संसद पर हमला, अब और तब

संसद पर हमला, अब और तब
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यह एक इमारत ज़रूर है पर उससे भी महत्वपूर्ण यह हमारे लोकतंत्र का मंदिर है, उसका प्रतीक है। इसकी पवित्रता पर आंच नहीं आनी चाहिए, क्योंकि संसद है तो लोकतंत्र है, लेकिन इसी भवन में 13 दिसम्बर को दो नौजवान दर्शक गैलरी से लोकसभा के सदन के बीच कूद पड़े और पकडे़ जाने से पहले अंदर धुएं के कनस्तर से पीला धुआं फैलाने में सफल रहे। दो और साथी बाहर पकड़े गए। यह धुआं हानिकारक नहीं था पर अगर उनके पास इसकी जगह बारूद होता तो क्या होता? उस दिन संसद ने 22 वर्ष पहले हुए हमले में संसद की रक्षा करते मारे गए लोगों को श्रद्धांजलि अर्पित की थी और इसी दिन ही खालिस्तानी आतंकवादी गुरपतवंत सिंह पन्नू ने संसद पर हमला करने की धमकी दी थी पर हमारी सुरक्षा व्यवस्था लापरवाह पाई गई। अपराधियों को वहां ही पकड़ लिया गया पर सवाल तो है कि हमारे यहां 'सब चलता है' की संस्कृति क्यों है कि 1200 करोड़ रुपए की लागत से बने नए संसद भवन की सुरक्षा का कुछ नौजवान मजाक बना गए?
जब नया भव्य भवन बनाया गया तो यह बताया गया कि बिल्कुल सुरक्षित होगा, लेकिन कुछ ही महीने में पता चल गया कि भवन बदला, लापरवाह मानसिकता नहीं बदली। इस बार घुसपैठियों के आतंकवादियों के साथ सम्बंध नहीं हैं, न ही वह पेशेवर अपराधी ही हैं, पर अगर होते तो? अब आठ सुरक्षा कर्मियों को सस्पेंड कर दिया गया, लेकिन यह भी छुपा है कि संसद में सुरक्षा कर्मियों की 40 प्रतिशत जगह ख़ाली है। यह कैसे हो गया? नई इमारत में दर्शक गैलरी से सांसदों के ऊपर तक पहुंच जाते हैं जिससे वहां से छलांग लगाना आसान है जबकि पुराने भवन में वह पीछे थी। मुझे याद है कि पहली बार जब मैं संसद की कार्यवाही देखने गया तो सामने लगे जंगले पर मैंने पैर रख दिया। एक सुरक्षाकर्मी तत्काल पहुंचा कि ऐसा करना मना है। ऐसी चौकसी कहां गई? अब तो यह लोग जूतों में छिपाकर स्मोक कैन ले गए और कोई मशीन या कोई गार्ड उन्हें पकड़ नहीं सका।
अब शायद दर्शक गैलरी के सामने शीशा लगाया जाएगा ताकि कोई और फिर कूद न सके। डिज़ाइन में त्रुटि का यह ही इलाज है। संसद और सांसदों को सुरक्षित रखने के लिए सारे उचित कदम उठाए जाने चाहिए पर इसका यह मतलब नहीं होना चाहिए कि जनता, जो वास्तव में इसकी मालिक है, का इस बहाने प्रवेश सीमित कर दिया जाए। जनता को मौक़ा मिलना चाहिए कि वह देख सकें कि उसके सदन की कार्यवाही कैसे चल रही है? दुनिया की कई संसद में तो जनता के लिए विशेष प्रबंध किए जाते हैं। कनाडा की संसद गर्मियों में अपने द्वार लोगों के लिए खोल देती है ताकि लोग वहां बाग में योगा कर सकें। जर्मनी की संसद की इमारत बुंडेस्टैग का गुंबद शीशे का बना हुआ है ताकि लोग ऊपर से देख सकें कि उनके प्रतिनिधि क्या कर रहे हैं? सारा प्रभाव खुलेपन का है। हां, कई संसद में दर्शक गैलरी से पैमफलेट फेंकने की घटनाएं हो चुकी हैं। शीशा लग जाने के बाद यह सम्भावना तो समाप्त हो जाएगी पर यह ज़रूरी ध्यान रखना चाहिए कि संसद का खुलापन सीमित नहीं होना चाहिए। संसद न केवल लोगों की है पर लोगों के लिए भी है।
