अटल जी का ‘अटल सत्य’

अटल जी का ‘अटल सत्य’
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दो दिन बाद भारतीय जनता पार्टी के कद्दावर नेता रहे स्व. अटल बिहारी वाजपेयी का जन्मदिन आ रहा है। वर्तमान राजनैतिक वातावरण में उनकी याद आनी बहुत स्वाभाविक है। उन्होंने भारतीय राजनीति में जो योगदान दिया वह कई मायनों में अविस्मरणीय रहेगा। अटल जी का सबसे बड़ा योगदान स्वान्त्रोंत्तर राजनीति में स्वर्ण अक्षरों में अंकित रहेगा औऱ आने वाली पीढि़यों को प्रेरणा देता रहेगा। उनका सबसे बड़ा योगदान भारत की सियायात में 'संसदीय प्रणाली' की शुचिता और पवित्रता तथा जवाबदेही बनाये रखने के प्रति माना जाता है। वह संसदीय मामलों के गजब के जानकार थे। उनसे बेहतर इस मामले में अगर किसी दूसरे राजनेता की गिनती की जा सकती थी तो निसन्देह रूप से वह उस समय के अटल जी के प्रधानमन्त्रित्व काल में राज्यसभा में विपक्षी नेता भारत रत्न स्व. प्रणाव मुखर्जी ही थे। मगर इसके अतिरिक्त भारतीय राजनीति में अटल जी का जो विशिष्ट योगदान माना जाता है वह इस क्षेत्र में 'हास्य-व्यंग्य व विनोद' का पुट भरना माना जाता है। राजनीति जैसे 'नीरस' विषय को उन्होंने अपनी अद्भुत वाक कला से 'सरस' बनाया औऱ आम जनता की इस क्षेत्र में रुचि जागृत करके उसे राजनीति के 'गूढ गुरों और दांव- पेंचों' को समझने में मदद दी।
आजकल राजनीति में जिस तरह की उग्रता, कटुता व रंजिश देखी जाती है वैसी उनके समय में भी यदा- कदा हो जाती थी मगर वह अपनी वाक पटुता से एेसे क्षणों को बहुत ही सहजता के साथ 'सौम्य' बना देने में सिद्धहस्त थे। वह जिस तरह मुहावरों का प्रयोग करके विषय की क्लिष्ठता को सरल बना देते थे उसे 'अप्रतिम कला' ही कहा जा सकता है। इस मामले में वह किसी को नहीं छोड़ते थे। अपने साथी मन्त्रियों तक से वह व्यंग्य-विनोद में गहरी बात कह दिया कर दिया करते थे। मुझे वह क्षण कभी भूलता नहीं है जब उन्होंने 2003 में अपने मन्त्रिमंडल का वृहद विस्तार व फेरबदल किया था तो वर्तमान में महाराष्ट्र के राज्यपाल 'श्री रमेस बैंस' खान व उत्खनन राज्यमन्त्री बनाये गये थे। श्री बैंस आज भी 'पान' बहुत खाते हैं। अटल जी किसी कार्यवश संसद परिसर के बाहरी क्षेत्र में आये थे तो श्री बैंस उनका हाथ पकड़ कर उन्हें सहारा देते हुए चल रहे थे। किसी तरह मैं भी वहां पहुंच गया और मैंने अटल जी से कहा कि आपने श्री बैंस की पदोन्नति कर दी है तो अटल जी ने तपाक से उत्तर दिया कि अब यह 'खान-पान' मन्त्री हो गये हैं।
एेसे ही एक बार जब लोकसभा में विपक्ष के कांग्रेसी नेता स्व. प्रियरंजन दास मुंशी द्वारा उठाये गये सवालों का जवाब देने खड़े हुए तो उन्होंने श्री मुंशी द्वारा उठाये गये तीखे सवालों की तीव्रता को मृदु करते हुए कहा कि लोग कहते हैं कि 'मैं आदमी तो अच्छा हूं मगर गलत पार्टी में हूं। अच्छा बताओ अगर आदमी अच्छा हूं तो आप मेरे साथ करोगे।' इस पर पूरा सदन जो पहले श्री मुंशी के सवालों से व्यग्रता में था बुरी तरह ठहाकों से गूंज गया। एेसा ही एक वाक्या उनके समय में विपक्ष की नेता श्रीमती सोनिया गांधी के साथ भी हुआ था।
विपक्षी पार्टी कांग्रेस की तरफ से सरकार पर जबर्दस्त हमला किया गया था। विपक्ष ने आरोप लगाया था कि सरकार उसके साथ सलाह- मशविरा करने में कोताही बरतती है। विपक्षी नेताओं की तरफ से यह भी कहा गया कि सरकार संगीन राष्ट्रीय मामलों में विपक्ष के साथ हाथ मिलाने से संकोच करती है। अटल जी जब बोलने खड़े हुए तो उन्होंने कहा कि 'हम केवल हाथ मिलाना ही नहीं चाहते बल्कि गले मिलना भी चाहते हैं।' इस पर सदन का वातावरण हल्का हो गया। इसी प्रकार राज्यसभा में विपक्ष के प्रस्ताव के जवाब में अटल जी ने अपनी सरकार के बारे में सदन के नियमानुसार रखे गये चर्चा प्रस्ताव के जवाब में जो वक्तव्य दिया उसमें उन्हें सरकार से प्रश्न पूछने वाले प्रत्येक विपक्षी सांसद के नाम का उल्लेख भी करना था। उन्हें मार्क्सवादी सांसद श्री नीलोत्पल बसु के नाम पर भ्रम हो गया। वह अपने उत्तर में बोल गये कि 'उत्पल जी' ने जो सवाल खड़ा किया है? इस पर 'नीलोत्पल बसु' उठ कर बोले कि प्रधानमन्त्री जी 'उत्पल' नहीं 'नीलोत्पल' तो अटल जी ने उत्तर दिया कि चलों 'नीलोत्पल में अत्पल तो है।' सदन ठहाके लगाने लगा।
