क्या हम मानसिक संतुलन खोने लगे हैं?

क्या हम मानसिक संतुलन खोने लगे हैं?
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कभी-कभी डर लगता है, सोशल मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और डिजिटल-मीडिया की भीड़ में हम अपना मानसिक संतुलन खोने लगते हैं। राजनैतिक दलों के प्रवक्ताओं की भीड़, निरंतर आक्रामक व असभ्य होती हुई भाषा, 'फेक-न्यूज' के अम्बार और लगातार बढ़ती हुई अराजकता आने वाले समय में हिंसा, घृणा, असहिष्णुता व वहशियत की ओर धकेलने लगी है।
वैसे भी हमारे अपने देश में हर भारतीय औसतन डेढ़ घंटा प्रतिदिन इंटरनेट खंगालता है। यह तथ्य भी चौंकाता है कि 50 प्रतिशत भारतीय युवा हर दिन औसतन तीन घंटे नेट पर या किसी वेबसाइट पर चिपके रहते हैं। चिंता की बात यह है कि इस डिजीटल दुनिया में हमारी स्वतंत्र और सार्थक सोच, कला, साहित्य, संस्कृति, विरासत, कल्पना शक्ति, संगीत आदि में दिलचस्पी घटती जा रही है। यह तथ्य भी कम खतरनाक नहीं कि लाखों की संख्या में बढ़ते यू-ट्यूबर्स और सोशल मीडिया एक्टिविटिज हमें लगातार ऐसी सामग्री व सूचनाएं परोस रहे हैं जिनका कई बार सच्चाई, तथ्यों व प्रामाणिकता से कोई वास्ता नहीं होता है। हमारे कान व हमारी आंखें लगातार झूठी सामग्री के अम्बारों में से गुज़र रही हैं और हम में भी जो एक्टिव, सोशल मीडिया-यूजर्स हैं अपने-अपने बेतुके, दिशाहीन, निरर्थक और भड़काऊ सामग्री फैंकने लगे हैं।
सक्रिय यू-ट्यूबर्स चैनलों की संख्या हमारे अपने देश में 80 हजार से भी अधिक हो चली है और अपने-अपने चैनल के ग्राहक (सब्सक्राइबर) बढ़ाने के लिए चौंकाने वाली सामग्री परोसी जा रही है। अधिकांश सामग्री हमारी सोचने की शक्ति कुन्द करने लगी है और सबसे बड़ी त्रास्दी यह है कि इस अराजक होते माहौल पर कोई भी पूरी कानूनी रोक संभव नहीं है। हमारे देश में 46 करोड़ 20 लाख उपभोक्ता इस सामग्री का उपभोग करने पर विवश हैं और संयम की भाषा कमोबेश सभी पक्ष भूलने लगे हैं।
ऐसे माहौल में सकारात्मक सामाजिक बर्ताव, सामाजिक संबंध, संवेदनाएं, सहानुभूति आदि के लिए जगह ही नहीं बच पा रही। इसी अराजक होते हुए माहौल में लगभग दो हज़ार राजनैतिक पार्टियां कुकुरमुत्तों की तरह प्रकट हो चुकी हैं। इनमें छह बड़े राजनैतिक दल हैं जबकि क्षेत्रीय दलों की संख्या भी 50 से बढ़ गई है। सबके पास सोशल मीडिया व इलेक्ट्रॉनिक चैनलों की अकूत सम्पदा है। हमारे देश में ड्राइविंग लाइसेंस के लिए तो टैस्ट लेने का प्रावधान है मगर लगातार अराजक होते हुए चैनलों, प्रवक्ताओं, यू-ट्यूबर्स, सोशल मीडिया पर सक्रिय लोगों के लिए न कोई 'टेस्ट' देना होता है, न ही कोई योग्यता दरकार है।