इन लोगों ने यह तमाशा क्यों किया? क्या वह केवल हताशा में सरकार का ध्यान बेरोज़गारी जैसे मुद्दों पर ले जाना चाहते थे या कोई और ख़तरनाक मक़सद था, यह तो जांच ही बताएगी पर यह दिलचस्प है कि यह सब युवा देश के अलग-अलग हिस्सों से हैं। कोई उत्तर प्रदेश से तो कोई बिहार से तो कोई कर्नाटक से तो कोई महाराष्ट्र से है। संसद भवन के बाहर पकड़ी गई लड़की नीलम सिंह हरियाणा से है। वह बहुत पढ़ी-लिखी है और सिविल सर्विस की परीक्षा की तैयारी कर रही थी जबकि उत्तर प्रदेश का सागर शर्मा 12वीं तक ही पढ़ा है। बिहार का ललित झा टीचर है। महाराष्ट्र का अमोल धनराज शिंदे सेना में भर्ती की तैयारी कर रहा था जबकि कर्नाटक का मनोरंजन देवाराजे गौड़ा इंजीनियरिंग कर चुका है। इतनी विविध और असमान पृष्ठभूमि वाले यह नौजवान इकट्ठे कैसे हो गए? इन सबके बारे बताया जाता है कि वह फ़ेसबुक पर 'भगत सिंह फ़ैन क्लब' से जुड़े हुए हैं। यह दिलचस्प है कि भगत सिंह को फांसी लगे 92 साल के बाद भी वह देश के युवाओं के एक वर्ग के आदर्श हैं। पंजाब में तो हर सरकारी दफ्तर में उनकी तस्वीर लगी है। मुख्यमंत्री भगवंत मान पीली पगड़ी डालते हैं जबकि कोई प्रमाण नहीं कि भगत सिंह ने कभी पीली पगड़ी डाली थी। नीलम सिंह ने फ़ेसबुक पर लिखा है, ' नए भारत के निर्माण के लिए चलो भगत सिंह के रास्ते'। पृष्ठभूमि में भगत सिंह की तस्वीर लगा सागर शर्मा ने फ़ेसबुक पर लिखा है, 'जिन नौजवानों ने कल देश की बागडोर हाथ में लेनी है उन्हें आज ही अकल से अंधा बनाने की कोशिश हो रही है', लेकिन क्या यह लोग भगत सिंह और उनकी वैचारिक गहराई को समझते भी हैं? ठीक है उस महान शहीद ने असेम्बली में बम फेंकते समय कहा था कि 'बहरे कानों को सुनाने के लिए ऊंचे विस्फोट की ज़रूरत है', पर जिन कानों की वह बात कर रहे थे वह फ़िरंगी कान थे। वह साम्राज्यवादी कान थे। वह अपनी संसद में कभी ऐसी हरकत न करते। जिन्होंने संसद में हरकत की है उनके ख़िलाफ़ तो उचित कार्रवाई की जानी चाहिए क्योंकि हम नहीं चाहते कि ऐसी घटना संसद भवन में, या कहीं और, दोहराई जाए। लेकिन इसके साथ यह भी ज़रूरी है कि उस जन प्रतिनिधि जिसके ग़ैरज़िम्मेदार आचरण के कारण संसद की सुरक्षा और प्रतिष्ठा ख़तरे में पड़ी है, के प्रति भी उदारता न दिखाई जाए। इन अभियुक्तों को संसद का प्रवेश पास भाजपा के मसूर से सांसद प्रताप सिम्हा ने दिलवाया था। उनपर भी कार्रवाई होनी चाहिए। संसद के नियमों के बारे एम.एन. कौल और एस.एल. शकधर की किताब में लिखा है, "एक सांसद को दर्शक पास के लिए आवेदन उन्हीं के लिए देना चाहिए जिन्हें वह निजी तौर पर जानता है…सांसद को यह प्रमाणित करना है कि दर्शक मेरा सम्बंधी/ निजी दोस्त/ जिसे मैं निजी तौर पर जानता हूं, और मैं उसकी ज़िम्मेवारी लेता हूं" इसलिए जो हुआ उसकी ज़िम्मेवारी से प्रताप सिम्हा बच नहीं सकते पर अभी तक उनके खिलाफ कोई जांच हुई हो, इसकी कोई खबर नहीं। अगर कोई बड़ी साज़िश है तो सांसद से भी पूछताछ होनी चाहिए। हाल ही में तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा को अपना संसदीय लाॅगइन साझा करने के अपराध में संसद से निष्कासित किया गया था। निश्चित तौर पर प्रताप सिम्हा का अपराध महुआ मोइत्रा से बहुत अधिक गम्भीर है। उनके कारण संसद की सुरक्षा भारी खतरें में पड़ गई थी।
