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अवध नरेश ‘राम’ की अयोध्या

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आज अयोध्या विवाद पर दिये गये फैसले से भारतीय लोकतन्त्र का वह उजला पक्ष सर्वत्र कांतिमान बन कर आलोकित हुआ है जिसे स्वतन्त्र न्यायपालिका कहा जाता है।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आज अयोध्या विवाद पर दिये गये फैसले से भारतीय लोकतन्त्र का वह उजला पक्ष सर्वत्र कांतिमान बन कर आलोकित हुआ है जिसे स्वतन्त्र न्यायपालिका कहा जाता है। सदियों पुराने इतिहास के उतार-चढ़ाव की चादरों से अभिशप्त इस विवाद को भारत की सबसे बड़ी अदालत के पांच न्यायमूर्तियों की संविधान पीठ ने मुख्य न्यायाधीश श्री रंजन गोगोई की अध्यक्षता में जिस वैज्ञानिक दृष्टिकोण से धार्मिक निष्ठाओं का सम्मान करते हुए निपटाया है उससे भारतीय संविधान की उन असीम क्षमताओं का पता चलता है जो स्वतन्त्र भारत के किसी भी गूढ़ विवाद को तर्कपूर्ण ढंग से निपटा सकती हैं। 
श्री गोगोई ने ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए स्पष्ट कर दिया कि भारत में प्रत्येक धर्म के पूजा स्थल को संरक्षण देने के कर्त्तव्य से सरकार बन्धी हुई है। अतः उन्होंने अयोध्या के विवादित राम जन्मभूमि स्थल का अधिकार हिन्दू पक्ष को देने के साथ ही मुसलमानों को अपनी मस्जिद बनाने के लिए पांच एकड़ भूमि अन्यत्र देने का आदेश दिया। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि न्यायमूर्तियों ने सर्वसम्मति से अपना फैसला सुनाया जिसमें हिन्दू पक्षकारों का यह दावा ऐतिहासिक दस्तावेजों के आधार पर सही माना गया कि 1992 में ध्वस्त बाबरी मस्जिद के मुख्य गुम्बद के नीचे स्थित स्थल पर बेशक 22 दिसम्बर 1949 को राम-सीता की मूर्तियां स्थापित की गईं किन्तु पुरातत्व विभाग द्वारा दिये गये साक्ष्यों के अनुसार इसके नीचे ही  प्राचीन हिन्दू मन्दिर के अवशेष पाये गये थे परन्तु विद्वान न्यायाधीशों ने यह भी स्वीकार नहीं किया कि 16वीं सदी में बाबर काल के दौरान उसके एक सिपेहसालार मीर बाकी ने किसी मन्दिर को तोड़ कर मस्जिद का निर्माण किया था। 
सर्वोच्च न्यायालय ने 2010 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा दिये गये फैसले को सिरे से खारिज करते हुए विवादित स्थल को तीन हिस्सों में बांटे जाने को गलत बताया और इसमें एक पक्षकार निर्मोही अखाड़े के दावे को गैर मुनासिब करार देते हुए उसकी इस दलील को मंजूर नहीं किया कि वह इस स्थान पर सेवा प्रबन्धन का कार्य करता रहा है। दरअसल विवादित स्थल से लगे हुए बाहर राम चबूतरे और सीता की रसोई के चिरकालीन  अविवादित अस्तित्व को देखते हुए 1532 के करीब तामीर हुई मस्जिद की भूमि के मालिकाना हक के पुख्ता सबूत मुस्लिम पक्ष ‘सुन्नी वक्फ बोर्ड’ न्यायालय में पेश करने में सफल नहीं हो सका जबकि मस्जिद के नीचे हुई खुदाई में पुरातत्व विभाग को मन्दिर के अवशेष प्राप्त हुए थे। 
