जोशीमठ अगर केवल 12 दिनों में ही साढे़ पांच सें.मी. नीचे धंस गया तो इसके मायने क्या हैं? आम आदमी की भाषा में इसे दरकती हुई जमीन पर बसा शहर कहा जायेगा। जाहिर है ऐसे शहर को बचाने के लिए वे सभी उपाय किये जाने चाहिए जिनसे जोशीमठ के भू-भाग का नीचे धंसना रुके। इसके लिए पहाड़ी इलाकों में किये जा रहे आधुनिक विकास कार्यों का वैज्ञानिक भूगर्भीय लेखा-जोखा कराना होगा। प्रश्न पैदा होता है कि क्या पहाड़ी क्षेत्रों में ऐसा लेखा-जोखा समय-समय पर नहीं कराया जाना चाहिए? हमने कुछ वर्ष पहले श्री केदारनाथ धाम में आयी प्राकृतिक विनाश लीला को देखा था और तब कान पकड़े थे कि पर्वतीय क्षेत्रों में विकास बहुत ही नियमित व नियन्त्रित तरीके से किया जाना चाहिए जिससे पहाड़ों की पारिस्थितिकी व पर्यावरण का सन्तुलन बिगड़ने न पाये। श्री केदारनाथ धाम का तो पुनर्निर्माण हमने बहुत सफलतापूर्वक कर दिया मगर इससे कोई सबक नहीं लिया और अपनी बेढंगी चाल पहले की तरह ही जारी रखी।
पहाड़ प्रकृति के सर्वाधिक संवेदनशील क्षेत्र होते हैं। इनकी जलवायु से लेकर सौन्दर्य छटा अलग होती है। प्रकृति स्वयं इन्हें अपने हाथों से सजाती-संवारती रहती है। अतः जब इसमें मानव का हस्तक्षेप इन पर बसने के बहाने होता है तो इनकी यह बोझ सहने की क्षमता सीमित ही हो सकती है। इसलिए सबसे पहले पहाड़ों पर बस्तियां बसाने की क्षमता निर्धारित की जानी चाहिए और उन पर व्यावसायिक, व्यापारिक व औद्योगिक गतिविधियां चलाने की नियन्त्रित प्रणाली होनी चाहिए। दुर्भाग्य से हमने मूल सवालों को नजरंदाज करते हुए पहाड़ों पर भौतिक सुविधाओं का वैसा ही जाल बुनना चाहा जैसा कि मैदानी क्षेत्रों में होता है और इस चेष्टा में हमने विकास का वही पैमाना पर्वतीय क्षेत्राें पर भी लागू कर दिया जो मैदानी क्षेत्रों पर होता है। बेशक पर्वतीय इलाकों में रहने वाले लोगों को भी अपने विकास करने का पूरा अधिकार है मगर यह विकास स्थानीय परिस्थितियों के सकल सन्दर्भओं में ही किया जाना चाहिए। बड़ी जल विद्युत परियोजनाएं अथवा सड़क निर्माण परियोजनाओं को हम पहाड़ों को खोखला करके लागू नहीं कर सकते। उसके दुष्परिणाम वैसे ही होंगे जैसा कि जोशीमठ में हो रहा है। अतः जोशीमठ हमें चेतावनी दे रहा है कि हम अपनी विकास की राह को बदलें और इसे पहाड़ों के अनुरूप बनायें। हम यदि पुराने टिहरी शहर को जल में गर्त करके उसे बड़े बांध में परिवर्तित कर देते हैं तो इसकी प्रतिक्रिया पहाड़ों के भीतरी रसायन तन्त्र में क्या होगी?
