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अर्श से फर्श तक लालू

यह नज्म तो आपने सुनी होगी।

‘‘कभी अर्श पर कभी फर्श पर, कभी उनके दर कभी दर-बदर
कभी रुक गए कभी चल दिये, कभी चलते-चलते भटक गए।’’
यह नज्म तो आपने सुनी होगी। फर्श से अर्श पर पहुंचने की कहानियां तो अक्सर मिसाल बन जाती हैं लेकिन पूर्व रेल मंत्री और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव का फर्श से अर्श और फिर अर्श से फर्श तक पहुंचने की कहानी उनकी जिन्दगी की वह सच्चाई है जिनसे आज के राजनीतिज्ञों को सबक सीखना चाहिए। अब एक बार फिर लालू प्रसाद यादव को चारा घोटाले के सबसे बड़े डोरंडा कोषागार से अवैध निकासी मामले में दोषी करार दिया जा चुका है और 21 फरवरी को उन्हें सजा भी सुना दी जाएगी।
डोरंडा कोषागार से 139.35 करोड़ की अवैध निकासी हुई थी। 1990 से 95 के बीच चाईबासा ट्रेजरी, देवधर ट्रेजरी, दुमका ट्रेजरी और डोरंडा ट्रेजरी से पशुचारा और पशुपालन के नाम पर कुल 950 करोड़ की अवैध निकासी हुई थी। लालू यादव चारा घोटाले के कुल पांच मुकद्दमों में अभियुक्त बनाए गए थे, अब इन पांचों मामलों में फैसला आ गया है और सभी में वह दोषी ठहराए गए हैं। अब तक उनकी 27 साल की सजा मुकर्रर हो चुकी है। उन्हें दोषी करार दिए जाने के बाद ​बिहार का सियासी पारा गर्म है। उनकी पार्टी राजद जहां कोर्ट के फैसले का सम्मान करते हुए लालू प्रसाद को मामले में फंसाने का आरोप लगा रही है, वहीं उनके विरोधी कोर्ट के निर्णय पर खुश हैं।  अदालत के फैसलों से स्पष्ट है कि वह सामाजिक न्याय के लिए जेल नहीं गए बल्कि भ्रष्टाचार के कारण जेल पहुंचे हैं। जैसी करनी वैसी भरनी। उन्होंने भ्रष्टशचार का रिकार्ड बनाया है। अभी तो उनके और उनके परिवार के खिलाफ आईआरसीटीसी घोटाला ​लम्बित है। उम्र के इस पड़ाव पर जेल जाना बहुत दुख देने वाला है लेकिन अदालत ने एक संदेश फिर से दिया है कि कानून के आगे कोई बड़ा-छोटा नहीं। कानून ताे अपना काम करेगा ही।
बिहार के गोपालगंज में एक गरीब परिवार में जन्मे लालू ने राजनीति की शुरूआत जयप्रकाश आंदोलन से की। तब वे एक छात्र नेता थे। 1970 में आपातकाल के बाद लोकसभा चुनावों में जीत कर लालू यादव पहली बार लोकसभा पहुंचे तब उनकी उम्र केवल 29 साल थी। 1980 से 1989 तक वह दो बार विधानसभा के सदस्य रहे और विपक्ष के नेता भी रहे। उन्हाेंने सामाजिक न्याय और समाज के दबे-कुचले वर्ग के हितों के लिए आवाज बुलंद की और 1990 में वह ​बिहार के मुख्यमंत्री बन गए। 90 के दशक में वह बिहार की राजनीति में लगभग अजेय बन गए थे। 90 से 97 तक वह लगातार बिहार के मुख्यमंत्री बने। लालकृष्ण अडवानी के नेतृत्व वाली राम रथयात्रा को राेक कर वह काफी चर्चित हो गए थे। राजनीति में लालू यादव का सिक्का 2004 तक चलता रहा। 2004 के लोकसभा चुनावों में उनकी पार्टी ने बिहार  में 24 सीटें जीतकर अपनी धमक दिखाई थी और इन्हीं 24 सीटों के समर्थन के बल पर वह मनमोहन सिंह सरकार में रेलमंत्री बने। रेलमंत्री रहते हुए उन्हाेंने गजब की मैनेजमैंट दिखाई और घाटे में चल रही रेलवे को लाभ में बदल दिया तब लालू को मैनजमेंट गुरु करार दिया गया और कई देशों ने उन्हें व्याख्यान देने के लिए भी बुलाया। लालू प्रसाद यादव के सफेद कुर्ते पर दाग 1997 में लगना शुरू हुआ था जब उनके खिलाफ चारा घोटाले में आरोप पत्र दाखिल किया गया। तब उन्हें मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा था। उन्होंने सत्ता पर काबिज रहने के लिए एक नया तरीका अपनाया और अपनी पत्नी राबड़ी देवी को सत्ता सौंप कर वह खुद राजद के अध्यक्ष बने रहे, बल्कि वह अपरोक्ष रूप से सत्ता की कमान भी अपने हाथ में थामे रहे।
लालू यादव के शासन काल को जंगल राज की संज्ञा दी गई तब बिहार में कानून व्यवस्था की हालत बहुत खराब रही। राह चलते लोगों और युवतियों का अपहरण एक उद्योग बन गया था। लालू शासन में ही बिहार में बाहुबलीपन पनपे और बाहुबलियों को सत्ता का पूरा संरक्षण रहा। 2004 के बाद लालू की राजनीति का ढलान शुरू हुआ। सियासत में लालू के अपने अंदाज भी रहे। संसद हो या कोई टीवी इंटरव्यू या फिर  जनसभा खास भदेस शैली और चुटीले अंदाज की वजह से लालू बिहार और  हिन्दी बैल्ट ही नहीं पूरे देश में लोकप्रिय रहे। उनकी हा ​जिरजवाबी पर क्या पक्ष और क्या विपक्ष सब ठहाके लगाते  दिखते थे। लालू संसद में जब बोलना शुरू करते थे तो तेज-तर्रार बहस और तीखे आरोपों और प्रत्यारोपों के बीच उनकी लाजवाब शैली पर सांसद हंसते नजर आते थे लेकिन उन्होंने सत्ता को न केवल अपनी गरीबी को दूर करने का हथियार बनाया बल्कि बेशुमार सम्पत्ति भी हासिल की। उन्होंने  अपनी सियासती चमक के बल पर सम्पत्ति अर्जित करने के ​लिए क्या-क्या हथकंडे अपनाए यह किसी से छिपा  नहीं है। लालू यादव खुद तो फंसे ही बल्कि पत्नी राबड़ी देवी, बेटी मीसा भारती भी आरोपों के घेरे में आ गईं। स्वास्थ्य कारणों से वह बेल पर बाहर आए थे लेकिन अब उन्हें एक बार फिर जेल जाना पड़ा है। उनके बेटे भी राजद की पुरानी धमक वापिस नहीं ला सके। सियासत की सरहद को तलाश करना आज के दौर में बेमानी हो चुका है। किसी भी दौर में ​सियासत का चेहरा बिल्कुल बेदाग कभी नहीं रहा। लालू यादव का हश्र सभी के लिए एक नजीर बनना चाहिए।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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