नवीनतम आंकड़ों के अनुसार अब हमारे देश की जनसंख्या 1 अरब, 44 करोड़ तक पहुंच गई है। अब हम विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का दर्जा भी पा चुके हैं। ऐसी स्थिति में हम अपने लोकतंत्र को किसी भी अराजकता की दहलीज पर नहीं ला सकते। जितना बड़ा देश, उतनी ही अधिक चुनौतियां, उतनी ही अधिक समस्याएं। हमने अनेकता में एकता को भी अपना आधार माना है। देश में 114 मुख्य भाषाएं बोली जाती हैं। इनमें से केवल 22 भाषाएं ही संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल हैं। अब अन्य भाषाओं में सन्थाली (0.62 प्रतिशत), बोडो (0.25 प्रतिशत), मिताई, डोगरी, गोंडी आदि विशेष रूप से चर्चा में रहती हैं। कोंकणी, नेपाली भी भारतीय भाषा परिवार में शामिल है। देश की साहित्य अकादमी कोंकणी में भी पुरस्कार देती है और मेथिली में भी। मगर हरियाणा वालों की यह शिकायत भी वाजिब है कि प्रदेश में हरियाणवी में हर वर्ष लगभग 500 कृतियां रची जाती हैं, प्रकाशित होती हैं। इनमें गज़लें भी हैं, कविताएं भी और गद्य भी। मगर हरियाणवी अभी भी मान्यता की मोहताज है। ऐसी ही शिकायतें कुछ अन्य क्षेत्रीय भाषाओं को लेकर भी हैं।
एक और ज्वलंत पहलू आदिवासी-वर्गों को लेकर उठाया जाता है। जल-जंगल और ज़मीन से जुड़ी दर्जनों जनजातियां हैं, जिनमें व्यापक असंतोष फैला हुआ है। इनकी अपनी लोक संस्कृति है, अपना साहित्य है, अपनी धार्मिक आस्थाएं हैं। अपना पहनावा है, अपने खाद्य पदार्थ हैं, अपनी डिशिज हैं। विविधा भरे इस भारतीय समाज में एकरूपता लाना आसान नहीं है। इतना ही नहीं इन आदिवासियों के बीच इनका अपना 'सोशल मीडिया' भी सक्रिय रहता है। कभी-कभी ये लोग अपने आपको देश की मुख्य धारा से कटा हुआ पाते हैं। इनमें आक्रोश भी बना रहता है और हिंसक तेवर भी।
ऐसे माहौल में हमें देश को अराजक होने से रोकना पड़ेगा। हर नेता और कमोबेश हर बुद्धिजीवी अपने आपको एक स्वतंत्र 'द्वीप' समझने लगा है। इतने बड़े देश में विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में हमें अपनी सोच का दायरा भी बढ़ाना होगा और अपनी जिम्मेदारी भी महसूस करनी होगी। असभ्य व शालीनता-विहीन भाषा हमारी सबसे बड़ी दुश्मन है। ये हमारा राष्ट्रवादी तानाबाना भी छिन्न-भिन्न कर सकती है। बेहतर है कि हम इससे बचें और व्यक्तिगत स्तर पर भी अपनी जिम्मेदारी को समझें। वरना देश में कदम-कदम पर देशद्रोह पनपने का खतरा है। जरूरी है कि हम आधुनिक टेक्नोलॉजी की दस्तकों के बावजूद हर कदम सावधानी से आगे बढ़ाएं।
डिजिटल-8 भारत में इन दिनों इंस्टाग्राम से लेकर 'एक्स' तक के सोशल मीडिया मंचों की बाढ़ आई हुई है। डिजिटल-भाषा में इसे 'मीम-युद्ध' का नाम भी दिया जा रहा है। इस दौर में निर्वाचन आयोग को भी 'एक्स' व अन्य डिजिटल संसाधनों का सहारा लेना पड़ रहा है। निर्वाचन आयोग ने गत सप्ताह एक्स पर पोस्ट किया, हम लोकसभा चुनाव में मतदान के लिए उत्साहित हैं, क्या आप भी तैयार हैं? निर्वाचन आयोग के साथ चलेंगे, चुनाव 2024, चुनाव का पर्व, देश का पर्व, पहली बार के मतदाता जैसे हैशटैग का इस्तेमाल करने के साथ ये जवानी है दीवानी फिल्म के एक दृश्य के आधार पर एक मीम का इस्तेमाल किया जिसमें टैगलाइन है पहली बार मतदान करने वालों के बीच उत्साह।

– डॉ. चंद्र त्रिखा

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