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सेना के राजनीतिकरण की चिन्ता

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थलसेनाध्यक्ष जनरल विपिन रावत ने चिन्ता व्यक्त की है कि सेना का राजनीतिकरण करने के प्रयास हो रहे हैं। भारत की समूची लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लिए यह अत्यन्त गंभीर विषय इसलिए है क्योंकि स्वयं जनरल इस तथ्य को स्वीकार कर रहा है। अभी तक राजनीतिक क्षेत्रों में वर्तमान सरकार पर विपक्षी दल ही यह आरोप लगा रहे थे कि वह सेना का राजनीतिकरण करने की कोशिश कर रही है। जनरल रावत हालांकि अपनी बारी से बाहर (आऊट आॅफ टर्न) जाकर वक्तव्य देने के लिए जाने जाते हैं मगर इस बार उन्हाेंने उस संगठन के भविष्य के बारे में अपनी जुबान खोली है जिसके वह सरपरस्त हैं।

जाहिर है कि उनके संज्ञान में कुछ एेसे वाकये जरूर आये होंगे जिनकी वजह से उन्हें अपनी चिन्ता सार्वजनिक करना जरूरी लगा होगा। उन्होंने इस सन्दर्भ में किसी राजनीतिज्ञ या सरकार अथवा नेता का नाम न लेकर अपने सैनिक धर्म का पालन किया है और भारत के लोकतन्त्र की सिपहसालार सेना के धर्म को भी निभाया है। दरअसल भारत की सेना का रुतबा देशभर में इसीलिए बहुत ऊंचा है कि यह राजनीतिक आग्रहों से पूरी तरह दूर रहते हुए अपने कर्तव्य का पालन करती है और नागरिक-प्रशासनिक पेचीदगियों में नहीं उलझती मगर हाल के वर्षों में जिस तरह मीडिया से लेकर राजनीतिक मंचों पर सेना के पूर्व अधिकारियों के माध्यम से देश के राजनीतिक मसलों में फौज को घसीटने की कोशिश हो रही है वह न तो हमारी फौज के लिए उचित है और न ही लोकतन्त्र के लिए।

राजनीतिक मसलों पर सेना से रिटायर हुए अफसरों के विचार जिस तरह से हमारे देश के प्रशासनिक तन्त्र की तुलना सैनिक अनुसासनात्मक दायरे की नियमावली के तहत करने की कोशिश करते हैं उसमें लोकतन्त्र को हिकारत की नजर से देखने का भाव अनचाहे ही प्रकट होता है। इसका प्रमाण हाल ही में वायुसेना के पूर्व अध्यक्ष फाली होमी मेजर द्वारा दिया वह बयान है जिसमें कहा गया था कि मनमोहन सरकार के दौरान मुम्बई हमले के बाद पाकिस्तान के खिलाफ हवाई छापामार कार्रवाई करने की पूरी तैयारी थी मगर उसे राजनीतिक नेतृत्व से हरी झंडी नहीं मिली थी। सेना के किसी भी अंग के प्रमुख से देश की सुरक्षा व्यवस्था की स्थिति छुपी नहीं रहती है। देश की सुरक्षा पेचीदगियों को देखते हुए राष्ट्रीय हितों काे अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के सन्दर्भ में सर्वथा सर्वोपरि रखना किसी भी चुनी हुई सरकार के प्रधानमन्त्री का मुख्य कर्त्तव्य होता है। यह बेवजह नहीं है कि भारत में विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता रक्षामन्त्री के पद पर कार्य करते रहे हैं मगर मन्त्री पद छोड़ने के बाद वे राष्ट्रीय सुरक्षा के उन बिन्दुओं पर जुबान तक नहीं खोलते हैं जिनका सम्बन्ध सैनिक तैयारियों से होता है क्योंकि रक्षामन्त्री पर देश की सुरक्षा का भार होता है और वह संविधान की ली गई कसम से बन्धे होते हैं। यह कसम पद छाेड़ने के बाद भी लागू रहती है क्योंकि इसका वास्ता किसी राजनीतिक दल से नहीं बल्कि पूरे राष्ट्र से होता है मगर पूर्व वायुसेना अध्यक्ष ने बिना किसी वजह के सेना को राजनीतिक रंग देने का असफल प्रयास किया।

