क्या नागरिक संशोधन कानून के खिलाफ शाहीन बाग का आंदोलन अपनी दिशा से भटक चुका है। शाहीन बाग के आंदोलन से बहुत सारी आवाजें उठीं, बहुत सारे दृश्य सामने आए हैं। तिरंगे लहराए गए, जन-गण-मन से लेकर वंदेमातरम् तक गाया गया। कभी गोली चली तो कभी शरजील की पूर्वोत्तर को भारत से अलग कर देने की साजिश का खुलासा हुआ।
यह भी सत्य है कि भटके हुए युवक शरजील को शाहीन बाग का पोस्टर ब्वाय नहीं माना गया। नागरिक संशोधन विधेयक और एनसीआर के विरोध में आंदेलन करने का अधिकार संविधान ने ही उन्हें दिया है। शांतिपूर्ण आंदोलन का रास्ता भी राष्ट्रपिता गांधी बाबा ने हमें दिखाया है। सवाल यह भी है कि शाहीन बाग के बाद जाफराबाद में जिस ढंग से आंदोलन का विस्तार हुआ, वह भी बहुत सारे सवाल खड़े करता है।
लोकतंत्र में आंदोलन करना अपराध नहीं है लेकिन एक बड़ी आबादी को बंधक बनाना भी अपराध के समान है। पिछले चार दिनों से सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त वार्ताकार अधिवक्ता संजय हेगड़े और साधना रामचन्द्रन धरने पर बैठे लोगों से बातचीत कर रहे हैं, लेकिन गतिरोध बना हुआ है। शनिवार को दिनभर नौटंकी चलती रही। कभी सड़क नम्बर 9 का रास्ता खोला गया तो एक गुट ने उसे फिर बंद करवा दिया, फिर उसे खोला गया। जो भी आंदोलन नेतृत्वहीन होता है उसका हश्र ऐसा ही होता है। किसी भी आंदोलन का नेतृत्वहीन होना नुक्सानदेह साबित होता है।
शाहीन बाग के आंदोलनकारियों में भी सड़क खोलने को लेकर मतभेद हैं। जबकि शाहीन बाग की सड़क नोएडा और हरियाणा को दिल्ली से जोड़ती है। हजारों लोगों को सड़क पर पुलिस के बैरीकेट्स लगे होने के कारण दूसरे मार्ग अपनाने पड़ते हैं। स्कूली बच्चों को काफी परेशानी झेलनी पड़ती है। हजारों नौकरीपेशा लोग घंटों जाम में फंसे रहते हैं। आंदोलनकारी अपनी बात देश की शीर्ष अदालत तक पहुंचाने में सफल रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी शाहीन बाग के आंदोलन को उनका अधिकार माना है तो आंदोलनकारियों को यह भी समझना होगा कि वह दूसरे नागरिकों के लिए असुविधा पैदा नहीं करें।
अब सीएए और एनआरसी के विराेध में करीब 45 दिन से जाफराबाद रोड पर धरने पर बैठी महिलाओं द्वारा सड़क जाम करने पर पुिलस को मजबूरन लाठीचार्ज करना पड़ा क्योंकि लोकतंत्र में जगह-जगह सड़क को जाम कर आम नागरिकों के लिए परेशानी खड़ी करने की भी अनुमति नहीं दी जा सकती। रविवार को प्रदर्शनकारियों ने सीलमपुर और मौजपुर की सड़कों पर बैठकर रास्ते जाम कर दिए हैं। अगर हर जगह शाहीन बाग बनते रहे तो फिर परिणाम अराजकता ही होगा।
यह दुर्भाग्य ही रहा कि जो संवाद की प्रक्रिया पहले ही अपनाई जानी चाहिए थी वह चुनावों के चलते शुरू ही नहीं की गई। दिल्ली विधानसभा चुनावों के चलते सियासत ने अपना रंग दिखाया और शाहीन बाग चुनावी मुद्दा बन गया। किसी ने इन्हें टुकड़े-टुकड़े गैंग करार दिया तो किसी ने इन्हें देशद्रोही, गद्दार और राष्ट्र विरोधी। ऐसे में शाहीन बाग क्या करता? हाथों में तिरंगा लेकर शाहीन बाग खुद के भारतीय होने का प्रमाण पत्र दे रहा था। अगर संवाद की प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट की बजाय राष्ट्र का राजनीतिक नेतृत्व करता तो शायद सड़क खुल जाती।
नागरिक संशोधन विधेयक और एनआरसी को लेकर भ्रम की स्थिति संवादहीनता की स्थिति से ही पैदा हुई है। राष्ट्रवाद दो श्रेणियों में विभक्त है। एक है सकारात्मक और दूसरा नकारात्मक। सकारात्मक राष्ट्रवाद का मतलब होता है अपने देश के लिए प्यार, उसे आगे बढ़ाने की भावना। नकारात्मक राष्ट्रवाद किसी दूसरे देश या समूह के खिलाफ घृणा से संचालित होता है। इसी चक्कर में शाहीन बाग आंदोलन को बदनाम करने की कोशिश भी की गई। शाहीन बाग में महिलाएं धरने पर बैठी हैं, वह कोई हिंसा तो नहीं कर रही थी। पुलिस को भी समझदारी से काम लेते हुए नोएडा को जोड़ने वाले अन्य मार्गों पर अनावश्यक रूप से बैरीकेट्स नहीं लगाने चाहिएं थे।
पहले प्रदर्शनकारियों ने कहा कि वे गृहमंत्री अमित शाह से मुलाकात करेंगे क्योंकि उन्होंने ही कहा था कि नागरिक संशोधन विधेयक को लेकर कोई भी उनसे मिल सकता है मगर इसका अर्थ यह नहीं है कि लोग झुंड में गृहमंत्री से मिलने जाएं। बेहतर होता प्रदर्शनकारी अपना प्रतिनिधिमंडल बनाते और प्रतिनिधिमंडल जाकर गृहमंत्री से बातचीत करता। पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को गृहमंत्री के आवास तक मार्च निकालने की अनुमति नहीं दी तो प्रदर्शनकारी वापस लौट गए। पूरा का पूरा घटनाक्रम पोलिटिकल स्कोरिंग का बन कर रह गया। इससे साफ है कि प्रदर्शनकारी केवल दिखावा कर रहे थे कि वे तो गृहमंत्री से मिलने गए थे लेकिन उन्हें मिलने की इजाजत नहीं दी गई।
आंदोलन में गहरा विरोधाभास पैदा हो चुका है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त वार्ताकारों से भी बातचीत के दौरान यही समस्या रही कि कोई कुछ कहता तो कोई कुछ। जब भी कोई आंदोलन लम्बा खिंचता है तो विरोधाभास पैदा होना स्वाभाविक प्रक्रिया है। बेहतर होता कि शाहीन बाग की महिलाएं सुप्रीम कोर्ट पर भरोसा रखकर आंदोलन की जगह बदलती और दूसरे के अधिकारों को सम्मान देकर सड़क खोल देती। अब दोबारा मामला सुप्रीम कोर्ट में जाएगा। देखना होगा कि समाधान के लिए कौन सा मार्ग अपनाया जाता है।