भारत दुनिया का तीसरा सब से बड़ा विमानन बाजार है और उसने तेजी से विकास भी किया। भारतीय विमानन का विकास 1930 के दशक में अपनी जड़ों के साथ एयर इंडिया और सरकारी नियंत्रण के साथ निकटता से जुड़ा हुआ है। 1950 के दशक तक भारत देश के विभिन्न हिस्सों से संचालित होने वाली छोटी एयरलाइंस का घर था। कई घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय मार्गों पर उड़ान भरते हुए एयर इंडिया राष्ट्रीय वाहक बनी रही। 1994 में भारत में निजी एयरलाइंस की शुरूआत की अनुमति दे दी गई। एक के बाद एक नई एयरलाइंस कंपनियां आती गई। 2000 के दशक में भारत ने विमानन उछाल की शुरुआत को चिन्हित किया। कम लागत वाली एयरलाइंस ने सस्ती उड़ानें शुरू की और बड़ी एयरलाइंस के सामने उड़ान भरने की चुनौती दे डाली। कड़ी प्रतिस्पर्धा के चलते एक के बाद एक निजी प्राइवेट एयर लाइंस बंद होती गई। सस्ती उड़ान उपलब्ध कराने वाली एक और कंपनी गो फर्स्ट एयरलाइन दिवालिया हो चुकी है। कंपनी ने दो दिन के लिए अपनी सभी उड़ानों को निलंबित कर दिया है। इसकी बड़ी वजह इंजन में समस्याओं की वजह से एयरलाइन को अपने 28 विमानों को ऑपरेशन से बाहर खड़ा करना पड़ा। नतीजा यह हुआ कि आधे से ज्यादा विमान पार्किंग में खड़े हो गए। उड़ानें बंद होने से कंपनी पर वित्तीय बोझ बढ़ता चला गया और घाटा रॉकेट की रफ्तार से आगे निकल गया। कंपनी को दस हजार आठ सौ करोड़ का राजस्व गंवाना पड़ा। जिस अमेरिकी कंपनी के साथ इंजन सप्लाई करने का अनुबंध था उसने भी अनुबंध का पालन नहीं किया जिससे कंपनी का संकट बढ़ता ही चला गया। यात्रियों की सुरक्षा को देखते हुए विमानों के इंजन बदलने की जरूरत है।
एक के बाद एक बंद होती जा रही निजी विमान सेवाएं भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा संकेत नहीं है। उदारीकरण के इस युग में सरकार को इस मुद्दे पर क्या कुछ करना चाहिए। इस पर बहस पहले भी होती रही है और अब फिर शुरू हो चुकी है। विमान यात्रियों को तो परेशानी हो ही रही है। कंपनी के 5 हजार से अधिक कर्मचारियों का भविष्य भी संकट में आ गया है। इससे पहले जैट एयरवेज, किंगफिशर, एयर सहारा, स्काइलाइन, मोदी लुफ्त एनईपीसी, ईस्ट वेस्ट एयरलाइंस जैसी कंपनियां पहले ही बंद हो चुकी हैं। एयर इंडिया जैसी ध्वज वाहक कंपनी को इतना जबरदस्त घाटा हुआ कि उसे टाटा को बेचना पड़ा। दरअसल दुनिया के सबसे तेजी से बढ़ते विमानन बाजार के सामने चुनौतियों का अंबार है। सकल घरेलू उत्पाद में विमानन उद्योग का योगदान लगभग 5 प्रतिशत है। लगभग 40 लाख लोगों को इस उद्योग से रोजगार मिला हुआ है लेकिन कड़ी प्रतिस्पर्धा, महंगा रखरखाव और महंगे इंधन की वजह से भारतीय विमानन कंपनियों की हालत खस्ता होती गई।
आज के समय में तकनीक इतनी जल्दी-जल्दी बदल रही है कि प्रतिस्पर्धी कंपनियां नई तकनीक के सहारे पुरानी तकनीक अपनाने वाली कंपनियों को व्यवसाय में पछाड़ देती हैं लेकिन नई तकनीक अपनाने के लिये भारी राशि निवेश करनी पड़ती है। इसके लिये उस कंपनी को बैंक से कर्ज लेना पड़ता है और कंपनी पर कर्ज़ और ब्याज का भार बढ़ जाता है।
विमानन कंपनियों के कुप्रबंधन या अक्षम प्रबंधन के कारण भी विमानन कंपनियां घाटे में चली गई हैं। कुछ विमानन कंपनियां गैर-आर्थिक कीमतों पर अधिक क्षमताओं का सृजन कर लेती हैं जैसे वे आवश्यकता से अधिक विमान खरीद लेती हैं और इसके लिये बैंकों से ऋण सुविधाओं की मांग करके अधिक ब्याज दरों पर विभिन्न प्रकार की ऋण सुविधाएं लेती रहती हैं और आखिर में ऐसे चक्र में फंस जाती हैं जिससे निकलना नामुमकिन होता है। आज ज़्यादातर भारतीय विमानन कंपनियों को इसी तरह के हालात का सामना करना पड़ रहा है। हर स्तर पर प्रभावी संवाद की कमी कंपनी प्रबंधन का अदूरदर्शितापूर्ण दृष्टिकोण, कुशल नेतृत्व का अभाव, कमज़ोर प्रबंधन, अपर्याप्त जोखिम, प्रबंधन प्रबंधकों में अनुभव व प्रशिक्षण की कमी, गलत भागीदार, पूंजी की कमी, लचर वित्तीय प्रबंधन, कर्मचारियों की उपेक्षा, यात्रियों की आवश्यकताओं की अनदेखी इत्यादि से भी विमानन कंपनी को सफलता नहीं मिल पाती है।
कई बार कंपनी के प्रमोटरों में आपसी झगड़ों की वजह से कंपनियों का कामकाज भी प्रभावित हुआ। निजी विमान कंपनियों के बंद होने से बैंकों का कर्ज फंसा हुआ है। सुरक्षित विमान यात्रा भी अपने आप में एक बड़ी चुनौती बना हुआ है। क्षेत्रीय एयरपोर्ट विकसित करने को लेकर लांच की गई उड़ान स्कीम के तहत टेंडर भरने वाली 6 कंपनियां अपने ऑपरेशन बंद कर चुकी है। आखिर निजी कंपनियों का बुरा हाल क्यों हो रहा है। इसकी पहचान के लिए न्यामक तक कुछ काम नहीं कर रहा। आखिर इसके लिए जिम्मेदार कौन है। जरूरत है विमानन उद्योग के लिए कारगर नीतियां बनाने की। अगर ऐसा ही चलता रहा तो विमानन क्षेत्र बुरी तरह से प्रभावित होगा।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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