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बी.एच.यू. का ‘उल्टा’ ज्ञान

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भारत के विश्वविद्यालयों को किसी भी स्तर पर प्राचीन रूढि़वादिता और प्रागैतिहासिक काल की रूमानी कहानियों की तसदीक की प्रयोगशाला नहीं बनाया जा सकता है और आधुनिक वैज्ञानिक युग की विकास गाथा को उन कहानियों के साये में रख कर नहीं परखा जा सकता है। आश्चर्य की बात है कि केन्द्र सरकार के साये में चल रहे ‘बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय’ में इस प्रकार की दकियानूसी मानसिकता के बीजों को रोपने की कोशिश की जा रही है और एम.ए. की परीक्षा देने वाले छात्रों से जो प्रश्न पूछे जा रहे हैं वे इस विश्वविद्यालय के संस्थापक महामना मदन मोहन मालवीय की भारत को आधुनिक शिक्षा पद्धति से परिपूर्ण करने के विचार के न केवल पूरी तरह उलट हैं बल्कि भारतीय संस्कृति की महान वैज्ञानिक विरासत के भी विरुद्ध है। यदि एम.ए. की परीक्षा के राजनीति शास्त्र के प्रश्नपत्र में यह सवाल पूछा जाता है कि हाल ही में लागू हुए जीएसटी शुल्क का कौटिल्य के अर्थशास्त्र में मूल्यांकन करो ? तो स्वयं ढाई हजार साल पहले चन्द्रगुप्त मौर्य की सत्ता को अपने इशारे पर चलाने वाले आचार्य चाणक्य की आत्मा भी चीत्कार करने लगेगी क्योंकि कौटिल्य ने स्वयं भी कभी कल्पना नहीं की होगी कि हजारों साल बीत जाने के बाद कोई एेसा ‘मेधावी शोधार्थी’ पैदा होगा जो उनके आर्थिक सिद्धान्तों की व्याख्या को इतना सहज रूप देते हुए जीएसटी के स्वरूप में पेश कर देगा।

कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में जो दिशा नियामक सिद्धान्त शुल्क या कर प्रणाली के रूप में बताया है वह केवल इतना ही है कि राजा को अपनी प्रजा से कर उसी तरह वसूल करना चाहिए जिस तरह मधुमक्खियां विभिन्न पुष्पों से पराग एकत्रित करके मधु (शहद) का उत्पादन करती हैं। इसका अर्थ यही है कि व्यापार या वाणिज्य जगत के लोगों से शुल्क वसूल करते हुए राजा को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि व्यापारी के व्यापार पर इसका विपरीत असर न पड़े और वह लगातार उसी प्रकार फला-फूला दिखाई दे जिस प्रकार पुष्प पराग के चूसे जाने के बाद भी खिला रहता है। मगर भारत में जो जीएसटी लागू हुआ है उसने तो लोगों के व्यापार–धन्धे इस तरह चौपट किये हैं कि लाखों लोग बेरोजगारी की हालत में पहुंच गये हैं और छोटे–छोटे उद्योग-धन्धे चौपट हो गये हैं। इतना ही नहीं विश्वविद्यालय में एम.ए. राजनीति शास्त्र के छात्रों को यह भी पढ़ाया जा रहा है कि ‘मनु’ ने ही सबसे पहले दुनिया को आर्थिक वैश्वीकरण का विचार दिया और उनका धार्मिक, राजनीतिक व सामाजिक व्यवस्था का सिद्धान्त दुनिया के विभिन्न देशों को प्रेरणा दे रहा है।

हैरत की बात यह है कि बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में ‘भारतीय राजनीतिक प्रणाली व भारतीय राजनीतिक विचार’ के प्रोफेसर के ये विचार हैं और वह राजनीति शास्त्र के पाठ्यक्रम से बाहर ही अपने छात्रों काे ये पाठ पढ़ाकर परीक्षा में सवाल भी पूछ रहे हैं। यह भी रोचक तथ्य है कि ये प्रोफेसर महोदय एक विशिष्ट संस्था के सदस्य हैं लेकिन इन महोदय से कोई यह पूछे कि पूरी दुनिया में गणित के सिद्धान्तों में जब भारत के मनीषी भास्कराचार्य, रामानुजाचार्य और लीलावती का सिद्धान्त पढ़ाया जाता है तो कौन से विश्वविद्यालय में मनघड़ंत सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया जाता है? कौन सी सांस्कृतिक संस्था ने इनके सिद्धान्तों को पाठ्यक्रम में शामिल करने के लिए जोर डाला था ? कौटिल्य का अर्थशास्त्र तो पाठ्यक्रम में पहले से ही शामिल है मगर उसे ‘जीएसटी’ से किस तरह जोड़ा जा सकता है ? आर्थिक वैश्वीकरण या भूमंडलीकरण का मनु से क्या लेना–देना है? भारत में वर्ण व्यवस्था या जाति व्यवस्था के आधार पर सामाजिक विज्ञान की व्याख्या करने वाले मनु का कौन सा सिद्धान्त आज के समाज पर लागू करके अर्थव्यवस्था को चलाया जा सकता है? बाबा साहेब अम्बेडकर की विरासत को वोट बैंक के लालच से ललचायी नजरों से देखने वाले लोग किस तरह मनुस्मृति को अपने सीने में छिपाये फिरते हैं, उसका यह जीता-जागता प्रमाण है मगर किसी भी सूरत में वे भारत की युवा पीढ़ी को पथ भ्रष्ट नहीं कर सकते अतः विश्वविद्यालय के छात्रों को एेसे लोगों का पुरजोर विरोध करना चाहिए। क्या सितम है कि पिछले कुछ वर्षों से बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय केवल गलत बातों और संस्कृति के नाम पर अत्याचार किये जाने वाले मामलों के लिए ही सुर्खियों में आ रहा है। कभी यहां छात्राओं के साथ कैदी की तरह व्यवहार करने के हुक्म जारी होते हैं तो कभी छात्र संघ चुनावों में ज्यादतियां किये जाने की खबरें आती हैं। आखिर हम किस तरह की युवा पीढ़ी का निर्माण करना चाहते हैं ? क्या कयामत है कि एम.ए. के छात्रों को पढ़ाया जा रहा है कि रामायण काल में भी दुश्मन को परास्त करने के लिए ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ की जाती थीं। क्या इस तरह युवा पीढ़ी को आदिम काल में ले जाकर कोई भी सरकार अपनी नीतियों का प्रचार कर सकती है ? एेसे ही लोग भारत की प्रगति में लगातार बाधक बने रहे हैं क्योंकि उन्होंने भारत को मदारियों, जादूगरों और बाजीगरों का देश ही बनाये रखने के लिए अपनी पूरी ताकत लगाई।

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