22 साल पहले 13 दिसम्बर, 2001 को संसद पर हमला हुआ था। कई लोग कह रहे हैं कि वर्तमान घटना उससे भी अधिक गम्भीर है। कैबिनेट सचिवालय में पूर्व विशेष सचिव वी. बालाचन्द्रम लिखते हैं, "इस बार जब लोकसभा की कार्यवाही चल रही थी अपराधी संसद के दिल तक पहुंचने में सफल रहे हैं। यह इसे 2001 की घटना से अधिक गम्भीर बना देती है, क्योंकि तब आतंकवादी इमारत के अंदर तक पहुंचने में सफल नहीं हुए थे"। उनका कहना है कि अगर गैस के कनस्तर की जगह उनके पास ग्रेनेड होता तो क्या हालत होती? पर मेरी राय उनसे अलग है, क्योंकि ग्रेनेड या कोई हथियार नहीं थे इसलिए यह घटना उतनी गम्भीर नहीं है। 2001 में तो बाक़ायदा पाकिस्तान प्रशिक्षित आतंकवादी हमला हुआ था। उस दिन आतंकवादी सफ़ेद एम्बेसेडर कार में आए थे। कार में ड्राइवर और पांच आतंकी थे। यह तो सौभाग्य है कि अफ़रा-तफ़री में उस कार की टक्कर उपराष्ट्रपति की कार से हो गई और सुरक्षाकर्मी एलर्ट हो गए। आतंकियों ने संसद में घुसने की कोशिश की थी पर उससे पहले सीआरपीएफ़ की कांस्टेबल कमलेश कुमारी मेन गेट बंद करने में सफल हो गई थी। वह खुद वहां ही शहीद हो गई, उन्हें 11 गोलियां लगी थीं। इस हमले में 9 लोग मारे गए थे। इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ, किसी भी प्रकार का कोई नुक़सान नहीं हुआ। कोई हथियार नहीं थे, इसीलिए मैं समझता हूं कि घटना उतनी गम्भीर नहीं थी, पर सुरक्षा चूक अधिक गम्भीर थी, क्योंकि घुसपैठिए अन्दर तक पहुंचने में कामयाब हो गए।
इन घटनाओं के बाद जो हुआ वह भी पहली घटना से बहुत अलग थी। 22 साल पहले जब आतंकवादी हमला हुआ तो प्रधानमंत्री वाजपेयी और कांग्रेस नेता सोनिया गांधी संसद से घर लौट चुके थे। गृहमंत्री लाल कृष्ण अडवानी और लगभग 200 सांसद वहां मौजूद थे। जब सोनिया गांधी को हमले बारे पता लगा तो उन्होंने तत्काल प्रधानमंत्री वाजपेयी को फ़ोन कर पूछा, "आप ठीक तो हैं", वाजपेयी का जवाब दिया, "मेरा छोड़िए आप ठीक है न?" अगले दिन प्रधानमंत्री वाजपेयी ने संसद में कहा कि "अगर विपक्ष की नेता को प्रधानमंत्री की चिन्ता है तो उसका मतलब है कि हमारा लोकतंत्र स्वस्थ है"। यह भाईचारा अब नज़र नहीं आता। लोकसभा के स्पीकर ओम बिरला ने भी सांसदों को पत्र लिख दु:ख प्रकट किया है कि "अतीत में तो सुरक्षा के अतिक्रमण के समय अनुकरणीय एकजुटता दिखाई गई थी"। अब ऐसा क्यों नहीं है? सत्तापक्ष और विपक्ष बीच संवाद बिल्कुल टूट गया है। विपक्षी सांसद सदन में विघ्न डालते रहते हैं, और सत्ता पक्ष निष्कासन-पे-निष्कासन से जवाब देता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। न केवल संसद भवन की सुरक्षा ही होनी चाहिए, संसदीय लोकतंत्र की भावना की रक्षा भी होनी चाहिए। जो दृश्य हम आजकल देख रहे हैं वह 'मदर ऑफ डिमौक्रेसी' को शोभा नहीं देता।

– चंद्रमोहन

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