अटल जी अपनी जनसभाओं में भी श्रोताओं को हंसाये बिना नहीं मानते थे और इसके साथ ही गंभीर विषय को सरल बनाते हुए ओजस्वी वाणी में लोगों में नव ऊर्जा का संचार भी करते रहते थे। बात 1973 की है, दिल्ली के चान्दनी चौक में टाऊन हाल के सामने खुले चौक पर एक जनसभा का आयोजन संयुक्त विपक्ष की ओर से किया गया था। इस स्थल के करीब ही बाजार में चान्दनी चौक सीट से ही भाजपा सांसद रहे स्व. रामगोपाल शाल वाले की कपड़े की दुकान भी हुआ करती थी। जनसभा में तब की देश की दूसरी प्रमुख माने जाने वाली 'स्वतन्त्र पार्टी' के नेता स्व. पीलू मोदी भी आये थे। श्री पीलू मोदी टूटी-फूटी हिन्दी में भाषण दिया करते थे। वह मूल रूप से देश के माने हुए वास्तुकार (आर्किटेक्ट) थे। चंडीगढ़ शहर को फ्रांसीसी आर्किटेक्ट 'ले करबूजिये' के साथ मिलकर उन्होंने ही बसाया था। व्यंग्य विनोद में वह भी अटल जी से कम नहीं उतरते थे। उन्होंने भाषण दिया 'इन्दिरा गांधी बोला था कि वो गरीबी हटायेगा। गरीबी तो हटा नहीं लेकिन गरीब हट गया। हम बोलता है हमको हमारा गरीबी वापस करो'। इसके बाद श्री मोदी ने जनसभा में ही कहा कि 'हमारा स्पीच तो अखबार वाला अन्दर के पेज पर छापेगा आप बोलेगा तो वह फ्रंट पेज पर आयेगा। हमारा थोड़ी मदद करना'। इसके बाद अटल जी ने श्री मोदी का यह जुमला खुद उठा लिया और अन्य स्थानों पर अपनी जनसभाओं में इसका खूब प्रयोग किया। हालांकि अटल जी इस जुमले के साथ श्री मोदी का नाम लेना भी नहीं भूलते थे।
राष्ट्रीय सुरक्षा तक के मामले को आम जन के गले उतारने में अटल जी अद्भुत वाक कला का प्रदर्शन करते थे। सीमा पर जब भी उनके विपक्ष में रहते हुए पाकिस्तान की तरफ से जब कभी भी युद्ध विराम उल्लंघन होता था तो अटल जी उसे जनसंवाद में बदल देते थे। इसकी बानगी देखिये। पाकिस्तान ने हमारी सीमाओं पर गोलीबारी की है और हमारे वीर जवानों को नुक्सान पहुंचाय है। हमने जवाब में 'कड़ा विरोध पत्र' लिखा है। यह सुनते ही जनता की प्रतिक्रिया देखने लायक होती थी परन्तु यह श्री वाजपेयी की लोकमूलक राजनीति का केवल एक रचनात्मक व सरस पक्ष है। दूसरा पक्ष भारत की संसदीय परंपराओं को और भी अधिक उच्च स्थान पर पहुंचाने वाला और पारदर्शी व संसद की गरिमा को सर्वोच्च बनाये रखते हुए इसमें चार चांद लगाने वाला है। 1999 के शुरू में जब उनकी सरकार को बने 13 महीने हो गये थे तो लोकसभा में उनकी सरकार ने बहुमत सिद्ध करने के लिए अपनी तरफ से 'विश्वास मत' रखा। उस समय अटल जी की सरकार एक दर्जन से अधिक सहयोगी दलों के सहारे चल रही थी।
मगर अपनी सरकार बचाने के लिए अटल जी ने सुश्री मायावती की बसपा पार्टी समेत किसी भी ऐसे दल से कोई मोल-तोल करने की नीति नहीं अपनाई जिनका रवैया ढुलमुल माना जाता था। जिस दिन मतदान होना था उस दिन कांग्रेस ने 'गिरधर गोमांग' को भी लोकसभा में बुला लिया। गोमांग ओडिशा के मुख्यमंत्री बने थे लेकिन उन्होंने लोकसभा से इस्तीफा नहीं दिया था। जब मतदान हुआ तो अटल जी की सरकार केवल एक वोट से गिर गई और मायावती के सांसदों ने सरकार के खिलाफ मतदान किया। जबकि लोकसभा के अध्यक्ष पद पर तेलगू देशम के स्व. जी एम. बालयोगी बैठे थे। यदि वह चाहते तो अपना मत भी दे सकते थे मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया और अध्यक्ष पद की गरिमा को निष्पक्ष बनाये रखा। तब खुद मायावती भी लोकसभा सदस्य थीं। अटल जी ने इस्तीफा देने में भी देर नहीं की। संसद की शुचिता और इसकी कार्य विधि की पवित्रता को अटल जी ने अक्षुण बनाये रखने के लिए दो बार प्रधानमन्त्री की कुर्सी को ठुकराया और भारत के लोकतन्त्र का माथा पूरी दुनिया में और अधिक ऊंचा किया। उनका यह संसदीय गौरव गान आने वाली पीढि़यां हमेशा गाती रहेंगी। वह वास्तव में संसदीय प्रणाली के 'महानायक' थे।

– राकेश कपूर

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