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अफगानिस्तान से भागता अमेरिका

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सीरिया के बाद अमेरिका के ट्रंप प्रशासन ने अफगानिस्तान से भी भारी संख्या में अपने सैनिक हटाने का फैसला कर लिया है। इस समय लगभग 14 हजार अमेरिकी सैनिक तैनात हैं, इनमें से आधे यानी 7 हजार सैनिक अमेरिका लौट सकते हैं। इसी बीच सीरिया और अफगानिस्तान से अपने सैनिकों को वापस बुलाने के मुद्दे पर मतभेदों के चलते अमेरिका के रक्षा मंत्री जिम मैटिस ने अपना त्यागपत्र दे दिया है। मैटिस ने यद्यपि अपने इस्तीफे के विषय में कुछ नहीं कहा लेकिन इस बात के संकेत जरूर दिए कि नीतिगत मुद्दों पर मतभेदों के लिए चलते ही उन्होंने इस्तीफा दिया है। वैसे तो वर्ष 2014 से ही सुरक्षा मामलों की पूरी जिम्मेदारी अफगान सुरक्षा बलों की ही रही है।

अमेरिका का कहना है कि जो विदेशी सैनिक अफगानिस्तान में सलाहकार और तकनीकी सहायता में अपनी भूमिका निभा रहे थे, उन्हें ही वापस बुलाया जाएगा। अमेरिका ने अपने सैनिक बुलाने का फैसला उस समय लिया है जब अफगानिस्तान के एक बड़े भूभाग में तालिबान का नियंत्रण है और तालिबान वहां फिर से अपना सिर उठा चुका है। रक्षा मंत्री जिम मैटिस ट्रंप प्रशासन में एक ऐसे वरिष्ठ अधिकारी थे जो अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की उपस्थिति की वकालत करते रहे हैं। अब सवाल यह है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी का वहां की सुरक्षा पर क्या असर होगा? क्या भारत पर इसका असर होगा? अफगानिस्तान में 17 वर्षों से एक-दूसरे से लड़ रहे ता​लिबान और अमेरिका अब मसले को शांति से सुलझाने पर काम कर रहे हैं।

बीते चार महीनों में दोनों के बीच कतर में मैराथन बैठकें भी हुई हैं। तालिबान ने अफगानिस्तान में अगले वर्ष होने वाले राष्ट्रपति चुनाव स्थगित करने तथा तटस्थ नेतृत्व के अंतर्गत अंतरिम सरकार स्थापित करने की मांग की है। उसने ताजिक मूल के इस्लामिक विद्वान अब्दुल सत्तार का नाम अंतरिम सरकार के प्रमुख के रूप में सुझाया है। अमेरिका और तालिबान में शुरू हुई बातचीत में चौंकाने वाली बात यह है कि अमेरिका हमेशा यही कहता रहा था कि तालिबान एक आतंकी संगठन है और वह किसी आतंकी संगठन से सीधी बातचीत नहीं करेगा। तालिबान को जो भी बात​चीत करनी है वह अफगानिस्तान की सरकार से करे। दूसरी तरफ तालिबान का कहना था कि वह किसी की कठपुतली सरकार के साथ नहीं बल्कि अमेरिका से ही सीधी बातचीत करेगा। सवाल यह है कि डोनाल्ड ट्रंप ने अचानक अफगानिस्तान में अपनी रणनीति क्यों बदल ली? ट्रंप अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिक वापस बुलाकर तालिबान के अमेरिकी विरोध को कम करना चाहते हैं।

दूसरा 2016 में राष्ट्रपति चुनावों में उन्होंने वायदा किया था कि अफगानिस्तान में अमेरिकी फौज के होने से 15 वर्षों में कोई नतीजा नहीं निकल पाया। सरकार को अमेरिकी करदाताओं का पैसा इस तरह बहाने की जरूरत नहीं है और अमेरिकी फौजों को तुरन्त अफगानिस्तान से वापस बुलाया जाना चाहिए। दरअसल अफगानिस्तान में ट्रंप की रणनीति बुरी तरह नाकाम रही है। उनकी आक्रामक नीतियों का कोई फायदा नहीं हुआ, उल्टा तालिबान की ताकत और बढ़ गई। अफगानिस्तान के 40 से 50 फीसदी हिस्से पर तालिबान का कब्जा मजबूत है। इस वर्ष जनवरी से अब तक 1692 नागरिकों की युद्ध के दौरान मौत हुई है। यह आंकड़ा 2008 के बाद युद्ध में मरने वालों में सबसे ज्यादा है। बीते 17 वर्ष में अमेरिका अफगानिस्तान में 840 अरब डॉलर से ज्यादा की रकम खर्च कर चुका है। अमेरिका अब आैर खर्च करने के मूड में नहीं है। इसी बीच रूस भी अफगानिस्तान में दखल देने लगा है और तालिबान से उसकी नजदीकियां बढ़ चुकी हैं। उसका कहना है कि वह आईएस से लड़ने के लिए तालिबान की मदद कर रहा है।

अमेरिका को रूस और तालिबान की नजदीकियां भी परेशान कर रही हैं। अमेरिका यह भी जानता है कि पाकिस्तान तालिबान की मदद कर रहा है। भारत अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में जुटा है और कई महत्वपूर्ण बड़ी परियोजनाओं पर काम कर रहा है। भारत और अफगानिस्तान में सम्बन्ध बहुत मैत्रीपूर्ण हैं और पाकिस्तान की आईएसआई और सेना अफगानिस्तान में भारत की मौजूदगी नहीं चाहते। भारत ने अफगानिस्तान में काफी निवेश कर रखा है। ऐसी स्थिति में भारत निशाने पर रहेगा। भारत को अपनी सुरक्षा के लिए अफगानिस्तान को रक्षा सहयोग भी बढ़ाना पड़ सकता है। बढ़ती तालिबानी हिंसा यह बताती है कि अफगान सुरक्षा बल कमजोर हैं। अमेरिकी सैनिकों की वापसी अफगान सैनिकों के लिए एक मनोवैज्ञानिक झटका होगा।

तालिबान के लिए यह फायदे की स्थिति होगी। तालिबान को पाकिस्तान हथियार दे रहा है। युद्ध से परेशान अफगानिस्तान के लोग भी शांति चाहते हैं इसलिए तालिबान को स्थानीय कबीलों का समर्थन भी मिलने लगा है। तालिबान की इच्छा एक आजाद हुकूमत बनाने की है। मामला काफी उलझा हुआ है। तालिबान महज अपने राजनीतिक अधिकारों की मांग या अफगानिस्तान की आजादी के लिए नहीं लड़ रहा। सच तो यह है कि तालिबान मजहब के नाम पर कट्टरपंथी विचारधारा वाला संगठन है। डर तो इस बात का है कि वह अफगानिस्तान को कहीं वजीरिस्तान न बना डाले। अफगानिस्तान की भविष्य की डगर आसान नहीं। भारत को अपने हितों की रक्षा के लिए नई रणनीति बनानी ही होगी।

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