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अर्थव्यवस्था पर उठते सवाल

देश की अर्थव्यवस्था को लेकर जिस प्रकार प्रमुख उद्योगपति और जाने-माने अर्थशास्त्री चिन्ता जाहिर कर रहे हैं उससे इतना तो जरूर समझा जा सकता है

देश की अर्थव्यवस्था को लेकर जिस प्रकार प्रमुख उद्योगपति और जाने-माने अर्थशास्त्री चिन्ता जाहिर कर रहे हैं उससे इतना तो जरूर समझा जा सकता है कि भारत की विकास वृद्धि की दर का रंगीन सपना कहीं न कहीं बिखरता नजर आ रहा है। इस मामले में अर्थशास्त्रियों की दो मुख्तलिफ राय हैं। एक गुट के लोगों का कहना है कि यह अस्थायी ठहराव है जो सरकार द्वारा विभिन्न आर्थिक संशोधन करने के प्रभाव से फौरी तौर पर पैदा हुआ है और भविष्य में इसका असर समाप्त हो जायेगा और देश पहले की तरह ऊंची वार्षिक वृद्धि दर की तरफ अग्रसर होगा। 
दूसरे गुट का कहना है कि सरकार की जो आर्थिक नीतियां हैं उनकी वजह से पूरे देश में विकास वृद्धि दर को इस प्रकार झटका लगा है कि समूची अर्थव्यवस्था की रफ्तार न केवल थम गई है बल्कि यह उल्टी दिशा में घूमने को तैयार है। घरेलू बाजार में विभिन्न औद्योगिक व उपभोक्ता वस्तुओं की मांग में लगातार कमी होने से अर्थव्यवस्था ठहर ही नहीं गई बल्कि यह उल्टी घूमने की तरफ चल पड़ी है। इस तर्क के पक्ष में मोटर वाहनों की बिक्री में भारी कमी व टूथ पेस्ट जैसी जरूरी वस्तु की मांग में दर्ज होती कमी को गिनाया जा रहा है। 
इसका मतलब यही निकाला जा सकता है कि भारत के औसत आदमी की क्रय शक्ति में कमी दर्ज हो रही है, जिसका सम्बन्ध रोजगार से जुड़ा हुआ है। इसके साथ ही ये आंकड़े भी आ चुके हैं कि भारत में बेरोजगारी की दर पिछले 45 वर्षों में फिलहाल सर्वाधिक है परन्तु विचारणीय मुद्दा यह है कि मोदी सरकार ने 2014 से सत्ता में आने के बाद से पिछली मनमोहन सरकार की आर्थिक नीतियों को ही जोरदार ढंग से आगे बढ़ाया है जबकि ये आंकड़े भी हमारे सामने आ चुके हैं कि 2005 से 2015 तक के दौरान भारत के करीब 27 करोड़ से ऊपर लोग गरीबी की सीमा रेखा से ऊपर आये। 
जाहिर है कि इन लोगों की गरीबी बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के दौरान ही समाप्त हुई परन्तु वर्तमान में सरकार की आर्थिक नीतियों में कोई परिवर्तन नहीं है और वह लगातार बाजार मूलक अर्थव्यवस्था पर ही जोर दे रही है बल्कि इस नीति पर वह आक्रामक रुख अपना रही है तो फिर किस प्रकार अर्थव्यवस्था डगमगाने के मुहाने पर आकर बैठ गई है। इसकी वजह सरकार के आलोचक अर्थशास्त्री 2017 में बड़े नोटों को अचानक बन्द करने व जीएसटी को बेतरतीब रूप से लागू करना बता रहे हैं और कह रहे हैं कि सरकार के इन दो कदमों की वजह से ही भारत की ग्रामीण व अनौपचारिक अर्थव्यवस्था को गहरा झटका लगा जिसका शिकार मध्यम व लघु उद्योग क्षेत्र बनने के साथ ही छोटा व्यापारी वर्ग भी बना। 
इसमें तथ्य है क्योंकि स्वयं रिजर्व बैंक ने जो आंकड़े दिये उनके अनुसार इन कदमों के बाद भारत के सकल घरेलू उत्पाद में एक प्रतिशत से ज्यादा की कमी दर्ज हुई परन्तु इसके साथ ही यह भी तथ्य है कि सरकार की जीएसटी के माध्यम से राजस्व उगाही में लगातार वृद्धि दर्ज हो रही है जिससे यह कहा जा सकता है कि समूची अर्थव्यवस्था वैधानिक औपचारिक स्वरूप में आने के क्रम में प्रवेश कर चुकी है परन्तु दूसरी तरफ जो बेरोजगारी के आंकड़े आये वे चिन्तित करने वाले थे क्योंकि फिलहाल बेरोजगारी की दर पिछले 45 वर्षों में सर्वाधिक है। इसका मतलब यही निकलता है कि बदलते टैक्नोलोजी युग में रोजगार का स्वरूप बदल रहा है और श्रम मूलक रोजगार का दायरा सिकुड़ता जा रहा है। 
