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पालघर में ‘अंधेर नगरी’

आज से लाॅकडाऊन में कुछ रियायतें देने का जो फैसला केन्द्र व राज्य सरकारों ने किया है उसका मुख्य लक्ष्य जिन्दगी को रवानगी बख्शने का है जिससे दुनियादारी का कामकाज हरकत में आ सके और इंसान अपने वजूद की पहचान कर सके।

आज से लाॅकडाऊन में कुछ रियायतें देने का जो फैसला केन्द्र व राज्य सरकारों ने किया है उसका मुख्य लक्ष्य जिन्दगी को रवानगी बख्शने का है जिससे दुनियादारी का कामकाज हरकत में आ सके और इंसान अपने वजूद की पहचान कर सके। यह इंसान की हिम्मत ही होती है जो जिन्दगी की रौनकें उजागर करती है मगर इस रवानगी की एक बहुत बड़ी शर्त है जिसे ‘लाॅकडाऊन’ कहा जाता है, अतः स्पष्ट है कि यह काम आहिस्ता-आहिस्ता ही परवान चढे़गा जिससे रौनकें परवाज भरेंगी। 
यह मानना गलत होगा कि कोरोना ने अपना असर ढीला कर दिया है क्योंकि भारत में इसके संक्रमण में फंसे लोगों की संख्या बढ़ कर 17 हजार के करीब पहुंच चुकी है मगर यह सोचना भी गलत होगा कि इस विनाशकारी वायरस के हाथ काटने की रणनीति सफल नहीं हो रही है। हर राज्य में इसे इसके दायरे में बांधने के भरसक प्रयास किये जा रहे हैं और उन इलाकों को अलग-थलग किया जा रहा है जहां एक भी संक्रमित व्यक्ति मिल रहा है।
कोरोना को परास्त करने का केवल यही एकमात्र हथियार है, प्रशासन में शामिल चिकित्सा कर्मियों से लेकर पुलिस कर्मी पूरी निष्ठा के साथ इस रणनीति को लागू कर रहे हैं मगर अफसोस बदले में उन पर वे लोग ही हमलावर हो रहे हैं जिनकी जान बचाने के लिए वे अपनी जान जोखिम में डाल रहे हैं।
विभिन्न स्थानों पर जिस तरह पुलिस कर्मियों पर हमला हो रहा है उससे आज के समाज की वह खुदगर्जी जगजाहिर हो रही है जो उसमें भौतिक भोग-विलास ने पैदा की है मगर इससे भी ज्यादा दुखद यह है कि यह भौतिकतावादी दिखने के बावजूद मानसिक रूप से निरा जाहिल और अंध विश्वासी भी हैं।
महाराष्ट्र के पालघर जिले में जिस तरह जूनागढ़ अखाड़े के तीन साधुओं की ग्रामीणों के एक समूह ने चारों तरफ से घेर कर लाठी-डंडों व पत्थर मार-मार कर हत्या की वह इसी दोहरेपन का प्रमाण है। कैसी विडम्बना है कि एक तरफ हमारे गांव विकास कर रहे हैं और उनमें शहरीपन की झलक बढ़ती जा रही है तो दूसरी तरफ उनका मानसिक स्तर कबायली दौर से ऊपर नहीं उठ पा रहा है।
पालघर की यह जालिमाना घटना विगत शनिवार को ही एक अंग्रेजी अखबार में सचित्र प्रकाशित हो गई थी मगर महाराष्ट्र सरकार ने इसका संज्ञान सोमवार को लिया और घटना की जांच कराने के लिए राज्य पुलिस महानिदेशक (गुप्तचर) के नेतृत्व में एक जांच दल का गठन कर दिया।
लोकतन्त्र में मीडिया की स्वतन्त्रता का लाभ अन्ततः आम जनता को किस प्रकार पहुंचता है इसका भी यह एक सटीक उदाहरण है क्योंकि लोकतन्त्र की समूची व्यवस्था घटनाएं घटने के बाद वहां पहुंचने की हिमायत नहीं करती बल्कि खुद घटनाओं से पहले वहां जाने की ताकीद करती है। इस सन्दर्भ में गांधीवादी कवि स्व. भवानी प्रसाद मिश्र की एक कविता की वे पंक्तियां लोकतान्त्रिक व्यवस्था के प्रशासनतन्त्र, सावधान लोक तत्परता का सत्य इस तरह उजागर करती हैं कि,
