पूरी दुनिया कोरोना महामारी से त्रस्त। लगातार मौतों की संख्या बढ़ती जा रही है। वहीं भारत के पड़ोसी देश म्यांमार में सेना क्रूरता से बर्बरता की तरफ बढ़ रही है। म्यांमार की सेना ने गत एक फरवरी को तख्ता पलट दिया था। उसने नवनिर्वाचित सरकार के सत्ता सम्भालने से कुछ घंटे पहले यह कदम उठाया था। जनता ने आम चुनावों में सू की की नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी को भारी संख्या में वोट दिया था। सेना ने सू की और उनके समर्थक राष्ट्रपति को गिरफ्तार कर लिया था। लोकतांत्रिक मूल्य और आदर्श तो हर काल खंड में खंडित होते रहे हैं और म्यांमार में ऐसा बार-बार हुआ। लेकिन वहां फौज जिस तरह से क्रूर और हिंसक हो रही है, उसे कोई भी सभ्य समाज अच्छा नहीं कहेगा। सेना ने उन गांवों को जलाना शुरू कर दिया है जहां के लोगों ने सैनिक शासन के विरोध में जारी आंदोलन को अपना समर्थन दिया। पिछले सप्ताह एक गांव जलाने की खबर दुनियाभर में चर्चित हुई। मागबे क्षेत्र स्थित किन का गांव को आग लगा दी गई, जिसकी आबादी 800 के लगभग रही। यद्यपि सेना ने अपनी क्रूरता छिपाने के लिए कहा कि आग उसने नहीं लगाई बल्कि आतंकवादियों ने लगाई है, लेकिन म्यांमार स्थित ब्रिटिश दूतावास ने गांव की तस्वीरों को ट्वीट किया तो खौफनाक सच सामने आ गया। यह घटना फिर दिखाती है कि सेना भयानक अपराध करने में जुटी हुई है। जगह-जगह इंसानों और पशुओं की लाशें बिखरी पड़ी हैं। चारों तरफ जली हुई लकड़ियां, ईंटें, रसोई घर के सामान आदि बिखरे पड़े हैं। तख्ता पलट होते ही देश में बड़े पैमाने पर नागरिकों का विरोध भड़क उठा, अब भी जारी है। म्यांमार की जनता लोकतंत्र समर्थक है, वह सैन्य शासकों को सहन करने को तैयार नहीं। गांवों को जलाना उसका पुराना तरीका है।
सेना ने 2017 में रोहिंग्या मुसलमानों के सैकड़ों गांव जला दिए थे। तब वह रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ मुहिम चला रही थी। अब ये तरीका उसने अपनी आबादी के खिलाफ अपनाया हुआ है। अब तक सेना आंदोलनकारियों पर कई बार फायरिंग कर चुकी है, जिनमें लगभग 600 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। हिंसा में भी कई लोगों की जान गई है। इतना कुछ होने के बावजूद विश्व समुदाय लाचार होकर सब देख रहा है। लोकतंत्र और मानवाधिकारों के लिए बुलंद होने वाली आवाजें म्यांमार के मामले में मुखर नहीं हैं।
म्यांमार में अराजकता की स्थिति है। राजनीतिक अस्थिरता के चलते लोगों में बैंकों में जमा अपना धन निकालने की होड़ बढ़ गई है। कुछ बैंकों ने एक दिन में केवल 25 लोगों को ही रुपया निकालने की अनुमति दी है। तख्ता पलट के बाद उसकी करंसी क्यात के मूल्य में भारी गिरावट आई है। जनवरी के अंत में एक अमेरिकी डालर का मूल्य 1350 क्यात के बराबर था। अब उसका मूल्य 1600 क्यात तक पहुंच चुका है। चीन सैन्य शासकों का मनोबल बढ़ा रहा है। जहां तक भारत का सवाल है, उसके लिए पड़ोसी देश से आपसी रिश्तो के लिहाज से भारत मुश्किल दौर से गुजर रहा है। भारत दुविधा की स्तिथि में है। वह सूू की के लोकतंत्र का समर्थन करे भी कैसे। सू की शत्रु देश चीन से हाथ मिलाकर खुल्लमखुल्ला भारत को संकेत दे चुकी है। म्यांमार की सेना ने कभी भारत के लिए मुसीबत नहीं खड़ी की। तब भी नहीं, जब सू की नजरबंद थीं और लोकतंत्र बहाली के लिए भारत से उन्हें व्यापक समर्थन मिल रहा था। सू की दिल्ली में ही पढ़ी हैं, उसका समर्थन भावनात्मक रूप से सही था क्योंकि भारत लोकतंत्र का बड़ा समर्थक है। लेकिन सू की जिस रास्ते पर चल पड़ी, वह भारत से दाेस्ती वाला नहीं रहा। सू की ने चीनी राष्ट्रपति शी जिंगपिंग के साथ जब 33 समझौतों पर हस्ताक्षर किये थे तो उसने साफ कर दिया था कि म्यांमार अब बदल चुका है। उसने चीन के साथ कई समझौते किए जो भारत के सामरिक हितों के खिलाफ थे।
यूरोपीय संघ म्यांमार में तख्ता पलट के खिलाफ अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कदम उठाने का इच्छुक है, लेकिन चीन और रूस इसमें बाधा बन रहे हैं। चीन म्यांमार का पहला सबसे बड़ा हथियार सप्लाई करने वाला देश है और रूस दूसरा। ऐसे हालात में समाधान निकलना मुश्किल है। म्यांमार को लेकर जापान का रुख भी नरम है। निवेश और चीन की चिंता उसके उसूलों पर भारी पड़ रहे हैं। जापान ने म्यांमार के खिलाफ कोई आर्थिक प्रतिबंध नहीं लगाया है। जबकि वह भारत और आस्ट्रेलिया के साथ अमेरिकी नेतृत्व वाले क्वाड समूह में शामिल है। दरअसल जापान ने भी म्यांमार में भारी निवेश कर रखा है। अपने-अपने हितों को देखकर सभी खामोश हैं। म्यांमार में सेना बच्चों तक को नहीं छोड़ रही। ऐसे में म्यांमार का क्या होगा, कोई नहीं जानता।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com