इसके साथ ही देश की कुल स्थापित औद्योगिक क्षमता का केवल 76 प्रतिशत उपयोग ही हो पा रहा है जिसका सम्बन्ध घटती मांग से ही जाकर जुड़ेगा। कुछ अर्थशास्त्री इसका उपाय यह बता रहे हैं कि सरकार को विभिन्न क्षेत्रों में अपना निवेश बढ़ाना चाहिए। इस आर्थिक ठहराव को केवल निवेश बढ़ाकर तोड़ा जा सकता है। इस तर्क में दम है क्योंकि विकास वृद्धि के विभिन्न मानक निजी क्षेत्र पर छोड़ देने के बाद इसमें ठहराव की स्थिति को खत्म करने का केवल एकमात्र यही माध्यम बचता है। अब सवाल यह है कि सरकार के पास आय स्रोतों की स्थिति क्या है? प्रत्यक्ष  व परोक्ष करों के माध्यम से यह जो भी उगाही करती है उसका एक तिहाई भाग तो विदेशी कर्जों का ब्याज अदा (डेब्ट सर्विस) करने में ही चला जाता है। 
आधे से ज्यादा धन  गैर नियोजित खर्चों (कर्मचारियों की तनख्वाहों व पेंशन से लेकर आन्तरिक व राष्ट्रीय सुरक्षा आदि पर) पर ही चला जाता है। विकास कार्यों के लिए इसके पास बहुत कम धन बचता है। इन कार्यों के लिए वह वित्तीय संस्थाओं पर निर्भर करती है। विभिन्न विभाग बजटीय आवंटन के सहारे अपनी वित्तीय क्षमता इन्हीं संस्थाओं के आसरे पर बढ़ाते हैं और प्रमुख वित्तीय संस्थान घरेलू बचत के बूते पर अपने को मजबूत रखते हैं। आश्चर्यजनक रूप से इस घरेलू बचत में भारी गिरावट दर्ज हो रही है। अब से दस साल पहले जहां यह 36 प्रतिशत तक हुआ करती थी वहीं अब घटकर 18 प्रतिशत के आसपास पहुंच गई है। इसका मतलब निकलता है कि सामान्य भारतीय अपनी बचत को या तो दिल खोल कर खर्च कर रहा है अथवा किन्हीं ऐसे अन्य अवयवों में निवेश कर रहा है जहां से उसे अधिक मुनाफे की अपेक्षा है।
इस सन्दर्भ में भारत में सोने की खपत की तरफ ध्यान देने की जरूरत है। इसकी खपत में भारत में कमी होने का नाम नहीं ले रही है और इसके दाम लगातार आकर्षक बने हुए हैं। हालांकि वर्तमान बजट में सोने पर आयात शुल्क में वृद्धि की गई है परन्तु इसकी खपत पर इसका प्रभाव पड़ेगा यह अभी नहीं कहा जा सकता। सोने की खपत के आंकड़े उल्टी हकीकत बयान करते हैं क्योंकि भारत आज भी दुनिया का सर्वाधिक स्वर्ण खपत वाला देश है। इसके बावजूद भारत में आधारभूत ढांचे का तेजी से विकास हो रहा है विशेष रूप से भूतल आवागमन मार्गों के क्षेत्र में। 
इसका वित्तीय पोषण निजी व सरकारी सहयोग से हो रहा है और वित्तीय संस्थाओं की इसमें शिरकत है परन्तु वायु यातायात के क्षेत्र में निजी उद्योग हाथ खड़े कर रहा है जिस प्रकार निजी एयर लाइंस असफल हो रही हैं (किंग फिशर व जेट एयरवेज) उससे एयर इंडिया जैसी सरकारी एयर लाइन को पुनः जोरदार भूमिका में आना चाहिए था परन्तु इसके हाथ इस प्रकार काट दिये गये कि अब इसे भी सरकार ने निजी क्षेत्र को बेचने का फैसला कर लिया है। 
इसके साथ ही 43 अन्य सार्वजनिक कम्पनियों के विनिवेश का फैसला किया गया है परन्तु यह प्रक्रिया पिछले लम्बे अर्से से चल रही है जिसकी वजह से आज बीएसएनएल और एमटीएनएल जैसी सरकारी संचार कम्पनियों के पास अपने कर्मचारियों को वेतन तक देने का पैसा नहीं है। अब सवाल यह है कि आर्थिक सुधारों का एेसा कौन सा चरण शुरू किया जाये जिससे बीमार उद्योगों को स्वस्थ बनाया जाये?

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