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बाबाओं का मायाजाल

अपने लिए कोई भी सांसारिक इच्छा नहीं रखने वालों तथा परोपकार में अपना जीवन बिताने वालों को ही संत कहा जाता है। सांसारिक हित करने की इच्छा को समाप्त कर जब परहित की इच्छा प्रबल हो जाती है

अपने लिए कोई भी सांसारिक इच्छा नहीं रखने वालों तथा परोपकार में अपना जीवन बिताने वालों को ही संत कहा जाता है। सांसारिक हित करने की इच्छा को समाप्त कर जब परहित की इच्छा प्रबल हो जाती है तो ही व्यक्ति ‘संत’ कहलाने का पात्र बनता है। जिनके मन में ईष्या, द्वेष नहीं, जो मन, वचन,  कर्म से पवित्र है, जो शत्रु मित्र से समदर्शी है, प्रदर्शन और आडम्बर से दूर है, जो मर्यादाओं का पालन करते हैं, जो संतोषी और दयालु हैं, वे ही संत हैं। आज के दौर में सच्चा संत मिलना काफी दुर्लभ है। भारत में अनेक महान ऋषि , मुनि, तपस्वी और संत हुए हैं जिन्होंने समय-समय पर समाज को बहुत कुछ दिया। 
एक बार सम्राट अकबर ने संत कुंमनदास काे आगरा के पास फतेहपुर ​सीकरी में अपने दरबार में बुलाया। कुंमनदास ने पहले तो दरबार में जाने से ही इंकार कर दिया लेकिन तमाम अनुरोधों के बाद वह सीकरी गए। अकबर ने उनका भव्य स्वागत और सत्कार किया लेकिन संत ने अकबर से कुछ भी लेने से इंकार कर दिया। कुंमनदास दरबार से लौटे तो उन्होंने एक पत्र लिखा।
संतन को कहा सीकरी से काम
आवत जात पनहिया टूटी, बिसर गयो हरिनाम।
मगर आधुनिक संत ‘मार्केटिंग गुरु’ हैं। अब तो बाबाओं को राजसत्ता से ही काम रह गया है और राजनीतिक दल उन्हें पूर्ण संरक्षण प्रदान करते हैं। राजनीतिक दल उन्हें इसलिए महत्व देते हैं क्योंकि उनके पीछे धर्म को मानने वाले लाखों लोगों की भीड़ होती है। एक युवा बाबा धीरेन्द्र शास्त्री आजकल बहुत चर्चित हो रहे हैं। उनके पीछे लाखों की भीड़ देखकर बहुत सारे सवाल उठते हैं कि आखिर इन बाबाओं के महाजाल का समाज शास्त्र क्या है? इनके पीछे जनता के भागने का क्या अर्थशास्त्र और मनो​िवज्ञान है। भारतीय समाज आस्थावादी और धर्मपरायण रहा है। सीधा-सीधा यह कहा जा सकता है कि जब मनुष्य के जीवन में भौतिक सुख-सुविधाओं का महत्व बढ़ जाए और आध्यात्मिक चेतना शून्य हो जाए तो हर कोई अपने जीवन के दुख-दर्द, पीड़ा, रोग दूर करने के लिए ऐसे बाबाओं के प्रति आकर्षित हो रहा है। हर व्यक्ति परेशान और बेचैन हो चला है। ऐसी स्थिति में भीड़ बाबाओं के पीछे भागने लगती है। 
