समाजवादी पार्टी के नेता श्री आजम खां को ‘सांसद- विधायक अदालत’ से जो राहत मिली है, वह इस बात का प्रमाण है कि देश की निचली जिला स्तर की अदालतों में भी किसी भी व्यक्ति या पक्ष की सुनवाई पूरी तरह इंसाफ पसन्द तरीके से होती है। उत्तर प्रदेश के रामपुर के अतिरिक्त सेशन जज ने जिस तरह सबूतों व अन्य साक्ष्यों के अभाव में श्री खां को निचली अदालत द्वारा सुनाये गये फैसले से निजात दी है उसने यह सिद्ध कर दिया है कि भारत में न्याय आदमी का चेहरा देखकर नहीं किया जाता। श्री आजम खां को ही निचली अदालत द्वारा सुनाये गये फैसले पर की गई अपनी तल्ख टिप्पणी पर अफसोस जाहिर करना भी बनता है। बेशक यह फैसला 2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान एक नफरती बयान काे लेकर दिया गया था जिससे समाज में हिंसा व वैमनस्य को बढ़ावा मिलने की आशंका थी। निचली अदालत के मजिस्ट्रेट ने उस बयान के लिए उन्हें कुसूरवार माना और तीन साल की सजा सुनाई जिसके नतीजे में उनकी लोकसभा की सदस्यता भी जाती रही और उनकी सीट पर उपचुनाव हुआ जिसमें भाजपा का प्रत्याशी विजयी रहा। हालांकि श्री खां आरोप लगाते रहे कि उनके समर्थकों को इस उपचुनाव में पुलिस व प्रशासन ने वोट ही नहीं डालने दिया।
इसमें कोई दो राय नहीं कि इस उपचुनाव में मतदान का प्रतिशत औसत से बहुत ही कम रहा था परन्तु लोकतन्त्र में जीत तो जीत ही होती है। इसे दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि उत्तर प्रदेश विधानसभा में लगातार दस बार विधायक रहने वाले श्री आजम खां पहली बार 2019 में सांसद बने तो उनके खिलाफ निचली अदालत का विवादास्पद बयान के बारे में यह फैसला आ गया था और उनकी सांसदी कानून के तहत जाती रही। अब विधि विशेषज्ञों के लिए यह मामला एक अध्ययन का विषय हो सकता है कि किसी मामले में दो साल या उससे अधिक की सजा मिलने के बाद संसद सदस्यता जाने पर फैसला पलटने पर बेजुर्म साबित होने से क्या कानूनी कार्रवाई संसद सदस्यता को लेकर हो सकती है? क्योंकि विगत वर्ष 27 अक्तूबर को जैसे ही निचली दालत में नफरती बयान का कुसूरवार मानते हुए मजिस्ट्रेट ने उन्हें तीन साल की सजा सुनाई थी तो अगले दिन ही उनकी संसद की सदस्यता समाप्त कर दी गई थी और फिर उपचुनाव भी बहुत जल्दी करा दिया गया था।
हालांकि वर्तमान लोकसभा का कार्यकाल अब एक वर्ष से भी कम का रह गया है मगर एक कानूनी सवाल तो खड़ा हुआ है ही। मगर इसके साथ यह भी हकीकत है कि श्री आजम खां अपनी तल्ख और तुर्स बयानी के लिए भी मशहूर रहे हैं हालांकि उनके ये बयान हिन्दू सम्प्रदाय के कुछ उग्र लोगों द्वारा दिये गये बयानों के जवाब में ही ज्यादा आया करते थे मगर एेसा भी कई बार देखा गया कि वह भारत के विविध धर्मी समाज के लोगों के बीच मजहबी आकीदों को लेकर निन्दनीय बयान तक दे डालते थे। उनकी यह राजनीति समाजवादी पार्टी के लिए मुस्लिम सम्प्रदाय के लोगों में इसके लिए आसरा जैसी जरूर बनती गई लेकिन इससे उत्तर प्रदेश लगातार साम्प्रदायिक राजनीति के आगोश में ही फंसता रहा। गौर से देखा जाये तो उन्हें समाजवादी पार्टी के संस्थापक स्व. मुलायम सिंह ने अपना विश्वास पात्र बनाया और उनकी राजनीतिक आकांक्षाओं को हवा भी दी। कुछ राजनैतिक पंडितों का यह भी मानना रहा है कि यदि 1992 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद का ढांचा गिराये जाने के बाद समाजवादी पार्टी में मुलायम सिंह व आजम खां की जोड़ी न होती तो मुस्लिम समुदाय उग्रवाद की तरफ बढ़ सकता था। उस दौर में इस जोड़ी ने मुस्लिमों को सांत्वना देने का काम किया। फिर भी यदि इसका श्रेय किसी को दिया जा सकता है तो वह अकेले मुलायम सिंह को दिया जा सकता है क्योंकि उत्तर प्रदेश की जमीन पर उन्होंने मुस्लिमों में अपने नेतृत्व के प्रति विश्वास पैदा करने में सफलता प्राप्त की। उनके सुपुत्र अखिलेश यादव आज अपने पिता की राजनैतिक कमाई ही खा रहे हैं।
वैसे आजम खां ने 2012 में मुलायम सिंह की उपस्थिति में ही समाजवादी पार्टी द्वारा उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव जीतने पर अखिलेश यादव के मुकाबले मुख्यमन्त्री पद पर अपना दावा ठोक दिया था क्योंकि वह मानते थे कि समाजवादी पार्टी का मजबूत जनाधार तैयार करने में उनकी प्रमुख भूमिका को मुलायम सिंह नजरंदाज नहीं कर सकते। इस मौके पर उन्होंने एक तल्ख टिप्पणी भी की थी कि ‘आज यह जमाना आ गया है कि मुलायम सिंह के बेटे को भी हमें अपना नेता बनाना पड़ रहा है’ । कांग्रेस पार्टी से अपना राजनैतिक सफर शुरू करने वाले आजम खां ने सबसे ज्यादा नुक्सान भी इसी पार्टी को पहुंचाया और अपने शहर रामपुर से ही रामपुर के नवाब की बेगम नूर बानो तक को राजनीति में हरा डाला। हालांकि बेगम नूर बानो रामपुर इलाके के लोगों में आज भी बहुत लोकप्रिय हैं और दो बार रामपुर से ही कांग्रेस के टिकट पर सांसद रह चुकी हैं।
आदित्य नारायण चोपड़ा