इसके साथ ही मस्जिद परिसर में ही पूजा-पाठ को लेकर 1857 में हिन्दू-मुस्लिम  के बीच तनाव भी हुआ था। मस्जिद के बाहर ही स्थित राम चबूतरे पर सुन्नी वक्फ बोर्ड ने हिन्दुओं का अधिकार भी न्यायालय में स्वीकार किया। चूंकि मुख्य मुकदमा जमीन के मालिकाना हक को लेकर ही था। अतः फैसला हिन्दुओं के पक्ष में गया और बाबरी स्थल की सारी भूमि मन्दिर निर्माण के लिए दे दी गई। न्यायालय ने यह माना कि इसमें कोई शंका की गुंजाइश नहीं है कि हिन्दुओं की मान्यता के अनुसार  भगवान राम का जन्म अयोध्या में ही हुआ था। उनकी मान्यता है कि उनका जन्म ध्वस्त मस्जिद की गुम्बद के नीचे स्थित गर्भगृह में हुआ था। 
मस्जिद जिस जमीन पर तामीर हुई उसके मालिकाना हुकूक मुस्लिम सुन्नी वक्फ बोर्ड साबित नहीं कर पाया। जबकि इसके साथ लगे राम चबूतरे और सीता की रसोई के हिन्दू मालिकाना हकों पर कोई विवाद नहीं है। अतः बहुत स्पष्ट है कि न्यायमूर्तियों ने पुख्ता सबूतों की रोशनी में ही विवादित स्थल को हिन्दुओं को देते हुए न्याय को सिरे चढ़ाया है जिस पर अभी किसी प्रकार का विवाद नहीं होना चाहिए और सभी हिन्दू-मुस्लिम नागरिकों को इसे सिर माथे लगाते हुए फैसले का एहतराम करना चाहिए। इस मुद्दे पर अब राजनीति पूरी तरह बन्द होनी चाहिए और मन्दिर व मस्जिद निर्माण के लिए सरकार को न्यासों का गठन करना चाहिए। 
यह कार्य अगले तीन महीनों में पूरा हो जाना चाहिए। इसमें न किसी की जीत हुई है और न किसी की हार बल्कि हिन्दोस्तान की उस संस्कृति की विजय  हुई है जिसे ‘गंगा-जमुनी’ तहजीब कहा जाता है। अयोध्या का एहतराम  अवध के नवाबों ने भी हमेशा किया। अवध और कुछ नहीं अयोध्या का ही  अपभ्रंश  हैं और अवध के नवाबों का राजचिन्ह भगवान राम का धनुष और इस्लाम में पाक समझी जाने वाली मछली ही होती थी। यही चिन्ह आज भी उत्तर प्रदेश की सरकार का है। स्वतन्त्रता से पहले उत्तर प्रदेश का नाम ‘यूनाइटेड प्राविंस एंड अयोध्या’ ही था। हिन्दू मान्यताओं में भगवान राम को ‘अवध नरेश’माना गया है। 
अतः बकौल अल्लामा इकबाल ‘इमामे हिन्दराम’ के जन्मस्थल को सहर्ष सहमति देना प्रत्येक भारतीय मुसलमान के लिए भी फख्र का मंजर कहा जा सकता है। इतिहास में बहुत कुछ ऐसा घटा है जिसके लिए आज की पीढ़ी को किसी भी तरह जिम्मेदार नहीं माना जा सकता। मगर भरत का इतिहास यह भी तो है कि औरंगजेब के मराठा सिपहसालार आपागंगाधर ने ही उसके लिये दक्षिण की हिन्दू रियासतों पर फतेह पाकर दिल्ली के चान्दनी चौक में लाल किले के सामने ही ‘भगवान गौरी शंकर मन्दिर’ का निर्माण कराया था जबकि औरंगजेब पक्का सुन्नी मुस्लिम था। वर्तमान दौर में संयुक्त अरब अमीरात के सुल्तान अपने मुस्लिम देश में हिन्दू मन्दिर के लिए जमीन मुहैया कराने से गुरेज नहीं करते। 
हमें अब मन्दिर-मस्जिद विवाद से आगे बढ़ना है और नये भारत का निर्माण करना है। इसलिए मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के मेम्बरान गौर से सुने और इसके आतिशी वकील जफरयाब जिलानी अपना दिल और दिमाग साफ करके सिर्फ हिन्दोस्तानियत के ऊंचे मुकाम पर नजरें रखते हुए इस मुल्क की बेनजीर रवायतों को माथे पर लगाने की सोचें। क्या गजब का हिन्दोस्तान है कि सर्वोच्च न्यायालय में मुसलमानों का पुरजोर तरीके से पक्ष रखने का काम भी एक हिन्दू वकील श्री राजीव धवन ने ही किया। ऐसे मुल्क पर कौन कुर्बान होना नहीं चाहेगा।
‘‘उसे कौन देख सकता, कि यागाना है वह यकता
जो दुई कि बू भी होती, कहीं दु-चार होता’’

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