समस्या यह है कि बाबाओं के पीछे भीड़ को देखकर राजनीतिक दल उन्हें अपना संरक्षण प्रदान करने लगते हैं। इससे पहले आसाराम, गुरमीत राम रहीम, रामपाल, नित्यानंद, जय गुरुदेव और अन्य कई ढोंगी बाबाओं ने भारत की सनातन परम्परा को कलंकित किया है। कौन नहीं जानता कि इन बाबाओं पर हत्याओं से लेकर महिलाओं के यौन शोषण, अपहरण और अन्य जघन्य अपराधों के आरोप साबित हो चुके हैं। कौन नहीं जानता कि ढोंगी बाबाओं ने दलाली, ठेकेदारी और सफेदपोश लोगों के कालेधन को सफेद करके ही अपना आर्थिक साम्राज्य हजारों करोड़ तक फैला ​लिया है। लगभग सभी राजनीतिक दलों ने वोट बैंक की खातिर इन सबको पहले संरक्षण देकर ताकतवर बनाया लेकिन जब इनके देश और समाज विरोधी कारनामों का भंडाफोड़ हुआ तो इन पर कार्रवाई करने को मजबूर होना पड़ा। जब तक पाखंडी बाबा देश के लिए खतरा नहीं बन जाते तब तक पुलिस और अन्य एजैंसियां तमाशबीन बनी रहती हैं। ऐसे बाबाओं के ​खिलाफ कार्रवाई तभी की जाती है जब राजनीतिक दलों को भी इनसे खतरा सताने लगता है। कौन नहीं जानता कि धर्म की आड़ में हथियार जमा करके स्वयंभू धार्मिक प्रचारकों ने देश की एकता और अखंडता को बार-बार चुनौती दी है। जब पानी सिर से गुजरने लगता है तब कार्रवाई की नौबत आती है। सब जानते हैं कि ऐसे बाबा अपने खासमखास लोगों को राजनीतिक दलों से टिकट दिलवाकर चुनाव लड़वाते हैं और राजसत्ता में परोक्ष हिस्सेदारी करते हैं। अपने प्रभाव से किसी को मंत्री बनाना, उच्च अफसरों के तबादले वाली युक्तियां करवा सकते हैं। जब भी चुनाव आते हैं तो सजा भुगत रहे बाबाओं को तुरंत पैरोल मिल जाती है। जबकि हजारों लोग जेलों में बंद हैं। लोग जमानत की मामूली राशि का प्रबंध न करने की वजह से जेलों में बंद हैं। ऐसे पाखंड़ियों को कानून की इंतहा तो यह रही कि नित्यानंद जैसा पाखंडी संयुक्त राष्ट्र संघ तक पहुंचने में कामयाब हो गया। कागजी देश कैलाशा का प्रतिनिधित्व करते हुए उसकी एक महिला प्रतिनिधि संयुक्त राष्ट्र संघ में ऑनलाइन भारत के खिलाफ भाषण तक दे आई। ऐसे पाखंडी बाबाओं की धूनी राजनीति की दुनिया में रमने लगी है। 
बाबाओं के पीछे लाखों श्रद्धालुओं की भीड़ बाबाओं को राजनीति का बेहतर खिलाड़ी बना रही है और उनके करियर को तब तक कोई खतरा नहीं जब तक वे प्रभावशाली राजनीतिक दल से जुड़े हुए हैं। वैसे तो भारत में लोकतंत्र की जड़ों में तंत्र-मंत्र काफी प्रभावशाली रहा है। कौन नहीं जानता कि बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ धीरेन्द्र ब्रह्मचारी और चन्द्रास्वामी की शरण में रहे हैं। सवाल यह उठता है कि आखिर बाबाओं के इस भ्रमजाल से धर्म भीरू जनता को कैसे बचाया जाए। इस पर भी ध्यान देना होगा कि इंटरनेट की वर्चुअल दुनिया के मुकाबले यथार्थ की दुनिया से कैसे जोड़ा जाए। सनातन संस्कृति और जीवन मूल्यों को कैसे बचाया जाए। इसके लिए मनुष्य की आध्यात्मिक चेतना को जगाना होगा। दोषी केवल पाखंडी बाबा ही नहीं बल्कि हमारा भटका हुआ समाज है। आज जरूरत है आडम्बर और अंधविश्वास दूर करने के लिए धार्मिक सुधार आंदोलन की। लोगों काे आस्था और अंधविश्वास का अंतर तो पता होना ही चाहिए।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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