यदि जोशीमठ के करीब ही बड़ी-बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं के लिए पहाड़ों की खुदाई की जा रही है और अन्य परियोजनाओं के लिए सुरंगों का जाल बुना जा रहा है तो हिमालय के ‘सुकुमार पहाड़’ कैसा अनुभव करेंगे, इसका ज्ञान तो किसी पर्वतीय भू विज्ञानी को ही हो सकता है अथवा पहाड़ों पर जीवन पर्यन्त रहने वाले लोगों को भी हो सकता है क्योंकि ये लोग प्रकृति की गोद में जीवन शैली गुजारना जानते हैं। इसी वजह से इनकी संस्कृति व धार्मिक मान्यताएं व परंपराएं मैदानी क्षेत्रों के लोगों से अलग होती हैं। ये लोग पहाड़ों को पूजने से लेकर प्रकृति निर्मित झीलों व पोखरों सहित वृक्षों को अपनी धरोहर मानते हैं और उनकी अभ्यर्थना भी करते हैं। परन्तु आज असली सवाल यह है कि विगत वर्ष के अप्रैल महीने से लेकर दिसम्बर के मध्य तक जोशीमठ केवल सात सें.मी. ही धंसा था मगर 27 दिसम्बर के बाद चालू जनवरी के दूसरे सप्ताह के 12 दिनों में ही साढ़े पांच सें.मी. और धंस गया। ये चित्र भारतीय अन्तरिक्ष शोध संस्थान ने उपग्रह चित्रण की मार्फत भेजे हैं। लेकिन हमें मानना पड़ेगा कि भारत में जो प्रशासनिक व्यवस्था है वह संवेदनहीनता की हदों को भी पार करना अनुचित नहीं समझती।
1976 में ही सरकार द्वारा गठित मिश्रा कमेटी ने चेतावनी दी थी कि जोशीमठ के इलाके में भारी निर्माण कार्य नहीं होना चाहिए क्योंकि यह क्षेत्र भूगर्भीय स्तर पर स्थायी नहीं है। यह भूस्खलन से जमा मलवे पर बसा हुआ इलाका है। मगर इसके बाद न जाने कितनी सरकारें आईं और गईं और हरेक ने नई-नई भारी परियोजनाओं को हरी झंडी दी। आर्थिक उदारीकरण के बाद तो जैसे मौज ही आ गई और निजी उद्यमियों को पहाड़ बेचने की होड़ लग गई। पहाड़ों को पर्यटन क्षेत्र के रूप में विकसित करने की होड़ में यह भूल गये कि पर्वतमालाओं की बोझ सहने की अपनी सीमित क्षमता है।
हमने पहाड़ों को क्रीट की इमारतों के जंगल के रूप में बसाना शुरू कर दिया और आधारभूत सेवाओं की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया। बड़ी-बड़ी बस्तियों से निकलने वाले कूड़े-कचरे व अपशिष्ट के निष्पादन की कोई पक्की व्यवस्था तक नहीं की। धार्मिक तीर्थाटन के वाणिज्यिकरण की होड़ में हम भूल गये कि पहाड़ों की नैसर्गिकता कितना मानव बोझा ढो सकती है। हमें इस सिद्धान्त को कभी नहीं भूलना चाहिए कि हर देश और क्षेत्र के विकास का ढांचा वहां की पारिस्थितिकी और पर्यावरण के अनुरूप ही तैयार हो सकता है। यदि ऐसा न होता तो पहाड़ों की अपनी वास्तुकला व भवन निर्माण कला होती? क्या हमारे पूर्वज कम धार्मिक थे? मगर उन्होंने धार्मिक तीर्थों को कभी पिकनिक या पर्यटक स्थल बनाने के बारे में नहीं सोचा। मगर अब सवाल यह है कि हम वह दूसरा जोशीमठ कहां से लायेंगे जो आदिशंकराचार्य की तपोस्थली रही और जो ग्रीष्म ऋतु में भगवान बदरीनाथ का पूजा स्थल है। अतः बहुत आवश्यक है कि पुराने जोशीमठ का सांस्कृतिक व धार्मिक स्वरूप बरकरार रखने के हर संभव प्रयास किये जायें और यहां बसे लोगों को अन्यत्र सुरक्षित स्थानों पर बसाया जाये।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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