थे। इनके अलावा पूर्व प्रधानमन्त्री श्री एचडी देवेगौड़ा भी जनता दल में ही थे यदि और अधिक गहराई से देखें तो कांग्रेस पार्टी के पूर्व मुख्यमन्त्री श्री सिद्धारमैया भी एक जमाने में देवेगौड़ा के ही साथ जनता दल में रहे थे। मगर जनता दल के सभी नेताओं की राजनीति समाजवादी विचारधारा से प्रभावित थी जबकि श्री येदियुरप्पा जनसंघ की पुरानी राष्ट्रवादी नीति और हिन्दुत्व की विचारधारा से प्रभावित थे।
वर्तमान में कर्नाटक में जो राजनैतिक समीकरण बन रहे हैं उन्हें देखते हुए आगामी महीने मई में जो विधानसभा चुनाव हो रहे हैं उनमें सीधा मुकाबला कांग्रेस पार्टी व सत्तारूढ़ भाजपा के बीच होने जा रहा है। मौजूदा भाजपा की बोम्मई सरकार अपने पिछले पांच साल के कार्यकाल को लेकर भारी भंवर में फंसी हुई नजर आ रही है जिसकी असली जड़ राज्य प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार की गूंज है। बोम्मई सरकार पर विरोधी दलों खास कर कांग्रेस द्वारा लगाया गया यह आरोप बुरी तरह चिपक गया है कि यह सरकार 40 प्रतिशत कमीशन की सरकार है। भाजपा इस आरोप की तीव्रता कम करने के लिए वे मुद्दे उठा रही है जिससे राज्य के मतदाताओं में यह सन्देश जाये कि वह लिंगायत व वोकालिंग्गा दोनों ही समाज की पसन्दीदा पार्टी है। अपने इस विमर्श को चलाने के लिए उसने 2002 में मुसलमानों के पिछड़े वर्गों के लिए किये गये चार प्रतिशत आरक्षण को समाप्त करके इन्हें आधा-आधा लिंगायत व वोकालिंग्गा में बांट दिया। मगर कर्नाटक में 13 प्रतिशत से अधिक दलित वोट भी हैं और कांग्रेस के अध्यक्ष श्री मल्लिकार्जुन खड़गे न केवल कर्नाटक के हैं बल्कि दलित समाज से भी आते हैं।
कर्नाटक के इन चुनावों का भाजपा के लिए बहुत महत्व है क्योंकि सर्वप्रथम तो वह इस राज्य की सत्तारूढ़ पार्टी है और दूसरे कर्नाटक विधानसभा चुनावों का परिणाम इसी साल के अंत तक होने वाले अन्य चार राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान व तेलंगाना की राजनीतिक फिजां को भी प्रभावित करेगा। यदि कर्नाटक भाजपा के हाथ से निकल जाता है तो विपक्षी दलों खास कर कांग्रेस का मनोबल बहुत ऊंचा हो जायेगा। अतः भाजपा इन चुनावों में अपनी पूरी शक्ति झोंकने पर आमादा लगती है और इस क्रम में उसने अपने सर्वाधिक लोकप्रिय नेता प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की दो दर्जन से अधिक रैलियां करने की योजना बना रखी है। भाजपा किसी राज्य स्तर के नेता को मुख्यमन्त्री के तौर पर भी पेश नहीं कर रही है और सब कुछ प्रधानमन्त्री के करिश्मे के भरोसे छोड़ देना चाहती है। जबकि दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी को उम्मीद है कि उसके नेता राहुल गांधी की संसद सदस्यता समाप्त करने का असर आम मतदाताओं पर पड़ेगा क्योंकि पिछले वर्ष सितम्बर में केरल से शुरू हुई राहुल गांधी की भारत-जोड़ो यात्रा के फेरे कर्नाटक में जम कर लगे थे।
कांग्रेस भी अपने किसी नेता को मुख्यमन्त्री के चेहरे के तौर पर पेश करने की हालत में नहीं है। इसकी वजह यह है कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष श्री डी.के. शिवकुमार व पूर्व मुख्यमन्त्री श्री सिद्धारमैया दोनों ने ही चुनाव से पहले स्पष्ट कर दिया है कि कांग्रेस के विजयी होने की सूरत में वह मुख्यमन्त्री पद पर अपना दावा ठोकेंगे। लेकिन जहां तक क्षेत्रीय नेताओं के आम जनता में लोकप्रिय होने का प्रश्न है तो सिद्धारमैया का स्थान इनमें सबसे ऊंचा माना जाता है। वह पिछड़ी गडरिया जाति के प्रबुद्ध नेता माने जाते हैं और शासनकाल में भी सिद्धहस्त समझे जाते हैं। राजनैतिक चातुर्य में भी उनका जवाब नहीं है। जबकि भाजपा में उनके मुकाबले में श्री येदियुरप्पा को रखा जाता था मगर अब वह राज्य की राजनीति में हाशिये पर ही समझे जा रहे हैं। खासकर जोड़-तोड़ की राजनीति में येदियुरप्पा बेमिसाल नेता थे जबकि उनका पूरा शासकीय राजनैतिक जीवन भ्रष्टाचार के विभिन्न आरोपों से घिरा रहा। कर्नाटक की राजनीति धुर दक्षिणी राज्यों की राजनीति से हट कर इसलिए भी मानी जाती है क्योंकि इतिहास में इसके विभिन्न क्षेत्रों में पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र के मराठा शासन का विशेष प्रभाव रहा। इसी सन्दर्भ में भाजपा मैसूर के सुल्तान टीपू सुल्तान का मुद्दा भी बार-बार उठाती रही है। परन्तु कर्नाटक की आम जनता पूरे देश में अपेक्षाकृत रूप से अधिक शिक्षित मानी जाती है जिसकी वजह से यहां गत वर्षों में मुस्लिम कन्याओं द्वारा हिजाब पहने जाने के मसले ने ज्यादा तूल नहीं पकड़ा। यहां के सभी हिन्दू- मुस्लिम नागरिकों की एक ही कन्नड़ भाषा होने से भी सामाजिक स्तर पर विभिन्न सम्प्रदायों का जुड़ाव अनुभव किया जाता है। जबकि महाराष्ट्र से लगे कर्नाटक के क्षेत्र में इसका असर कम रहता है। चुनावों की असली रणनीति सामने नहीं आ पा रही है इसकी वजह यह मानी जा रही है कि भाजपा व कांग्रेस दोनों ही अभी एक दूसरे ‘पर’ तोल रही हैं।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com