हमारे संविधान निर्माताओं ने बहुत ही यत्न से सेना को पूरी तरह ‘अराजनीतिक’ बनाये रखने की व्यवस्था की थी और एेसी प्रणाली शुरू की थी जिससे किसी भी संकट की घड़ी में हमारी फौजें उस लोकतन्त्र की पहरेदारी कर सकें जिसके भीतर भारत की प्रशासनिक व्यवस्था चलती है। संसद ने ही ‘भारतीय सेना कानून’ बनाकर इसे एक स्वतन्त्र व गैर-राजनीतिक सशस्त्र लड़ाकू संगठन बनाया जिसमें भर्ती होने की योग्यता यह स्वयं तय करता है तथा इस राह में न धर्म आड़े आ सकता है और न कोई जाति या क्षेत्र। यह बेवजह नहीं था कि जब सच्चर समिति ने देशभर में मुसलमानों की स्थिति जानने के लिए सेना की तरफ मुंह किया था तो तत्कालीन रक्षामन्त्री श्री प्रणव मुखर्जी ने संसद में ही दो-टूक तरीके से कहा था कि फौज को इसमें शामिल करने का सवाल ही नहीं उठता क्योंकि इसका नौकरी देने का अपना पैमाना है और सरकार का उसमें किसी भी स्तर पर कोई दखल नहीं है, इसमें धर्म का कोई मतलब नहीं है। यह केवल भारतीयों को अपनी सेवा में लेती है, किसी हिन्दू-मुसलमान को नहीं। अतः सेना को राजनीति से दूर रखने की पुख्ता व्यवस्था हमने इस तरह कर रखी है कि कोई भी राजनीतिज्ञ उसका नाम लेकर अपना उल्लू सीधा करने की कोशिश न कर सके। इसके साथ ही सेना को इससे कोई मतलब नहीं होता कि किस पार्टी की सरकार सत्ता पर काबिज है। वह संविधान के अनुसार चुने हुए रक्षामंत्री के मातहत अपने कार्यों को अंजाम देती है इसलिए उसके द्वारा किये गये किसी भी शौर्यपूर्ण कार्य को कोई भी राजनीतिक दल अपनी उपलब्धि बताने का हकदार नहीं हो सकता। यह कार्य आम जनता का होता है कि वह राजनीतिक नेतृत्व की सराहना किस अन्दाज में करती है।

सेना के कारनामों को चुनावी मैदान में भुनाने की परंपरा भारत में कभी नहीं रही। इसकी भी यही वजह है कि सेना को सभी राजनीतिक दल उस राजनीति से ऊपर रखते रहे हैं जिसमें वे संलिप्त रहते हैं ​किन्तु भारत में पाकिस्तान के खिलाफ की गई सर्जिकल स्ट्राइक अनावश्यक रूप से ही राजनीति के पचड़े में फैंक दी गई और इसका श्रेय लेने की भी प्रतियोगिता जैसी शुरू हो गई। हकीकत तो यह है कि इससे केवल यही सिद्ध हुआ कि राजनीति में किस कदर दिमागी दिवालियापन फैल रहा है कि सीमाओं की सुरक्षा के मुद्दे पर भी पार्टियां आपस में भिड़ने को तैयार हैं किन्तु यह बहुत गंभीर मसला है क्योंकि अन्ततः राजनीतिक नेतृत्व ही फौजी कार्रवाइयों को अन्तिम अनुमति देता है। जनरल विपिन रावत की चिन्ता केवल फौज की चिन्ता नहीं कही जा सकती बल्कि यह हर उस राजनीतिक दल की भी चिन्ता होनी चाहिए जो भारत की सत्ता की राजनीति में खुद को बनाये रखना चाहते हैं।

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