घटनाएं हम तक आयें, 
इससे अच्छा है कि हम घटनाओं तक जायें।  
ऐसा नहीं है कि पालघर जिले के गढ़चिंचली गांव के ये लोग अचानक ही अफवाहों में आकर अन्ध विश्वासियों की तरह व्यवहार कर रहे थे बल्कि विगत वीरवार की रात्रि को घटी नृशंस घटना से कुछ दिन पहले से ही ये अपने लोगों के ‘जागरूक दल’ बना कर रात को पहरा दे रहे थे।
अफवाह यह थी कि गांव के आसपास मनुष्य के शरीर के अंग बेचने वाला बच्चा चोर गिरोह सक्रिय है। इस अफवाह के चलते कुछ दिनों पहले ही पास के दूसरे गांव में एक चिकित्सा अधिकारी को पीटा गया था और पालघर से दादरा नगर हवेली जा रहे अतिरिक्त पुलिस कप्तान के दल पर भी हमला किया गया था। इसके बावजूद वीरवार को जूनागढ़ अखाड़े के साधू सुशील जी महाराज की उनके दो साथियों के साथ इसी शक में हत्या कर दी गई, मुम्बई के कान्दिवाली में स्थित एक आश्रम में रहने वाले सुशील गिरी महाराज को गुजरात के सूरत शहर में किसी के मृत्यु संस्कार में भाग लेने जाना था। 
उन्होंने एक वैन किराये पर ली और उनके आश्रम का ही एक साथी ड्राइवर बन कर उन्हें सूरत ले जाने के लिए निकल पड़ा। लाॅकडाऊन के कड़े प्रबंध के बीच वह 120 किमी की दूरी तय करके पालघर के गढ़चिंचली गांव तक पहुंच गये जो दादरा नगर हवेली केन्द्र प्रशासित क्षेत्र के बहुत निकट है।
यह इलाका दुर्गम माना जाता है। इस क्षेत्र में साधुओं की वैन को जंगल के गार्ड ने रोका और उनसे दरियाफ्त हुई, तभी गांव वालों का जागरूक दल आ गया और उनसे जवाब-सवालों में उलझ गया तथा उन्हें बच्चा चोर कहने लगा जिससे वहां और गांव वाले आ गये जिनकी संख्या चार सौ से अधिक थी। सब लोगों ने इन साधुओं को लाठी-डंडे व पत्थर मारना शुरू किया जिस पर गार्ड ने पास के पुलिस थाने से मदद मांगी।
पहले पुलिस के चार सिपाही आये और उनके सामने ही वैन को पलट कर तीनों साधुओं को बुरी तरह जख्मी कर दिया गया। इस पर पुलिस के सिपाहियों ने और मदद मांगी। तब एक बड़ी पुलिस टीम आयी, उसने तीनों जख्मियों को दो अलग-अलग पुलिस वाहनों में बिठाया मगर ग्रामीणों ने पुलिस के सामने ही उन्हें मारना जारी रखा और तीनों की मृत्यु हो गई।
सवाल खड़ा होता है कि पुलिस की भूमिका क्या रही? दूसरा सवाल खड़ा होता है कि सुशील गिरी जी महाराज वैध अनुमति के साथ सूरत के सफर पर थे? चूंकि वह किसी के अन्तिम संस्कार में शामिल होने जा रहे थे तो लाॅकडाऊन के नियमों के तहत एक साथी के साथ जाने की इजाजत उन्हें दी जा सकती थी मगर सबसे बड़ा सवाल पैदा होता है  कि राज्य की सरकार का प्रशासन क्या अफवाहों के सहारे ग्रामीणों को छोड़े रखने पर यकीन रखता है? लोकतन्त्र ‘अंधेर नगरी चौपट राजा’ का नहीं ‘सजग नगरी सावधान राजा’ का तन्त्र होता है। मुख्यमन्त्री उद्धव ठाकरे बस इतना ही जान लें।

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